29. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 29

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

उनतीसवाँ सर्ग – ३२ श्लोक ।।

सारांश ।।

विश्वामित्रजी का श्रीराम से सिद्धाश्रम का पूर्व वृत्तान्त बताना और उन दोनों भाइयों के साथ अपने आश्रम पर पहुँच कर पूजित होना। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से ११ ।।

१.
अपरिमित प्रभावशाली भगवान् श्रीराम का वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्रजी ने उनके प्रश्न का उत्तर देना आरम्भ किया- ।।

२ से ३.
“महाबाहु श्रीराम! पूर्वकाल में यहाँ देव वन्दित भगवान् विष्णु ने बहुत वर्षों एवम् सौ युगों तक तपस्या के लिये निवास किया था। उन्होंने यहाँ बहुत बड़ी तपस्या की थी। यह स्थान महात्मा वामन का – वामन अवतार धारण करने को उद्यत हुए श्रीविष्णु का अवतार ग्रहण से पूर्व आश्रम था ।” । ।।

४ से ५.
“इसकी सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्धि थी; क्योंकि यहाँ महा तपस्वी विष्णु को सिद्धि प्राप्त हुई थी। जब वे तपस्या कर रहे थे, उसी समय विरोचन कुमार राजा बलि ने इन्द्र और मरुद्रण सहित समस्त देवताओं को पराजित करके उनका राज्य अपने अधिकार में कर लिया था। वे तीनों लोकों में विख्यात हो गये थे ।” ।।

६.
“उन महाबली महान् असुरराज ने एक यज्ञ का आयोजन किया। उधर बलि यज्ञ में लगे हुए थे, इधर अग्नि आदि देवता स्वयम् इस आश्रम में पधार कर भगवान् विष्णु से बोले - ।।

७.
“सर्वव्यापी परमेश्वर! विरोचन कुमार बलि एक उत्तम यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं। उनका वह यज्ञ-सम्बन्धी नियम पूर्ण होनेसे पहले ही हमें अपना कार्य सिद्ध कर लेना चाहिये ।” ।।

८.
“इस समय जो भी याचक इधर-उधर से आकर उनके यहाँ याचना के लिये उपस्थित होते हैं, वे गो, भूमि और सुवर्ण आदि सम्पत्तियों में से जिस वस्तु को भी लेना चाहते हैं, उन को वे सारी वस्तुएँ राजा बलि यथावत् रूप से अर्पित करते हैं ।” ।।

९.
“अतः, विष्णो! आप देवताओं के हित के लिये अपनी योगमाया का आश्रय ले वामन रूप धारण करके उस यज्ञ में जाइये और हमारा उत्तम कल्याण साधन कीजिये ।” ।।

१० से ११.
“श्रीराम! इसी समय अग्नि के समान तेजस्वी महर्षि कश्यप अपनी धर्मपत्नी अदिति के साथ अपने तेज से प्रकाशित होते हुए वहाँ आये। वे एक सहस्र दिव्य वर्षों तक चलने वाले महान् व्रत को अदितिदेवी के साथ ही समाप्त कर के आये थे। उन्होंने वरदायक भगवान् मधुसूदन की इस प्रकार स्तुति की - ।।

श्लोक १२ से २१ ।।

१२.
“भगवन्! आप तपोमय हैं। तपस्या की राशि हैं। तप आपका स्वरूप है। आप ज्ञान स्वरूप हैं। मैं भलीभाँति तपस्या करके उसके प्रभाव से आप पुरुषोत्तम का दर्शन कर रहा हूँ ।” ।।

१३.
“प्रभो! मैं इस सारे जगत् को आप के शरीर में स्थित देखता हूँ। आप अनादि हैं। देश, काल और वस्तु की सीमा से परे होने के कारण आपका इदमित्थं रूपसे निर्देश नहीं किया जा सकता। मैं आपकी शरण में आया हूँ ।” ।।

१४.
“कश्यपजी के सारे पाप धुल गये थे। भगवान् श्रीहरि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे कहा — “महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अपनी इच्छा के अनुसार कोई वर माँगो; क्योंकि तुम मेरे विचार से वर पानेके योग्य हो ।” ।।

