17. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 17
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।
सत्रहवाँ सर्ग – २९ श्लोक ।।
सारांश ।।
श्रीराम के आश्रम में शूर्पणखा का आना, उन का परिचय जानना और अपना परिचय दे कर उन से अपने को भार्या के रूप में ग्रहण करने के लिये अनुरोध करना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
स्नान कर के श्रीराम, लक्ष्मण और सीता, तीनों ही उस गोदावरी के तट से अपने आश्रम में लौट आये ।।
२.
उस आश्रम में आ कर लक्ष्मण सहित श्रीराम ने पूर्वाह्नकाल के होम-पूजन आदि कार्य पूर्ण किये, फिर वे दोनों भाइ पर्णशाला में आ कर बैठ गए ।।
३ से ४.
वहाँ सीता के साथ वे सुख पूर्वक रहने लगे। उन दिनों बड़े-बड़े ऋषि-मुनि आ कर वहाँ उन का सत्कार करते थे। पर्णशाला में सीता के साथ बैठे हुए महाबाहु श्रीरामचन्द्रजी चित्रा के साथ विराजमान चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। वे अपने भाई लक्ष्मण के साथ वहाँ तरह-तरह की बातें किया करते थे ।।
५ से ६.
उस समय जब कि श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ बात चीत में लगे हुए थे, एक राक्षसी अकस्मात् उस स्थान पर आ पहुँची। वह दशमुख राक्षस रावण की बहिन शूर्पणखा थी। उस ने वहाँ आ कर देवताओं के समान मनोहर रूप वाले श्रीरामचन्द्रजी को देखा ।।
७.
उन का मुख तेजस्वी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और नेत्र प्रफुल्ल कमल दल के समान विशाल एवम् सुन्दर थे। वे हाथी के समान मन्द गति से चलते थे। उन्हों ने मस्तक पर जटामण्डल धारण कर रखा था ।।
८.
परम सुकुमार, महान् बलशाली, राजोचित लक्षणों से युक्त, नील कमल के समान श्याम कान्ति से सुशोभित, कामदेव के सदृश सौन्दर्यशाली तथा इन्द्र के समान तेजस्वी श्रीराम को देखते ही वह राक्षसी काम से मोहित हो गयी ।।
९ से १०.
श्रीराम का मुख सुन्दर था और शूर्पणखा का मुख बहुत ही भद्दा एवम् कुरूप था। उनका मध्यभाग (कटिप्रदेश और उदर) क्षीण था; किंतु शूर्पणखा बेडौल लंबे पेटवाली थी। श्रीराम की आँखें बड़ी-बड़ी होने के कारण मनोहर थीं, परंतु उस राक्षसी के नेत्र कुरूप और डरावने थे। श्री रघुनाथजी के केश चिकने और सुन्दर थे, परंतु उस निशाचरी के सिर के बाल ताँबे-जैसे लाल थे। श्रीराम का रूप बड़ा प्यारा लगता था, किंतु शूर्पणखा का रूप बीभत्स और विकराल था। श्रीराघवेन्द्र मधुर स्वर में बोलते थे, किंतु वह राक्षसी भैरव नाद करने वाली थी ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
ये देखने में सौम्य और नित्य नूतन तरुण थे, किंतु वह निशाचरी क्रूर और हजारों वर्षों की बुढ़िया थी। ये सरलता से बात करने वाले और उदार थे, किंतु उसकी बातों में कुटिलता भरी रहती थी। ये न्यायोचित सदाचार का पालन करने वाले थे और वह अत्यन्त दुराचारिणी थी। श्रीराम देखने में प्यारे लगते थे और शूर्पणखा को देखते ही घृणा पैदा होती थी ।।
१२ से १३.
तो वह राक्षसी कामभाव से आविष्ट हो (मनोहर रूप बना कर) श्रीराम के पास आयी और बोली- “तपस्वी के वेश में मस्तक पर जटा धारण किये, साथ में स्त्री को लिये और हाथ में धनुष- बाण ग्रहण किये, इस राक्षसों के देश में तुम कैसे चले आये? यहाँ तुम्हारे आगमन का क्या प्रयोजन है? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताओ” ।।
१४.
राक्षसी शूर्पणखा के इस प्रकार पूछने पर शत्रुओं को संताप देनेवाले श्रीरामचन्द्रजी ने अपने सरल स्वभाव के कारण सब कुछ बताना आरम्भ किया- ।।
१५.
