16. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 16
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।
सोलहवाँ सर्ग – ४३ श्लोक ।।
सारांश ।।
लक्ष्मण के द्वारा हेमन्त ऋतु का वर्णन और भरत की प्रशंसा तथा श्रीराम का उन दोनों के साथ गोदावरी नदी में स्नान करना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
महात्मा श्रीराम को उस आश्रम में रहते हुए शरद् ऋतु बीत गयी और प्रिय हेमन्त का आरम्भ हुआ ।।
२.
एक दिन प्रातः काल रघुकुलनन्दन श्रीराम स्नान करने के लिये परम रमणीय गोदावरी नदी के तट पर गये ।।
३.
उन के छोटे भाइ लक्ष्मण भी , जो बड़े ही विनीत और पराक्रमी थे , सीता के साथ - साथ हाथ में घड़ा लिये उन के पीछे - पीछे गये। जाते - जाते वे श्रीरामचन्द्रजी से इस प्रकार बोले- ।।
४.
“प्रिय वचन बोलनेवाले भैया श्रीराम! यह वही हेमन्त काल आ पहुँचा है, जो आप को अधिक प्रिय है और जिस से यह शुभ संवत्सर अलंकृत - सा प्रतीत होता है” ।।
५.
“इस ऋतु में अधिक ठण्डक या पाले के कारण लोगों का शरीर रूखा हो जाता है। पृथ्वी पर बीकी खेती लहलहाने लगती है। जल अधिक शीतल होने के कारण पीने के योग्य नहीं रहता और आग बड़ी प्रिय लगती है” ।।
६.
“‘नवसस्येष्टि’ कर्म के अनुष्ठान की इस वेला में नूतन अन्न ग्रहण करने के लिये की गयी आग्रयणकर्मरूप पूजाओं द्वारा देवताओं तथा पितरों को संतुष्ट कर के उक्त आग्रयणकर्मका सम्पादन करने वाले सत्पुरुष निष्पाप हो गये हैं” ।।
७.
“इस ऋतु में प्रायः सभी जनपदों के निवासियों की अन्नप्राप्ति विषयक कामनाएँ प्रचुर रूप से पूर्ण हो जाती हैं। गोरसकी भी बहुतायत होती है तथा विजय की इच्छा रखनेवाले भूपालगण युद्ध यात्रा के लिये विचरते रहते हैं” ।।
८.
“सूर्यदेव इन दिनों यम से सेवित दक्षिण दिशा का दृढ़ता पूर्वक सेवन करने लगे हैं। इसलिये उत्तर दिशा सिंदूर विन्दु से वञ्चित हुई नारी की भाँति सुशोभित या प्रकाशित नहीं हो रही है” ।।
९.
“हिमालय पर्वत तो स्वभाव से ही घनीभूत हिम के खजाने से भरा - पूरा होता है, परंतु इस समय सूर्यदेव भी दक्षिणायन में चले जाने के कारण उस से दूर हो गये हैं; अतः अब अधिक हिम के संचय से सम्पन्न हो कर हिमवान् गिरि स्पष्ट ही अपने नाम को सार्थक कर रहा है” ।।
१०.
“मध्याह्न काल में धूप का स्पर्श होने से हेमन्त के सुख मय दिन अत्यन्त सुख से इधर - उधर विचरने के योग्य होते हैं। इन दिनों सुसेव्य होने के कारण सूर्यदेव सौभाग्यशाली जान पड़ते हैं और सेवन के योग्य न होने के कारण छाँह तथा जल अभागे प्रतीत होते हैं” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“आज कल के दिन ऐसे हैं कि सूर्य की किरणों का स्पर्श कोमल (प्रिय) जान पड़ता है। कुहासे अधिक पड़ते हैं। सरदी सबल होती है, कड़ाके का जाड़ा पड़ने लगता है। साथ ही ठण्डी हवा चलती रहती है। पाला पड़ने से पत्तों के झड़ जाने के कारण जंगल सूने दिखायी देते हैं और हिम के स्पर्श से कमल गल जाते हैं” ।।
१२.
“इस हेमन्त काल में रातें बड़ी होने लगती हैं। इनमें सरदी बहुत बढ़ जाती है। खुले आकाश में कोई नहीं सोते हैं। पौष मास की ये रातें हिम पात के कारण धूसर प्रतीत होती हैं” ।।
१३.
