18. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 18
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।
अठारहवाँ सर्ग – २६ श्लोक ।।
सारांश ।।
श्रीराम के टाल देने पर शूर्पणखा का लक्ष्मण से प्रणय याचना करना, फिर उन के भी टालने पर उस का सीता पर आक्रमण और लक्ष्मण का उस के नाक-कान काट लेना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
श्रीराम ने कामपाश से बंधी हुइ उस शूर्पणखा से अपनी इच्छा के अनुसार मधुर वाणी में मन्द-मन्द मुसकराते हुए कहा- ।।
२.
“आदरणीया देवि! मैं विवाह कर चुका हूँ। यह मेरी प्यारी पत्नी विद्यमान है। तुम-जैसी स्त्रियों के लिये तो सौत का रहना अत्यन्त दुखदायी ही होगा” ।।
३ से ४.
“ये मेरे छोटे भाई श्रीमान् लक्ष्मण बड़े शीलवान्, देखने में प्रिय लगने वाले और बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं। इन के साथ स्त्री नहीं है। ये अपूर्व गुणों से सम्पन्न हैं। ये तरुण तो हैं ही, इन का रूप भी देखने में बड़ा मनोरम है। अतः, यदि इन्हें भार्या की चाह होगी तो ये ही तुम्हारे इस सुन्दर रूप के योग्य पति होंगे” ।।
५.
“विशाललोचने! वरारोहे! जैसे सूर्य की प्रभा मेरु पर्वत का सेवन करती है, उसी प्रकार तुम मेरे इन छोटे भाई लक्ष्मण को पति के रूप में अपनाकर सौत के भय से रहित हो इन की सेवा करो” ।।
६.
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर वह काम से मोहित हुइ राक्षसी उन्हें छोड़ कर सहसा लक्ष्मण के पास जा पहुँची और इस प्रकार बोली- ।।
७.
“लक्ष्मण! तुम्हारे इस सुन्दर रूप के योग्य मैं ही हूँ, अतः, मैं ही तुम्हारी परम सुन्दरी भार्या हो सकती हूँ। मुझे अङ्गीकार कर लेने पर तुम मेरे साथ समूचे दण्डकारण्य में सुख पूर्वक विचरण कर सकोगे” ।।
८.
उस राक्षसी के ऐसा कहने पर बातचीत में निपुण सुमित्राकुमार लक्ष्मण मुसकरा कर सूप-जैसे नखों वाली उस निशाचरी से यह युक्तियुक्त बात बोले- ।।
९.
“लाल कमल के समान गौर वर्ण वाली सुन्दरि! मैं तो दास हूँ, अपने बड़े भाई भगवान् श्रीराम के अधीन हूँ, तुम मेरी स्त्री हो कर दासी बनना क्यों चाहती हो?” ।।
१०.
“विशाललोचने! मेरे बड़े भैया सम्पूर्ण ऐश्वर्यों (अथवा सभी अभीष्ट वस्तुओं) से सम्पन्न हैं। तुम उन्हीं की छोटी स्त्री हो जाओ। इस से तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध हो जायँगे और तुम सदा प्रसन्न रहोगी। तुम्हारे रूप-रंग उन्हीं के योग्य निर्मल हैं” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“कुरूप, ओछी, विकृत, धँसे हुए पेट वाली और वृद्धा भार्या को त्याग कर ये तुम्हें ही सादर ग्रहण करेंगे” ।।
१२.
“सुन्दर कटिप्रदेशवाली वरवर्णिनी! कौन ऐसा बुद्धिमान मनुष्य होगा, जो तुम्हारे इस श्रेष्ठ रूप को छोड़ कर मानव कन्याओं से प्रेम करेगा?” ।।
१३.
लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर परिहास को न समझने वाली उस लंबे पेट वाली विकराल राक्षसी ने उन की बात को सच्ची माना ।।
१४.
वह पर्णशाला में सीता के साथ बैठे हुए शत्रुसंतापी दुर्जय वीर श्रीरामचन्द्रजी के पास लौट आयी और काम से मोहित हो कर बोली- ।।
१५.
“राम! तुम इस कुरूप, ओछी, विकृत, धँसे हुए पेटवाली और वृद्धा का आश्रय ले कर मेरा विशेष आदर नहीं कर रहे हो” ।।
१६.
“अतः, आज तुम्हारे देखते-देखते मैं इस मानुषी को खा जाऊँगी और इस सौत के न रहने पर तुम्हारे साथ सुख पूर्वक विचरण करूँगी” ।।
१७.
ऐसा कह कर दहकते हुए अंगारों के समान नेत्रों वाली शूर्पणखा अत्यन्त क्रोध में भर कर मृगनयनी सीता की ओर झपटी, मानो कोइ बड़ी भारी उल्का रोहिणी नामक तारे पर टूट पड़ी हो ।।
१८.
महाबली श्रीराम ने मौत के फंदे की तरह आती हुई उस राक्षसी को हुंकार से रोक कर कुपित हो लक्ष्मण से कहा-
१९.
“सुमित्रानन्दन! क्रूर कर्म करनेवाले अनार्यों से किसी प्रकार का परिहास भी नहीं करना चाहिये। सौम्य! देखो न, इस समय सीता के प्राण किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से बचे हैं” ।।
२०.
“पुरुषसिंह! तुम्हें इस कुरूपा, कुलटा, अत्यन्त मतवाली और लंबे पेटवाली राक्षसी को कुरूप-किसी अङ्ग से हीन कर देना चाहिये” ।।
श्लोक २१ से २६ ।।
२१.
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार आदेश देने पर क्रोध में भरे हुए महाबली लक्ष्मण ने उन के देखते- देखते म्यान से तलवार खींच ली और शूर्पणखा के नाक-कान काट लिये॥
२२.
नाक और कान कट जाने पर भयंकर राक्षसी शूर्पणखा बड़े जोर से चिल्ला कर जैसे आयी थी, उसी तरह वन में भाग गयी ।।
२३.
खून से भीगी हुई वह महाभयंकर एवम् विकराल रूपवाली निशाचरी नाना प्रकार के स्वरों में जोर – जोर से चीत्कार करने लगी , मानो वर्षा काल में मेघों की घटा गर्जन - तर्जन कर रही हो ।।
२४.
वह देखने में बड़ी भयानक थी। उसने अपने कटे हुए अङ्गों से बारंबार खून की धारा बहाते और दोनों भुजाएँ ऊपर उठा कर चिग्घाड़ते हुए एक विशाल वन के भीतर प्रवेश किया ।।
२५.
लक्ष्मण के द्वारा कुरूप की गयी शूर्पणखा वहाँ से भाग कर राक्षस समूह से घिरे हुए भयंकर तेजवाले जनस्थान निवासी भ्राता खर के पास गयी और जैसे आकाश से बिजली गिरती है , उसी प्रकार वह पृथ्वी पर गिर पडी ।।
२६.
खर की वह बहन रक्त से नहा गयी थी और भय तथा मोह से अचेत - सी हो रही थी। उस ने वन में सीता और लक्ष्मण के साथ श्रीरामचन्द्रजी के आने और अपने कुरूप किये जाने का सारा वृत्तान्त खर से कह सुनाया ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।।
Sarg 18- Aranya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