“देवि! दशरथ नाम से प्रसिद्ध एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं, जो देवताओं के समान पराक्रमी थे। मैं उन्हीं का ज्येष्ठ पुत्र हूँ और लोगों में राम के नाम से विख्यात हूँ” ।।
१६.
“ये मेरे छोटे भाई लक्ष्मण हैं, जो सदा मेरी आज्ञा के अधीन रहते हैं और ये मेरी पत्नी हैं, जो विदेहराज जनक की पुत्री तथा सीता नाम से प्रसिद्ध हैं” ।।
१७.
“अपने पिता महाराज दशरथ और माता कैकेयी की आज्ञा से प्रेरित हो कर मैं धर्म पालन की इच्छा रख कर धर्म की रक्षा के ही उद्देश्य से इस वन में निवास करने के लिये यहाँ आया हूँ” ।।
१८.
“अब मैं तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहता हूँ। तुम किस की पुत्री हो? तुम्हारा नाम क्या है? और तुम किस की पत्नी हो? तुम्हारे अङ्ग इतने मनोहर हैं कि तुम मुझे इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली कोई राक्षसी प्रतीत होती हो। यहाँ तुम किस लिये आयी हो? यह ठीक-ठीक बताओ” ।।
१९ से २०.
श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुन कर वह राक्षसी काम से पीड़ित हो कर बोली- “श्रीराम! मैं सब कुछ ठीक-ठीक बता रही हूँ। तुम मेरी बात सुनो। मेरा नाम शूर्पणखा है और मैं इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली राक्षसी हूँ” ।।
श्लोक २१ से २९ ।।
२१.
“मैं समस्त प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करती हुई इस वन में अकेली विचरती हूँ। मेरे भाइ का नाम रावण है। सम्भव है, उसका नाम तुम्हारे कानों तक पहुँचा हो” ।।
२२.
“रावण विश्रवा मुनि का वीर पुत्र है, यह बात भी तुम्हारे सुनने में आयी होगी। मेरा दूसरा भाइ महाबली कुम्भकर्ण है, जिस की निद्रा सदा ही बढ़ी रहती है” ।।
२३.
“मेरे तीसरे भाइ का नाम विभीषण है, परंतु वह धर्मात्मा है, राक्षसों के आचार-विचार का वह कभी पालन नहीं करता। युद्ध में जिन का पराक्रम विख्यात है, वे खर और दूषण भी मेरे भाई ही हैं” ।।
२४.
“श्रीराम! बल और पराक्रम में मैं अपने उन सभी भाइयों से बढ़कर हूँ। तुम्हारे प्रथम दर्शन से ही मेरा मन तुम में आसक्त हो गया है। (अथवा तुम्हारा रूप-सौन्दर्य अपूर्व है। आज से पहले देवताओं में भी किसी का ऐसा रूप मेरे देखने में नहीं आया है, अतः इस अपूर्व रूप के दर्शन से मैं तुम्हारे प्रति आकृष्ट हो गयी हूँ।) यही कारण है कि मैं तुम-जैसे पुरुषोत्तम के प्रति पति की भावना रख कर बड़े प्रेम से पास आयी हूँ” ।।
२५.
“मैं प्रभाव (उत्कृष्ट भाव-अनुराग अथवा महान् बल-पराक्रम) से सम्पन्न हूँ और अपनी इच्छा तथा शक्ति से समस्त लोकों में विचरण कर सकती हूँ, अतः अब तुम दीर्घकाल के लिये मेरे पति बन जाओ। इस अबला सीता को ले कर क्या करोगे?” ।।
२६.
“यह विकार युक्त और कुरूपा है, अतः तुम्हारे योग्य नहीं है। मैं ही तुम्हारे अनुरूप हूँ, अतः मुझे अपनी भार्या के रूप में देखो” ।।
२७.
“यह सीता मेरी दृष्टि में कुरूप, ओछी, विकृत, धँसे हुए पेटवाली और मानवी है, मैं इसे तुम्हारे इस भाइ के साथ ही खा जाऊँगी” ।।
२८.
“फिर तुम काम भाव युक्त हो मेरे साथ पर्वतीय शिखरों और नाना प्रकार के वनों की शोभा देखते हुए दण्डक वन में विहार करना” ।।
२९.
शूर्पणखा के ऐसा कहने पर बात चीत करने में कुशल ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी जोर-जोर से हँसने लगे, फिर उन्हों ने उस मतवाले नेत्रों वाली निशाचरी से इस प्रकार कहना आरम्भ किया ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 17- Aranya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