“हेमन्त काल में चन्द्रमा का सौभाग्य सूर्यदेव में चला गया है (चन्द्रमा सरदी के कारण असेव्य और सूर्य मन्दरश्मि होने के कारण सेव्य हो गये हैं) । चन्द्रमण्डल हिमकणों से आच्छन्न हो कर धूमिल जान पड़ता है; अतः चन्द्रदेव निःश्वास वायु से मलिन हुए दर्पण की भाँति प्रकाशित नहीं हो रहे हैं” ।।
१४.
“इन दिनों पूर्णिमा की चांदनी रात भी तुहिन बिन्दुअों से मलिन दिखायी देती है- प्रकाशित नहीं होती है। ठीक उसी तरह, जैसे सीता अधिक धूप लगने से साँवली - सी दिखती है - पूर्ववत् शोभा नहीं पाती” ।।
१५.
“स्वभाव से ही जिस का स्पर्श शीतल है, वह पछुआ हवा इस समय हिम कणों से व्याप्त हो जाने के कारण दुगनी सरदी ले कर बड़े वेग से बह रही है” ।।
१६.
“जौ और गेहूँ के खेतों से युक्त ये बहुसंख्यक वन भाप से ढँके हुए हैं तथा क्रौञ्च और सारस इन में कलरव कर रहे हैं। सूर्योदय काल में इन वनों की बड़ी शोभा हो रही है” ।।
१७.
“ये सुनहरे रंग के जड़हन धान खजूर के फूल के - से आकारवाली बालों से, जिन में चावल भरे हुए हैं, कुछ लटक गये हैं। इन बालों के कारण इन की बड़ी शोभा होती है” ।।
१८.
“कुहासे से ढकी और फैलती हुई किरणों से उपलक्षित होने वाले दूरोदित सूर्य चन्द्रमा के समान दिखायी देते हैं” ।।
१९.
“इस समय अधिक लाल और कुछ-कुछ श्वेत, पीत वर्ण की धूप पृथ्वी पर फैल कर शोभा पा रही है। पूर्वाह्न काल में तो कुछ इस का बल जान ही नहीं पड़ता है, परंतु मध्याह्न काल में इस के स्पर्श से सुख का अनुभव होता है” ।।
२०.
“ओस की बूँदें पड़ने से जहाँ की घासें कुछ-कुछ भीगी हुई जान पड़ती हैं, वह वन भूमि नवोदित सूर्य की धूप का प्रवेश होने से अद्भुत शोभा पा रही है” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“यह जंगली हाथी बहुत प्यासा है। यह सुख पूर्वक प्यास बुझाने के लिये अत्यन्त शीतल जल का स्पर्श तो करता है, किंतु उस की ठंडक असह्य होने के कारण अपनी सूँड़ को तुरंत ही सिकोड़ लेता है” ।।
२२.
“ये जलचर पक्षी जल के पास ही बैठे हैं; परंतु जैसे डरपोक मनुष्य युद्ध भूमि में प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार ये पानी में नहीं उतर रहे हैं” ।।
२३.
“रात में ओस विन्दुओं और अन्धकार से आच्छादित तथा प्रातःकाल कुहासे के अँधेरे से ढकी हुइ ये पुष्पहीन वनश्रेणियाँ सोयी हुइ-सी दिखायी देती हैं” ।।
२४.
“इस समय नदियों के जल भाप से ढके हुए हैं। इन में विचरने वाले सारस केवल अपने कलरवों से पहचाने जाते हैं तथा ये सरिताएँ भी ओस से भीगी हुई बालू वाले अपने तटों से ही प्रकाशमें आती हैं (जल से नहीं)” ।।
२५.
“बर्फ पड़ने से और सूर्य की किरणों के मन्द होने से अधिक सर्दी के कारण इन दिनों पर्वत के शिखर पर पड़ा हुआ जल भी प्रायः स्वादिष्ट प्रतीत होता है” ।।
२६.
“जो पुराने पड़ जाने के कारण जर्जर हो गये हैं, जिन की कर्णिका और केसर जीर्ण-शीर्ण हो गये हैं, ऐसे दलों से उपलक्षित होने वाले कमलों के समूह पाला पड़ने से गल गये हैं। उन में डंठल मात्र शेष रह गये हैं। इसी लिये उन की शोभा नष्ट हो गयी है” ।।
२७.
