20. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 20

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

बीसवाँ सर्ग - २८ श्लोक ।।

सारांश ।।

राजा दशरथ का विश्वामित्रजी को अपना पुत्र देने से इनकार करना और विश्वामित्र का कुपित होना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
विश्वामित्रजी का वचन सुन कर नृपश्रेष्ठ दशरथ दो घड़ी के लिये संज्ञाशून्य से हो गये। फिर सचेत होकर इस प्रकार बोले- ।।

२.
“महर्षे! मेरा कमलनयन राम अभी पूरे सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ है। मैं इसमें राक्षसों के साथ युद्ध करने की योग्यता नहीं देखता हूँ। ” ।।

३.
“यह मेरी अक्षौहिणी सेना है, जिस का मैं पालक और स्वामी भी हूँ। इस सेना के साथ मैं स्वयम् ही चलकर उन निशाचरों के साथ युद्ध करूँगा ।” ।।

४.
“ये मेरे शूरवीर सैनिक, जो अस्त्रविद्या में कुशल और पराक्रमी हैं, राक्षसों के साथ जूझने की योग्यता रखते हैं; अतः इन्हें ही ले जाइये राम को ले जाना उचित नहीं होगा ।” ।।

५.
“मैं स्वयम् ही हाथ में धनुष ले युद्ध के मुहाने पर रहकर आपके यज्ञ की रक्षा करूँगा और जब तक इस शरीर में प्राण रहेंगे तब तक निशाचरों के साथ लड़ता रहूँगा ।” ।।

६.
“मेरे द्वारा सुरक्षित होकर आपका नियमानुष्ठान बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण होगा; अतः मैं ही वहाँ आप के साथ चलूँगा। आप राम को न लेजाइये ।” ।।

७.
“मेरा राम अभी बालक है। इसने अभी तक युद्ध की विद्या ही नहीं सीखी है। यह दूसरे के बलाबल को नहीं जानता है। ना तो यह अस्त्र- बल से सम्पन्न है और न युद्ध की कलामें निपुण ही।” ।।

८ से ९.
“अतः यह राक्षसों से युद्ध करने योग्य नहीं है; क्योंकि राक्षस माया से – छल-कपट से युद्ध करते हैं। इस के सिवा राम से वियोग हो जानेपर मैं दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता; मुनिश्रेष्ठ! इस लिये आप मेरे राम को न लेजाइये। अथवा ब्रह्मन् ! यदि आप की इच्छा राम को ही लेजाने की हो तो चतुरङ्गिणी सेना के साथ मैं भी चलता हूँ। मेरे साथ इसे ले चलिये।” ।।

१०.
“कुशिकनन्दन! मेरी अवस्था साठ हजार वर्ष की हो गयी है। इस बुढ़ापे में बड़ी कठिनाइ से मुझे पुत्र की प्राप्ति हुई है, अतः आप राम को न लेजाइये।” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“धर्मप्रधान राम मेरे चारों पुत्रों में ज्येष्ठ है; इस लिये उसपर मेरा प्रेम सबसे अधिक है; अतः आप राम को न लेजाइये।” ।।

१२ से १३.
“वे राक्षस कैसे पराक्रमी हैं, किस के पुत्र हैं और कौन हैं? उनका डीलडौल कैसा है? मुनीश्वर! उनकी रक्षा कौन करते हैं? राम उन राक्षसों का सामना कैसे कर सकता है?” ।।

१४.
“ब्रह्मन्! मेरे सैनिकों को या स्वयम् मुझे ही उन मायायोधी राक्षसों का प्रतीकार कैसे करना चाहिये? भगवन्! ये सारी बातें आप मुझे बताइये। उन दुष्टों के साथ युद्ध में मुझे कैसे खड़ा होना चाहिये ? क्योंकि राक्षस बड़े बलाभिमानी होते हैं।” ।।

१५ से १७.
राजा दशरथ की इस बात को सुनकर विश्वामित्रजी बोले, “महाराज ! रावण नाम से प्रसिद्ध एक राक्षस है, जो महर्षि पुलस्त्य के कुल में उत्पन्न हुआ है। उसे ब्रह्माजी से मुँह माँगा वरदान प्राप्त हुआ है; जिससे महान् बलशाली और महापराक्रमी हो कर बहुसंख्यक राक्षसों से घिरा हुआ वह निशाचर तीनों लोकों के निवासियों को अत्यन्त कष्ट दे रहा है। सुना जाता है कि राक्षसराज रावण विश्रवा मुनि का औरस पुत्र तथा साक्षात् कुबेर का भाई है।” ।

१८ से १९.
“वह महाबली निशाचर इच्छा रहते हुए भी स्वयम् आकर यज्ञ में विघ्न नहीं डालता (अपने लिये इसे तुच्छ कार्य समझता है); इस लिये उसी की प्रेरणा से दो महान् बलवान् राक्षस मारीच और सुबाहु यज्ञों में विघ्न डाला करते हैं।” ।।

२०.
विश्वामित्र मुनि के ऐसा कहने पर राजा दशरथ उन से इस प्रकार बोले, “मुनिवर ! मैं उस दुरात्मा रावण के सामने युद्ध में नहीं ठहर सकता।” ।।

श्लोक २१ से २८ ।।

२१.
“धर्मज्ञ महर्षे! आप मेरे पुत्र पर तथा मुझ मन्दभागी दशरथ पर भी कृपा कीजिये; क्योंकि आप मेरे देवता तथा गुरु हैं।” ।।

२२.
“युद्ध में रावण का वेग तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, गरुड़ और नाग भी नहीं सह सकते; फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ।” ।।

२३.
“मुनिश्रेष्ठ! रावण समरांगण में बलवानों के बल का अपहरण कर लेता है, अतः मैं अपनी सेना और पुत्रों के साथ रहकर भी उससे तथा उस के सैनिकों से युद्ध करने में असमर्थ हूँ।” ।।

२४.
“ब्रह्मन्! यह मेरा देवोपम पुत्र युद्ध की कला से सर्वथा अनभिज्ञ है। इसकी अवस्था भी अभी बहुत थोड़ी है; इसलिये मैं इसे किसी तरह नहीं दूँगा।” ।।

२५ से २६.
“मारीच और सुबाहु सुप्रसिद्ध दैत्य सुन्द और उपसुन्द के पुत्र हैं। वे दोनों युद्ध में यमराज के समान हैं। यदि वे ही आप के यज्ञ में विघ्न डालने वाले हैं तो मैं उनका सामना करने के लिये अपने पुत्र को नहीं दूँगा; क्योंकि वे दोनों प्रबल पराक्रमी और युद्धविषयक में उत्तम शिक्षा से सम्पन्न हैं।” ।।

२७.
“मैं उन दोनों में से किसी एक के साथ युद्ध करने के लिये अपने सुहृदों के साथ चलूँगा; अन्यथा – यदि आप मुझे न लेजाना चाहें तो मैं भाइ-बन्धुओं सहित आप से अनुनय-विनय करूँगा कि आप राम को छोड़ दें।” ।।

२८.
राजा दशरथ के ऐसे वचन सुनकर विप्रवर कुशिकनन्दन विश्वामित्र के मन में महान् क्रोध का आवेश हो आया, जैसे यज्ञशाला में अग्नि को भलीभाँति आहुति देकर घी की धारा से अभिषिक्त कर दिया जाय और वह प्रज्वलित हो उठे, उसी प्रकार अग्नितुल्य तेजस्वी महर्षि विश्वामित्र भी क्रोध से जल उठे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 20- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal