19. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 19
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
उन्नीसवाँ सर्ग - २२ श्लोक ।।
सारांश ।।
विश्वामित्र के मुख से श्रीराम को साथ लेजाने की मांग सुनकर राजा दशरथ का दुखित एवम् मूर्च्छित होना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथ का यह अद्भुत विस्तार से युक्त वचन सुन कर महा तेजस्वी विश्वामित्र पुलकित हो उठे और इस प्रकार बोले ।।
२.
“राजसिंह! ये बातें आप के ही योग्य हैं। इस पृथ्वी पर दूसरे के मुख से ऐसे उदार वचन निकलने की सम्भावना नहीं है। क्यों न हो, आप महान् कुल में उत्पन्न हुये हैं और वसिष्ठ-जैसे ब्रह्मर्षि आप के उपदेशक हैं।” ।।
३.
“अच्छा, अब जो बात मेरे हृदय में है, उसे सुनिये। नृपश्रेष्ठ! सुनकर उस कार्य को अवश्य पूर्ण करने का निश्चय कीजिये। आपने मेरा कार्य सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाइये।” ।।
४.
“पुरुषप्रवर! मैं सिद्धि के लिये एक नियम का अनुष्ठान कर रहा हूँ। उसमें इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले दो राक्षस विघ्न डाल रहे हैं।” ।।
५.
“मेरे इस नियम का अधिकांश कार्य पूर्ण हो चुका है। अब उस की समाप्ति के समय वे दो राक्षस आ धमके हैं। उनके नाम हैं मारीच और सुबाहु। वे दोनों बलवान् और सुशिक्षित हैं ।” ।।
६.
“उन्होंने मेरी यज्ञवेदी पर रक्त और मांस की वर्षा कर दी है। इस प्रकार उस समाप्तप्राय नियम में विघ्न पड़ जाने के कारण मेरा परिश्रम व्यर्थ हो गया और मैं उत्साह हीन हो कर उस स्थान से चला आया।” ।।
७.
“पृथ्वीनाथ! उनके ऊपर अपने क्रोध का प्रयोग करूँ, उन्हें शाप दे दूँ, ऐसा विचार मेरे मन में नहीं आता है।” ।।
८.
“क्योंकि वह नियम ही ऐसा है, जिस को आरम्भ कर देने पर किसी को शाप नहीं दिया जाता; अतः, नृपश्रेष्ठ! आप अपने काकपच्छधारी, सत्यपराक्रमी, शूरवीर ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को मुझे दे दें ।” ।।
९ से १०
“ये मुझसे सुरक्षित रह कर अपने दिव्य तेज से उन विघ्नकारी राक्षसों का नाश करने में समर्थ हैं। मैं इन्हें अनेक प्रकार का श्रेय प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है ।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“उस श्रेय को पाकर ये तीनों लोकों में विख्यात हों जाएंगे। श्रीराम के सामने आकर वे दोनों राक्षस किसी तरह भी ठहर नहीं सकते ।” ।।
१२.
“इन रघुनन्दन के सिवा दूसरा कोई पुरुष उन राक्षसों को मारने का साहस नहीं कर सकता। नृपश्रेष्ठ! अपने बल का घमण्ड रखने वाले वे दोनों पापी निशाचर कालपाश के अधीन हो गये हैं; अतः, महात्मा श्रीराम के सामने नहीं टिक सकते ।” ।।
१३.
“भूपाल! आप पुत्रविषयक स्नेह को सामने न लाइये। मैं आप से प्रतिज्ञा पूर्वक कहता हूँ कि उन दोनों राक्षसों को इनके हाथ से मरा हुआ ही समझिये ।” ।।
१४.
“सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम क्या हैं - यह मैं जानता हूँ। महातेजस्वी वसिष्ठजी तथा ये अन्य तपस्वी भी जानते हैं ।” ।।
१५.
“राजेन्द्र! यदि आप इस भूमण्डल में धर्म- लाभ और उत्तम यश को स्थिर रखना चाहते हों तो श्रीराम को मुझे दे दीजिये ।” ।।
१६.
“ककुत्स्थनन्दन! यदि वसिष्ठ आदि आप के सभी मन्त्री आप को अनु मति दें तो आप श्रीराम को मेरे साथ विदा कर दीजिये ।” ।।
१७.
“मुझे राम को ले जाना अभीष्ट है। ये भी बड़े होने के कारण अब आसक्तिरहित हो गये हैं; अतः, आप यज्ञ के अवशिष्ट दस दिनों के लिये अपने पुत्र कमलनयन श्रीराम को मुझे दे दीजिये ।” ।।
१८.
“रघुनन्दन! आप ऐसा कीजिये जिस से मेरे यज्ञ का समय व्यतीत न हो जाय। आप का कल्याण हो। आप अपने मन को शोक और चिन्ता में न डालिये ।” ।।
१९.
यह धर्म और अर्थ से युक्त वचन कह कर धर्मात्मा, महातेजस्वी, परमबुद्धिमान् विश्वामित्रजी चुप हो गये ।।
२०.
विश्वामित्र जी का यह शुभ वचन सुनकर महाराज दशरथ को पुत्र वियोग की आशङ्का से महान् दुख हुआ। वे उस से पीड़ित हो सहसा कांप उठे और बेहोश हो गये ।।
श्लोक २१ से २२ ।।
२१ से २२.
थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश हुआ, तब वे भयभीत हो विषाद करने लगे। विश्वामित्र मुनि का वचन राजा के हृदय और मन को विदीर्ण करने वाला था। उसे सुनकर उनके मन में बड़ी व्यथा हुई। वे महा मनस्वी महाराज अपने आसन से विचलित हो मूर्च्छित हो गये ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १९॥
Sarg 19- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal
