65. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 65

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

पैंसठवाँ सर्ग – ४० श्लोक ।।

सारांश ।।

विश्वामित्र की घोर तपस्या, उन्हें ब्राह्मणत्व की प्राप्ति तथा राजा जनक का उनकी प्रशंसा करके उनसे विदा ले राज भवन को लौटना४० ४०४०

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
(शतानन्दजी कहते हैं -) श्रीराम! पूर्वोक्त प्रतिज्ञा के अनन्तर महामुनि विश्वामित्र उत्तर दिशा को त्याग कर पूर्व दिशा में चले गये और वहीं रहकर अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे। ।।

२.
रघुनन्दन! एक सहस्र वर्षों तक परम उत्तम मौनवत धारण करके वे परम दुष्कर तपस्या में लगे रहे। उनके उस तप की कहीं तुलना न थी। ।।

३.
एक हजार वर्ष पूर्ण होने तक वे महामुनि काष्ठ की भाँति निश्चेष्ट बने रहे। बीच-बीच में उनपर बहुत-से विघ्नों का आक्रमण हुआ, परंतु क्रोध उनके भीतर नहीं घुसने पाया। ।।

४ से ५.
श्रीराम! अपने निश्चय पर अटल रहकर उन्होंने अक्षय तप का अनुष्ठान किया। उनका एक सहस्र वर्षों का व्रत पूर्ण होनेपर वे महान् व्रत धारी महर्षि व्रत समाप्त करके अन्न ग्रहण करने को उद्यत हुए। रघुकुलभूषण! इसी समय इन्द्र ने ब्राह्मण के वेष में आकर उनसे तैयार अन्न की याचना की। ।।

६.
तब उन्होंने वह सारा तैयार किया हुआ भोजन उस ब्राह्मण को देने का निश्चय करके दे डाला। उस अन्न में से कुछ भी शेष नहीं बचा। इसलिये वे महातपस्वी भगवान् विश्वामित्र बिना खाये पीये ही रह गये। ।।

७.
फिरभी उन्होंने उस ब्राह्मण से कुछ कहा नहीं। अपने मौन व्रत का यथार्थ रूप से पालन किया। इसके बाद पुनः पहले की ही भाँति श्वासोच्छ्वास से रहित मौन व्रत का अनुष्ठान आरम्भ किया। ।।

८.
पूरे एक हजार वर्षों तक उन मुनिश्रेष्ठ ने साँस तक नहीं ली। इस तरह साँस ना लेने के कारण उनके मस्तक से धुआँ उठने लगा। ।।

९ से १०.
उससे तीनों लोकों के प्राणी घबरा उठे, सभी संतप्त से होने लगे। उस समय देवता, ऋषि, गन्धर्व, नाग, सर्प और राक्षस सब मुनि की तपस्या से मोहित हो गये। उनके तेज से सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी। वे सब-के-सब दुख से व्याकुल हो पितामह ब्रह्माजी से बोले - ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“देव! अनेक प्रकार के निमित्तों द्वारा महामुनि विश्वामित्र को लोभ और क्रोध दिलाने की चेष्टा की गयी; किंतु वे अपनी तपस्या के प्रभाव से निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे हैं।” ।।

१२ से १३.
“हमें उनमें कोई छोटा-सा भी दोष नहीं दिखायी देता। यदि इन्हें इनकी मन चाही वस्तु नहीं दी गयी तो ये अपनी तपस्या से चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों का नाश कर डालेंगे। इस समय सारी दिशाएँ धूम से आच्छादित हो गयी हैं, कहीं कुछ भी सूझता नहीं है।” ।।

१४.
“समुद्र क्षुब्ध हो उठे हैं, सारे पर्वत विदीर्ण हुए जाते हैं, धरती डगमग हो रही है और प्रचण्ड आँधी चलने लगी है।” ।।

१५.
“ब्रह्मन्! हमें इस उपद्रव के निवारण का कोई उपाय नहीं समझमें आता है। सब लोग नास्तिक की भाँति कर्मानुष्ठान से शून्य हो रहे हैं। तीनों लोकों के प्राणियों का मन क्षुब्ध हो गया है। सभी किंकर्तव्यविमूढ़ से हो रहे हैं।” ।।

१६.
“महर्षि विश्वामित्र के तेज से सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी है। भगवन्! ये महाकान्तिमान् मुनि अग्निस्वरूप हो रहे हैं। देव! महामुनि विश्वामित्र जबतक जगत्के विनाश का विचार नहीं करते तब तक ही इन्हें प्रसन्न कर लेना चाहिये।” ।।

१७.
“जैसे पूर्वकाल में प्रलय कालिक अग्नि ने सम्पूर्ण त्रिलोकी को दग्ध कर डाला था, उसी प्रकार ये भी सब को जला कर भस्म कर देंगे। यदि ये देवताओं का राज्य प्राप्त करना चाहें तो वह भी इन्हें दे दिया जाय। इनके मन में जो भी अभिलाषा हो, उसे पूर्ण किया जाय।” ।।

१८.
तदनन्तर ब्रह्मा आदि सब देवता महात्मा विश्वामित्र के पास जाकर मधुर वाणी में बोले – ।।

१९.
“ब्रह्मर्षे! तुम्हारा स्वागत है, हम तुम्हारी तपस्या से बहुत संतुष्ट हुए हैं। कुशिकनन्दन! तुमने अपनी उग्र तपस्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया है।”।।

२०.
“ब्रह्मन्! मरुद्गणों सहित मैं तुम्हें दीर्घायु प्रदान करता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। सौम्य! तुम मंगल के भागी बनो और तुम्हारी जहाँ इच्छा हो वहाँ सुखपूर्वक जाओ।” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
पितामह ब्रह्माजी की यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवताओं को प्रणाम किया और कहा- ।।

२२ से २४.
“देवगण! यदि मुझे (आप की कृपा से) ब्राह्मणत्व मिल गया और दीर्घ आयु की भी प्राप्ति हो गयी तो ॐकार, वषट्कार और चारों वेद स्वयं आकर मेरा वरण करें। इसके सिवा जो क्षत्रिय - वेद (धनुर्वेद आदि) तथा ब्रह्मवेद (ऋक् आदि चारों वेद) के ज्ञाताओं में भी सब से श्रेष्ठ हैं, वे ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ स्वयम् आकर मुझसे ऐसा कहें (कि तुम ब्राह्मण हो गये), यदि ऐसा हो जाय तो मैं समझुं गा कि मेरा उत्तम मनोरथ पूर्ण हो गया। उस अवस्था में आप सभी श्रेष्ठ देवगण यहाँ से जा सकते हैं।” ।।

२५.
तब देवताओं ने मन्त्र जप करने वालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि को प्रसन्न किया। इसके बाद ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने “एवमस्तु” कहकर विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि होना स्वीकार कर लिया और उनके साथ मित्रता स्थापित कर ली। ।।

२६.
“मुने! तुम ब्रह्मर्षि हो गये, इस में संदेह नहीं है। तुम्हारा सब ब्राह्मणोचित संस्कार सम्पन्न हो गया।” ऐसा कहकर सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे वैसे लौट गये। ।।

२७.
इस प्रकार उत्तम ब्राह्मणत्व प्राप्त करके धर्मात्मा विश्वामित्रजी ने भी मन्त्र जप करनेवालों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ का पूजन किया। ।।

२८.
इस तरह अपना मनोरथ सफल करके तपस्या में लगे रहकर ही ये सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरने लगे। श्रीराम ! इस प्रकार कठोर तपस्या करके इन महात्मा ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। ।।

२९.
रघुनन्दन! ये विश्वामित्रजी समस्त मुनियों में श्रेष्ठ हैं, ये तपस्या के मूर्तिमान् स्वरूप हैं, उत्तम धर्म साक्षात् विग्रह हैं और पराक्रम की परमनिधि हैं। ।।

३०.
ऐसा कहकर महातेजस्वी विप्रवर शतानन्दजी चुप हो गये। शतानन्दजी के मुख से यह कथा सुनकर महाराज जनक ने श्रीराम और लक्ष्मण के समीप विश्वामित्रजी से हाथ जोड़ कर कहा- ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१ से ३२.
“मुनिप्रवर कौशिक! आप ककुत्स्थकुल नन्दन श्रीराम और लक्ष्मण के साथ मेरे यज्ञ में पधारे, इस से मैं धन्य हो गया। आपने मुझपर बड़ी कृपा की। महामुने! ब्रह्मन् ! आपने दर्शन देकर मुझे पवित्र कर दिया।”

३३ से ३४.
“आपके दर्शन से मुझे बड़ा लाभ हुआ, अनेक प्रकार के गुण उपलब्ध हुए। ब्रह्मन्! आज इस सभा में आकर मैंने महात्मा राम तथा अन्य सदस्यों के साथ आप के महान् तेज (प्रभाव ) का वर्णन सुना है, बहुत-से गुण सुने हैं। ब्रह्मन् ! शतानन्दजी ने आपके महान् तप का वृत्तान्त विस्तार पूर्वक बताया है।” ।।

३५.
“कुशिकनन्दन! आपकी तपस्या अप्रमेय है, आपका बल अनन्त है तथा आपके गुण भी सदा ही माप और संख्या से परे हैं।” ।।

३६.
“प्रभो! आपकी आश्चर्यमयी कथाओं के श्रवण से मुझे तृप्ति नहीं होती है; किंतु मुनिश्रेष्ठ ! यज्ञ का समय हो गया है, सूर्य देव ढलने लगे हैं।” ।।

३७.
“जप करने वालों में श्रेष्ठ महातेजस्वी मुने! आपका स्वागत है। कल प्रातःकाल फिर मुझे दर्शन दें, इस समय मुझे जाने की आज्ञा प्रदान करें।” ।।

३८.
राजा के ऐसा कहने पर मुनिवर विश्वामित्रजी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रीतियुक्त नरश्रेष्ठ राजा जनक की प्रशंसा करके शीघ्र ही उन्हें विदा कर दिया। ।।

३९.
उस समय मिथिलापति विदेहराज जनक ने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से पूर्वोक्त बात कह कर अपने उपाध्याय और बन्धु बान्धवों के साथ उनकी शीघ्र ही परिक्रमा की। फिर वहाँसे वे चल दिये। ।।

४०.
तत्पश्चात् धर्मात्मा विश्वामित्र भी महात्माओं से पूजित होकर श्रीराम और लक्ष्मण के साथ अपने विश्राम-स्थान पर लौट आये। ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पैंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 65- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.