१५ से १६.
“भगवान का यह वचन सुनकर मरीचिनन्दन कश्यप ने कहा- “उत्तम व्रत का पालन करने वाले वरदायक परमेश्वर! सम्पूर्ण देवताओं की, अदिति की तथा मेरी भी आपसे एक ही बात के लिये बारम्बार याचना है। आप अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझे वह एक ही वर प्रदान करें। भगवन्! निष्पाप नारायणदेव ! आप मेरे और अदिति के पुत्र हो जायँ तुम मेरे” ।।

१७.
“असुरसूदन! आप इन्द्र के छोटे भाई हों और शोक से पीड़ित हुए इन देवताओं की सहायता करें।” ।।

१८.
“देवेश्वर! भगवन्! आपकी कृपा से यह स्थान सिद्धाश्रम के नाम से विख्यात होगा। अब आपका तपरूप कार्य सिद्ध हो गया है; अतः, यहाँ से उठिये।” ।।

१९.
“तदनन्तर महातेजस्वी भगवान् विष्णु अदितिदेवी के गर्भ से प्रकट हुए और वामन रूप धारण करके विरोचनकुमार बलि के पास गए।” ।।

२० से २१.
“सम्पूर्ण लोकोंके हित में तत्पर रहनेवाले भगवान् विष्णु बलि के अधिकार से त्रिलोकी का राज्य ले लेना चाहते थे; अतः, उन्होंने तीन पग भूमि के लिये याचना करके उन से भूमिदान ग्रहण किया और तीनों लोकों को आक्रान्त करके उन्हें पुनः देवराज इन्द्र को लौटा दिया। महातेजस्वी श्रीहरि ने अपनी शक्ति से बलि का निग्रह करके त्रिलोकी को पुनः इन्द्र के अधीन कर दिया।” ।।

श्लोक २२ से ३२ ।।

२२.
“उन्हीं भगवान ने पूर्वकाल में यहाँ निवास किया था। इस लिये यह आश्रम सब प्रकार के श्रम (दुख-शोक) का नाश करने वाला है। उन्हीं भगवान् वामन में भक्ति होने के कारण मैं भी इस स्थान को अपने उपयोग में लाता हूँ।” ।।

२३.
“इसी आश्रम पर मेरे यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षस आते हैं। पुरुषसिंह! यहीं तुम्हें उन दुराचारियों का वध करना है।” ।।

२४.
“श्रीराम! अब हम लोग उस परम उत्तम सिद्धाश्रम में पहुँच रहे हैं। तात ! वह आश्रम जैसे मेरा है, वैसे ही तुम्हारा भी है।” ।।

२५.
ऐसा कह कर महामुनि ने बड़े प्रेम से श्रीराम और लक्ष्मण के हाथ पकड़ लिये और उन दोनों के साथ आश्रम में प्रवेश किया। उस समय पुनर्वसु नामक दो नक्षत्रों के बीचमें स्थित तुषा रहित चन्द्रमा की भाँति उनकी शोभा हो रही थी। ।।

२६ से २७.
विश्वामित्रजी को आया देख सिद्धाश्रम में रहने वाले सभी तपस्वी उछल्ते कूदते हुए सहसा उनके पास आये और सबने मिलकर उन बुद्धिमान् विश्वामित्रजी की यथोचित पूजा की। इसी प्रकार उन्होंने उन दोनों राजकुमारों का भी अतिथि सत्कार किया। ।।

२८.
दो घड़ी तक विश्राम करने के बाद रघुकुल को आनन्द देनेवाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्र से बोले - ।।

२९.
“मुनिश्रेष्ठ! आप आज ही यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करें। आपका कल्याण हो। यह सिद्धाश्रम वास्तव में यथानाम तथागुण सिद्ध हो और राक्षसों के वध के विषय में आपकी कही हुई बात सच्ची हो।” ।।

३० से ३२.
उनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र जितेन्द्रियभाव से नियमपूर्वक यज्ञ की दीक्षा में प्रविष्ट हुए। वे दोनों राजकुमार भी सावधानी के साथ रात व्यतीत करके सबेरे उठे और स्नान आदि से शुद्ध हो प्रातःकाल की संध्योपासना तथा नियमपूर्वक सर्वश्रेष्ठ गायत्री मन्त्र का जप करने लगे। जप पूरा होनेपर उन्होंने अग्निहोत्र करके बैठे हुए विश्वामित्रजी के चरणों में वन्दना की। ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 29- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.