64. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 64
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
चौंसठवाँ सर्ग – २० श्लोक ।।
सारांश ।।
विश्वामित्र का रम्भा को शाप देकर पुनः घोर तपस्या के लिये दीक्षा लेना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
(इन्द्र बोले -) “रम्भे! देवताओं का एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है। इसे तुम्हें ही पूरा करना है। तू महर्षि विश्वामित्र को इस प्रकार लुभा, जिससे वे काम और मोह के वशीभूत हो जायँ।” ।।
२.
श्रीराम ! बुद्धिमान् इन्द्र के ऐसा कहने पर वह अप्सरा लज्जित हो हाथ जोड़कर देवेश्वर इन्द्र से बोली- ।।
३.
“सुरपते! ये महामुनि विश्वामित्र बड़े भयंकर हैं। देव! इसमें संदेह नहीं कि ये मुझपर भयानक क्रोध का प्रयोग करेंगे।” ।।
४ से ५.
“अतः देवेश्वर! मुझे उनसे बड़ा डर लगता है, आप मुझपर कृपा करें।” श्रीराम ! डरी हुई रम्भा के इस प्रकार भय पूर्वक कहने पर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र हाथ जोड़कर खड़ी और थर-थर काँपती हुइ रम्भा से इस प्रकार बोले- “रम्भे ! तू भय न कर, तेरा भला हो, तू मेरी आज्ञा मान ले।” ।।
६.
“वैशाख मास में जब कि प्रत्येक वृक्ष नव पल्लवों से परम सुन्दर शोभा धारण कर लेता है, अपनी मधुर काकली से सबके हृदय को खींचने वाले कोकिल और कामदेव के साथ मैं भी तेरे पास रहूँगा।” ।।
७.
“भद्रे! तू अपने परम कान्तिमान् रूप को हावभाव आदि विविध गुणों से सम्पन्न करके उसके द्वारा विश्वामित्र मुनि को तपस्या से विचलित कर दे।” ।।
८.
देवराज का यह वचन सुनकर उस मधुर मुसकान वाली सुन्दरी अप्सरा ने परम उत्तम रूप बनाकर विश्वामित्र को लुभाना आरम्भ किया। ।।
९.
विश्वामित्र मीठी बोली बोलने वाले कोकिल की मधुर काकली सुनी। उन्होंने प्रसन्न चित्त होकर जब उस ओर दृष्टिपात किया, तब सामने रम्भा खड़ी दिखायी दी। ।।
१०.
कोकिल के कलरव, रम्भा के अनुपम गीत और अप्रत्याशित दर्शन से मुनि के मन में संदेह हो गया। ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
देवराज का वह सारा कुचक्र उनकी समझ में आ गया। फिर तो मुनिवर विश्वामित्र ने क्रोध में भरकर रम्भा को शाप देते हुए कहा- ।।
१२.
“दुर्भागे रम्भे! मैं काम और क्रोध पर विजय पाना चाहता हूँ और तू आकर मुझे लुभाती है। अतः इस अपराध के कारण तू दस हजार वर्षों तक पत्थर की प्रतिमा बन कर खड़ी रहेगी।” ।।
१३.
“रम्भे! शाप का समय पूरा होजाने के बाद एक महान् तेजस्वी और तपोबल सम्पन्न ब्राह्मण (ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठ) मेरे क्रोध से कलुषित तेरा उद्धार करेंगे।” ।।
१४.
ऐसा कहकर महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र अपना क्रोध न रोक सकने के कारण मन-ही- मन संतप्त हो उठे। ।।
१५.
मुनि के उस महाशाप से रम्भा तत्काल पत्थर की प्रतिमा बन गयी। महर्षि का वह शापयुक्त वचन सुनकर कन्दर्प और इन्द्र वहाँ से खिसक गये। ।।
१६.
श्रीराम! क्रोध से तपस्या का क्षय हो गया और इन्द्रियाँ अभी तक काबू में न आ सकीं, यह विचार कर उन महातेजस्वी मुनि के चित्त को शान्ति नहीं मिल रही थी। ।।
१७.
तपस्या का अपहरण हो जाने पर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि “ अब से न तो क्रोध करूँगा और न किसी भी अवस्था में मुँह से कुछ बोलूँगा।” ।।
१८.
“अथवा सौ वर्षों तक मैं श्वास भी न लूँगा। इन्द्रियों को जीतकर इस शरीर को सुखा डालूँगा।” ।।
१९.
“जबतक अपनी तपस्या से उपार्जित ब्राह्मणत्व मुझे प्राप्त न होगा, तबतक चाहे अनन्त वर्ष बीत जायँ, मैं बिना खाये-पीये खड़ा रहूँगा और साँस तक न लूँगा।” ।।
२०.
“तपस्या करते समय मेरे शरीर के अवयव कदापि नष्ट नहीं होंगे।” रघुनन्दन! ऐसा निश्चय करके मुनिवर विश्वामित्र ने पुनः एक हजार वर्षों तक तपस्या करने के लिये दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी संसार में कहीं तुलना नहीं है। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 64- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