“पुरुषसिंह श्रीराम! इस समय धर्मात्मा भरत आप के लिये बहुत दुखी हैं और आप में भक्ति रखते हुए नगर में ही तपस्या कर रहे हैं” ।।
२८.
“वे राज्य, मान तथा नाना प्रकार के बहुसंख्यक भोगों का परित्याग कर के तपस्या में संलग्न हैं एवम् नियमित आहार करते हुए इस शीतल महीतल पर बिना विस्तर के ही शयन करते हैं” ।।
२९.
“निश्चय ही भरत भी इसी बेला में स्नान के लिये उद्यत हो मन्त्री एवम् प्रजा जनों के साथ प्रतिदिन सरयू नदी के तट पर जाते होंगे” ।।
३०.
“अत्यन्त सुख में पले हुए सुकुमार भरत जाड़े का कष्ट सहते हुए रात के पिछले पहर में कैसे सरयूजी के जल में डुबकी लगाते होंगे” ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१ से ३२.
“जिन के नेत्र कमल दल के समान शोभा पाते हैं, जिन की अङ्गकान्ति श्याम है और जिन के उदर का कुछ पता ही नहीं लगता है, ऐसे महान् धर्मज्ञ, सत्यवादी, लज्जाशील, जितेन्द्रिय, प्रिय वचन बोलनेवाले, मृदुल स्वभाववाले महाबाहु शत्रुदमन श्रीमान् भरत ने नाना प्रकार के सुखों को त्याग कर सर्वथा आप का ही आश्रय ग्रहण किया है” ।।
३३.
“आप के भाई महात्मा भरत ने निश्चय ही स्वर्ग – लोक पर विजय प्राप्त कर ली है; क्यों कि वे भी तपस्या में स्थित हो कर आप के वनवासी जीवन का अनुसरण कर रहे हैं” ।।
३४.
“मनुष्य प्रायः माता के गुणों का ही अनुवर्तन करते हैं, पिता के नहीं; इस लौकिक उक्ति को भरत ने अपने बर्ताव से मिथ्या प्रमाणित कर दिया है” ।।
३५.
“महाराज दशरथ जिस के पति हैं और भरत जैसा साधु जिस का पुत्र है, वह माता कैकेयी वैसी क्रूरता पूर्ण दृष्टि वाली कैसे हो गयी?” ।।
३६.
धर्मपरायण लक्ष्मण जब स्नेहवश इस प्रकार कह रहे थे , उस समय श्रीरामचन्द्रजी से माता कैकेयी की निन्दा नहीं सही गयी। उन्हों ने लक्ष्मण से कहा- ।।
३७.
“तात! तुम्हें मझली माता कैकेयी की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये। ( यदि कुछ कहना हो तो ) पहले की भाँति इक्ष्वाकुवंश के स्वामी भरत की ही चर्चा करो” ।।
३८.
“यद्यपि मेरी बुद्धि दृढ़ता पूर्वक व्रत का पालन करते हुए वन में रहने का अटल निश्चय कर चुकी है, तथापि भरत के स्नेह से संतप्त हो कर पुनः चञ्चल हो उठती है” ।।
३९.
“मुझे भरत की वे परम प्रिय, मधुर, मन को भाने वाली और अमृत के समान हृदय को आह्लाद प्रदान करने वाली बातें याद आ रही हैं” ।।
४०.
“रघुकुलनन्दन लक्ष्मण! कब वह दिन आयेगा , जब मैं तुम्हारे साथ चल कर महात्मा भरत और वीरवर शत्रुघ्न से मिलूँगा” ।।
श्लोक ४१ से ४३ ।।
४१.
इस प्रकार विलाप करते हुए ककुत्स्थकुलभूषण भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता के साथ गोदावरी नदी के तट पर जा कर स्नान किया ।।
४२.
वहाँ स्नान कर के उन्हों ने गोदावरी के जल से देवताओं और पितरों का तर्पण किया। तदनन्तर जब सूर्योदय हुआ , तब वे तीनों निष्पाप व्यक्ति भगवान् सूर्य का उपस्थान कर के अन्य देवताओं की भी स्तुति करने लगे ।।
४३.
सीता और लक्ष्मण के साथ स्नान कर के भगवान् श्रीराम उसी प्रकार शोभा पाने लगे , जैसे पर्वतराजपुत्री उमा और नन्दी के साथ गङ्गाजी में अवगाहन कर के भगवान् रुद्र सुशोभित होते हैं ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 16 - Aranya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
