15. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 15

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।

पंद्रहवाँ सर्ग – ३१ श्लोक ।।

सारांश ।।

पञ्चवटी के रमणीय प्रदेश में श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण द्वारा सुन्दर पर्णशाला का निर्माण तथा उस में सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम का निवास ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
नाना प्रकार के सर्पों, हिंसक जन्तुओं और मृगों से भरी हुई पञ्चवटी में पहुँच कर श्रीराम ने उद्दीप्त तेजवाले अपने भाई लक्ष्मण से कहा— ।।

२.
“सौम्य! मुनिवर अगस्त्य ने हमें जिस स्थान का परिचय दिया था, उन के तथाकथित स्थान में हमलोग आ पहुँचे हैं। यही पञ्चवटी का प्रदेश है। यहाँ का वनप्रान्त पुष्पों से कैसी शोभा पा रहा है” ।।

३.
“लक्ष्मण! तुम इस वन में चारों ओर दृष्टि डालो; क्यों कि तुम इस कार्य में निपुण हो। देख कर यह निश्चय करो कि किस स्थान पर आश्रम बनाना हमारे लिये अच्छा होगा” ।।

४ से ५.
“लक्ष्मण! तुम किसी ऐसे स्थान को ढूँढ़ निकालो, जहाँ से जलाशय निकट हो, जहाँ विदेहकुमारी सीता का मन लगे, जहाँ तुम और हम भी प्रसन्नता पूर्वक रह सकें, जहाँ वन और जल दोनों का रमणीय दृश्य हो तथा जिस स्थान के आस - पास ही समिधा, फूल, कुश और जल मिलने की सुविधा हो” ।।

६.
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर लक्ष्मण दोनों हाथ जोड़ कर सीता के सामने ही उन ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम से इस प्रकार बोले - ।।

७.
“काकुत्स्थ! आप के रहते हुए मैं सदा पराधीन ही हूँ। मैं सैकड़ों या अनन्त वर्षों तक आप की आज्ञा के अधीन ही रहना चाहता हूँ; अतः आप स्वयं ही देख कर जो स्थान सुन्दर जान पड़े, वहाँ आश्रम बनाने के लिये मुझे आज्ञा दें – मुझ से कहें कि तुम अमुक स्थान पर आश्रम बनाओ” ।।

८ से ९.
लक्ष्मण के इस वचन से अत्यन्त तेजस्वी भगवान् श्रीराम को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्हों ने स्वयम् ही सोच – विचार कर एक ऐसा स्थान पसंद किया, जो सब प्रकार के उत्तम गुणों से सम्पन्न और आश्रम बनाने के योग्य था। उस सुन्दर स्थान पर आ कर श्रीराम ने लक्ष्मण का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा— ।।

१०.
“सुमित्रानन्दन! यह स्थान समतल और सुन्दर है तथा फूले हुए वृक्षों से घिरा है। तुम्हें इसी स्थान पर यथोचित रूप से एक रमणीय आश्रम का निर्माण करना चाहिये” ॥

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“यह पास ही सूर्य के समान उज्ज्वल कान्ति वाले मनोरम गन्धयुक्त कमलों से रमणीय प्रतीत होनेवाली तथा पद्मों की शोभा से सम्पन्न पुष्करिणी दिखायी देती है” ।।

१२.
“पवित्र अन्तः करण वाले अगस्त्य मुनि ने जिस के विषय में कहा था, वह विकसित वृक्षावलियों से घिरी हुई रमणीय गोदावरी नदी यही है” ।।

१३.
“इस में हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी विचर रहे हैं। चकवे इस की शोभा बढ़ा रहे हैं तथा पानी पीने के लिये आये हुए मृगों के झुंड इस के तट पर छाये रहते हैं। यह नदी इस स्थान से न तो अधिक दूर है और न अत्यन्त निकट ही” ।।

१४.
“सौम्य! यहाँ बहुत - सी कन्दराओं से युक्त ऊँचे - ऊँचे पर्वत दिखायी दे रहे हैं , जहाँ मयूरों की मीठी बोली गूँज रही है। ये रमणीय पर्वत खिले हुए वृक्षों से व्याप्त हैं” ।।

१५.
“स्थान – स्थान पर सोने, चाँदी तथा ताँबे के समान रंग वाले सुन्दर गैरिक धातुओं से उपलक्षित ये पर्वत ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो झरोखे के आकार में की गयी नीले, पीले और सफेद आदि रंगों की उत्तम श्रृङ्गार रचनाओं से अलंकृत हाथी शोभा पा रहे हों” ।।

