30. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 30
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
तीसवाँ सर्ग – २६ श्लोक ।।
सारांश ।।
श्रीराम द्वारा विश्वामित्रजी के यज्ञ की रक्षा तथा राक्षसों का संहार। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
तदनन्तर, देश और काल को जानने वाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण जो देश और काल के अनुसार बोलने योग्य वचन के मर्मज्ञ थे, कौशिक मुनि से इस प्रकार बोले - ।।
२.
“भगवन्! अब हम दोनों यह सुनना चाहते हैं कि किस समय उन दोनों निशाचरों का आक्रमण होता है? क्योंकि हमें उन दोनों को यज्ञभूमि में आने से रोकना है। कहीं ऐसा न हो, असावधानी में ही वह समय हाथ से निकल जाय; अतः, उसे हमें बता दीजिये।” ।।
३.
ऐसी बात कहकर युद्ध की इच्छा से उतावले हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारों की ओर देख कर वे सब मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन दोनों बन्धुओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। ।।
४.
वे बोले — “ये मुनिवर विश्वामित्रजी तो यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं; अतः, अब मौन रहें गे। आप दोनों रघुवंशी वीर सावधान होकर आज से छः रातों तक इनके यज्ञ की रक्षा करते रहें।” ।।
५.
मुनियों का यह वचन सुनकर वे दोनों यशस्वी राजकुमार लगातार छः दिन और छः रात तक उस तपोवन की रक्षा करते रहे; इस बीच में उन्होंने नींद भी नहीं ली। ।।
६.
शत्रुओं का दमन करने वाले वे परम धनुर्धर वीर सतत सावधान रहकर मुनिवर विश्वामित्र के पास खड़े हो उन की (और उनके यज्ञ की) रक्षा में लगे रहे। ।।
७.
इस प्रकार कुछ काल बीत जानेपर जब छठा दिन आया, तब श्रीराम ने सुमित्राकुमार लक्ष्मण से कहा – “सुमित्रानन्दन! तुम अपने चित्त को एकाग्र करके सावधान हो जाओ।” ।।
८.
युद्ध की इच्छा से शीघ्रता करते हुए श्रीराम इस प्रकार कह ही रहे थे कि उपाध्याय (ब्रह्मा), पुरोहित (उपद्रष्टा ) तथा अन्यान्य ऋत्विजों से घिरी हुइ यज्ञ की वेदी सहसा प्रज्वलित हो उठी (वेदी का यह जलना राक्षसों के आगमन का सूचक उत्पात था)। ।।
९.
इसके बाद कुश, चमस, स्रुक्, समिधा और फूलों के ढेर से सुशोभित होनेवाली विश्वामित्र तथा ऋत्विजों सहित जो यज्ञ की वेदी थी, उस पर आहवनीय अग्नि प्रज्वलित हुइ (अग्नि का यह प्रज्वलन यज्ञ के उद्देश्य से हुआ था)। ।।
१०.
फिर तो शास्त्रीय विधि के अनुसार वेद मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक उस यज्ञ का कार्य आरम्भ हुआ। इसी समय आकाश में बड़े जोर का शब्द हुआ, जो बड़ा ही भयानक था। ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११ से १२.
जैसे वर्षाकाल में मेघों की घटा सारे आकाश को घेर कर छायी हुई दिखायी देती है, उसी प्रकार मारीच और सुबाहु नामक राक्षस सब ओर अपनी माया फैलाते हुए यज्ञमण्डप की ओर दौड़े आ रहे थे। उनके अनुचर भी साथ थे। उन भयंकर राक्षसों ने वहाँ आकर रक्त की धाराएँ बरसाना आरम्भ कर दिया। ।।
१३ से १४.
रक्त के उस प्रवाह से यज्ञ वेदी के आस-पास की भूमि को भीगी हुई देख श्रीरामचन्द्रजी सहसा दौड़े और इधर-उधर दृष्टि डालने पर उन्होंने उन राक्षसों को आकाश में स्थित देखा। मारीच और सुबाहु को सहसा आते देख कमलनयन श्रीराम ने लक्ष्मण की ओर देखकर कहा- ।।
१५.
“लक्ष्मण! वह देखो, मांसभक्षण करनेवाले दुराचारी राक्षस आ पहुँचे हैं। मैं मानवास्त्र से इन सब को उसी प्रकार मार भगाऊँ गा, जैसे वायु के वेग से बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। मेरे इस कथन में तनिक भी संदेह नहीं है। ऐसे कायरों को मैं मारना नहीं चाहता।” ।।
१६ से १७.
ऐसा कहकर वेगशाली श्रीराम ने अपने धनुष पर परम उदार मानवास्त्र का संधान किया। वह अस्त्र अत्यन्त तेजस्वी था। श्रीराम ने बड़े रोष में भरकर मारीच की छाती में उस बाण का प्रहार किया। ।।
१८.
उस उत्तम मानवास्त्र का गहरा आघात लगने से मारीच पूरे सौ योजन की दूरी पर समुद्र के जल में जा गिरा। ।।
१९.
शीतेषु नामक मानवास्त्र से पीड़ित हो मारीच अचेत-सा हो कर चक्कर काटता हुआ दूर चला जा रहा है। यह देख श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- ।।
२०.
“लक्ष्मण! देखो, मनु के द्वारा प्रयुक्त शीतेषु नामक मानवास्त्र इस राक्षस को मूर्छित करके दूर लिये जा रहा है, किंतु उसके प्राण नहीं ले रहा है।” ।।
श्लोक २१ से २६ ।।
२१.
“अब यज्ञ में विघ्न डालने वाले इन दूसरे निर्दय, दुराचारी, पापकर्मी एवम् रक्तभोजी राक्षसों को भी मार गिराता हूँ।” ।।
२२ से २३.
लक्ष्मण से ऐसा कहकर रघुनन्दन श्रीराम ने अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए-से शीघ्र ही महान् आग्नेयास्त्र का संधान करके उसे सुबाहु की छाती पर चलाया। उसकी चोट लगते ही वह मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर महायशस्वी परम उदार रघुवीर ने वायव्यास्त्र लेकर शेष निशाचरों का भी संहार कर डाला और मुनियों को परम आनन्द प्रदान किया। ।।
२४.
इस प्रकार रघुकुलनन्दन श्रीराम यज्ञ में विघ्न डालने वाले समस्त राक्षसों का वध कर के वहाँ ऋषियों द्वारा उसी प्रकार सम्मानित हुए जैसे पूर्वकाल में देवराज इन्द्र असुरों पर विजय पाकर महर्षियों द्वारा पूजित हुए थे। ।।
२५.
यज्ञ समाप्त होने पर महामुनि विश्वामित्र ने सम्पूर्ण दिशाओं को विघ्न-बाधाओं से रहित देखकर श्रीरामचन्द्रजी से कहा – ।।
२६.
“महाबाहो! मैं तुम्हें पाकर कृतार्थ हो गया। तुमने गुरु की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन किया है। महायशस्वी वीर ! तुमने इस सिद्धाश्रम का नाम सार्थक कर दिया। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी की प्रशंसा करके मुनि ने उन दोनों भाइयों के साथ संध्योपासना की। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 30- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
