28. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 28

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

अठाइसवाँ सर्ग – २२ श्लोक ।।

सारांश ।।

विश्वामित्रजी का श्रीराम को अस्त्रों की संहार विधि बताना तथा उन्हें अन्यान्य अस्त्रों का उपदेश करना, श्रीराम का एक आश्रम एवम् यज्ञ स्थान के विषय में मुनि से प्रश्न। पूछना। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
उन अस्त्रों को ग्रहण करके परमपवित्र श्रीराम का मुख प्रसन्नता से खिल उठा था। वे चलते-चलते ही विश्वामित्रजी से बोले - ।।

२.
“भगवन्! आप की कृपा से इन अस्त्रों को ग्रहण करके मैं देवताओं के लिये भी दुर्जय हो गया हूँ। मुनिश्रेष्ठ! अब मैं अस्त्रों की संहार विधि भी जानना चाहता हूँ।” ।।

३.
ककुत्स्थकुलतिलक श्रीराम के ऐसा कहने पर महातपस्वी, धैर्यवान्, उत्तम व्रतधारी और पवित्र विश्वामित्र मुनि ने उन्हें अस्त्रों की संहार विधि का उपदेश दिया। ।।

४ से १०.
तदनन्तर, वे बोले – “रघुकुलनन्दन राम! तुम्हारा कल्याण हो! तुम अस्त्रविद्या के सुयोग्य पात्र हो; अतः, निम्नाङ्कित अस्त्रों को भी ग्रहण करो - सत्यवान्, सत्यकीर्ति, धृष्ट, रभस, प्रतिहारतर, प्राङ्मुख, अवाङ्मुख, लक्ष्य, अलक्ष्य, दृढ़नाभ, सुनाभ, दशाक्ष, शतवत्रक, दशशीर्ष, शतोदर, पद्मनाभ, महानाभ, दुन्दुनाभ, स्वनाभ, ज्योतिष, शकुन, नैरास्य, विमल, दैत्यनाशक यौगंधर और विनिद्र, शुचिबाहु, महाबाहु, निष्कलि, विरुच, सार्चिमाली, धृतिमाली, वृत्तिमान्, रुचिर, पित्र्य, सौमनस, विधूत, मकर, परवीर, रति, धन, धान्य, कामरूप, कामरुचि, मोह, आवरण, जृम्भक, सर्पनाथ, पन्थान और वरुण - ये सभी प्रजापति कृशाश्व के पुत्र हैं। ये इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले तथा परम तेजस्वी हैं। तुम इन्हें ग्रहण करो।” ।।

श्लोक ११ से २२ ।।

११.
तब “बहुत अच्छा।” कहकर श्रीरामचन्द्रजी ने प्रसन्न मन से उन अस्त्रों को भी ग्रहण किया। उन मूर्तिमान् अस्त्रों के शरीर दिव्य तेजसे उद्भासित हो रहे थे। वे अस्त्र जगतको सुख देनेवाले थे। ।।

१२.
उनमें से कितने ही अंगारों के समान तेजस्वी थे। कितने ही धूएं के समान काले प्रतीत होते थे तथा कुछ अस्त्र सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशमान थे। वे सब के सब हाथ जोड़कर श्रीराम के समक्ष खड़े हो गए। ।।

१३.
उन्होंने अञ्जलि बांधे मधुर वाणी में श्रीराम से इस प्रकार कहा – “पुरुषसिंह ! हमलोग आपके दास हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें ?” ।।

१४.
तब रघुकुलनन्दन राम ने उनसे कहा – “ इस समय तो आपलोग अपने अभीष्ट स्थान को जायँ; परंतु आवश्यकता के समय मेरे मन में स्थित होकर सदा मेरी सहायता करते रहें।” ।।

१५.
तत्पश्चात्, वे श्रीराम की परिक्रमा करके उनसे विदा लेकर उनकी आज्ञा के अनुसार कार्य करने की प्रतिज्ञा करके जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। ।।

१६ से १७.
इस प्रकार उन अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके श्री रघुनाथजी ने चलते-चलते ही महामुनि विश्वामित्रजी से मधुर वाणी में पूछा – “भगवन्! सामने वाले पर्वत के पास ही जो यह मेघों की घटा के समान सघन वृक्षों से भरा स्थान दिखायी दे रहा है, यह क्या है? उसके विषय में जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा हो रही है।” ।।

१८.
“यह दर्शनीय स्थान मृगों के झुंड से भरा हुआ होने के कारण अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहा है। नाना प्रकार के पक्षी अपनी मधुर शब्दावली से इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं।” ।।

१९.
“मुनिश्रेष्ठ! इस प्रदेश की इस सुखमयी स्थिति से यह जान पड़ता है कि अब हमलोग उस रोमाञ्च कारी दुर्गम ताटका वन से बाहर निकल आये हैं।” ।।

२० से २२.
“भगवन्! मुझे सब कुछ बताइये। यह किसका आश्रम है? भगवन्! महामुने! जहाँ आप की यज्ञ क्रिया हो रही है, जहाँ वे पापी, दुराचारी, ब्रह्महत्यारे, दुरात्मा राक्षस आपके यज्ञ में विघ्न डालने के लिये आया करते हैं और जहाँ मुझे यज्ञ की रक्षा तथा राक्षसों के वध का कार्य करना है, आपके उस आश्रम का कौन-सा देश है? ब्रह्मन् ! मुनिश्रेष्ठ प्रभो! यह सब मैं सुनना चाहता हूँ।” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अट्ठाइसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ।।

Sarg 28- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.