१६ से १८.
“पुष्पों, गुल्मों तथा लता – वल्लरियों से युक्त साल, ताल, तमाल, खजूर, कटहल, जलकदम्ब, तिनिश, पुंनाग, आम, अशोक, तिलक, केवड़ा, चम्पा, स्यन्दन, चन्दन, कदम्ब, पर्णास, लकुच, धव, अश्वकर्ण, खैर, शमी, पलाश और पाटल (पाडर) आदि वृक्षों से घिरे हुए ये पर्वत बड़ी शोभा पा रहे हैं” ।

१९.
“सुमित्रानन्दन! यह बहुत ही पवित्र और बड़ा रमणीय स्थान है। यहाँ बहुत - से पशु - पक्षी निवास करते हैं। हमलोग भी यहीं इन पक्षिराज जटायु के साथ रहेंगे” ॥

२०.
श्रीराम के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करनेवाले महाबली लक्ष्मण ने भाइ के लिये शीघ्र ही आश्रम बना कर तैयार किया ।।

श्लोक २१ से ३१ ।।

२१ से २३
वह आश्रम एक अत्यन्त विस्तृत पर्णशाला के रूप में बनाया गया था। महाबली लक्ष्मण ने पहले वहाँ मिट्टी एकत्र कर के दीवार खड़ी की, फिर उस में सुन्दर एवम् सुदृढ़ खम्भे लगाये। खम्भों के ऊपर बड़े - बड़े बाँस तिरछे कर के रखे। बाँसों के रख दिये जाने पर वह कुटी बड़ी सुन्दर दिखायी देने लगी। फिर उन बाँसों पर उन्हों ने शमीवृक्ष की शाखाएँ फैला दीं और उन्हें मजबूत रस्सियों से कस कर बाँध दिया। इस के बाद ऊपर से कुश, कास, सरकंडे और पत्ते बिछाकर उस पर्णशाला को भलीभाँति छा दिया तथा नीचे की भूमि को बराबर कर के उस कुटी को बड़ा रमणीय बना दिया। इस प्रकार लक्ष्मण ने श्रीरामचन्द्रजी के लिये परम उत्तम निवास गृह बना दिया, जो देखने ही योग्य था ।।

२४.
उसे तैयार कर के श्रीमान् लक्ष्मण ने गोदावरी नदी के तट पर जा कर तत्काल उस में स्नान किया और कमल के फूल तथा फल लेकर वे फिर वहीं लौट आये ।।

२५.
तदनन्तर शास्त्रीय विधि के अनुसार देवताओं के लिये फूलों की बलि ( उपहारसामग्री ) अर्पित की तथा वास्तु शान्ति कर के उन्हों ने अपना बनाया हुआ आश्रम श्रीरामचन्द्रजी को दिखाया ।।

२६.
भगवान् श्रीराम सीता के साथ उस नये बने हुए सुन्दर आश्रम को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और कुछ काल तक उस के भीतर खड़े रहे ।।

२७.
तत्पश्चात् अत्यन्त हर्ष में भर कर उन्हों ने दोनों भुजाओं से लक्ष्मण को कस कर हृदय से लगा लिया और बड़े स्नेह के साथ यह बात कही— ।।

२८.
“सामर्थ्यशाली लक्ष्मण! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुमने यह महान् कार्य किया है। उस के लिये और कोई समुचित पुरस्कार न होने से मैंने तुम्हें गाढ़ आलिङ्गन प्रदान किया है” ।।

२९.
“लक्ष्मण! तुम मेरे मनोभाव को तत्काल समझ लेनेवाले, कृतज्ञ और धर्मज्ञ हो। तुम जैसे पुत्र के कारण मेरे धर्मात्मा पिता अभी मरे नहीं हैं - तुम्हारे रूप में वे अब भी जीवित ही हैं” ।।

३०.
लक्ष्मण से ऐसा कह कर अपनी शोभा का विस्तार करनेवाले सुखी श्रीरामचन्द्रजी प्रचुर फलों से सम्पन्न उस पञ्चवटी – प्रदेश में सब के साथ सुखपूर्वक रहने लगे ।।

३१.
सीता और लक्ष्मण से सेवित हो धर्मात्मा श्रीराम कुछ काल तक वहाँ उसी प्रकार रहे, जैसे स्वर्ग लोक में देवता निवास करते हैं ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 15 - Aranya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.