58. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 58

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

अट्ठावनवाँ सर्ग – २४ श्लोक ।।

सारांश ।।

वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों का त्रिशंकु को डाँट बता कर घर लौटने के लिये आज्ञा देना तथा उन्हें दूसरा पुरोहित बनाने के लिये उद्यत देख शाप-प्रदान और उनके शाप से चाण्डाल हुए त्रिशंकु का विश्वामित्रजी की शरण में जाना। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१ से २.
रघुनन्दन! राजा त्रिशंकु का यह वचन सुनकर वसिष्ठ मुनि के वे सौ पुत्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले- “दुर्बुद्धे! तुम्हारे सत्यवादी गुरु ने जब तुम्हें मना कर दिया है, तब तुमने उनका उल्लङ्घन करके दूसरी शाखा का आश्रय कैसे लिया ?” ।।

३.
“समस्त इक्ष्वाकु वंशी क्षत्रियों के लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परम गति हैं। उन सत्यवादी महात्मा की बात को कोई अन्यथा नहीं कर सकता।” ।।

४.
“जिस यज्ञ कर्म को उन भगवान् वसिष्ठ मुनि ने असम्भव बताया है, उसे हम लोग कैसे कर सकते हैं?” ।।

५.
“नरश्रेष्ठ! तुम अभी नादान हो, अपने नगर को लौट जाओ। पृथ्वीनाथ! भगवान् वसिष्ठ तीनों लोकों का यज्ञ कराने में समर्थ हैं, हम लोग उनका अपमान कैसे कर सकेंगे?” ।।

६ से ७.
गुरु पुत्रों का वह क्रोध युक्त वचन सुनकर राजा त्रिशंकु ने पुनः उनसे इस प्रकार कहा — “तपोधनो! भगवान् वसिष्ठ ने तो मुझे ठुकरा ही दिया था, आप गुरु पुत्रगण भी मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार कर रहे हैं; अतः आपका कल्याण हो, अब मैं दूसरे किसी की शरण में जाऊँगा।” ।।

८ से ९.
त्रिशंकु का यह घोर अभिसंधि पूर्ण वचन सुनकर महर्षि के पुत्रों ने अत्यन्त कुपित हो उन्हें शाप दे दिया- “अरे! जा तू चाण्डाल हो जायगा।” ऐसा कहकर वे महात्मा अपने-अपने आश्रम में प्रविष्ट हो गये। ।।

१०.
तदनन्तर रात व्यतीत होते ही राजा त्रिशंकु चाण्डाल हो गये। उनके शरीर का रंग नीला हो गया। कपड़े भी नीले हो गये। प्रत्येक अंग में रुक्षता आ गयी। सिर के बाल छोटे-छोटे हो गये। सारे शरीर में चिता की राख -सी लिपट गयी। विभिन्न अंगों में यथास्थान लोहे के गहने पड़ गये। ।।

श्लोक ११ से २२ ।।

११ से १२.
श्रीराम ! अपने राजा को चाण्डाल के रूप में देख कर सब मन्त्री और पुरवासी जो उनके साथ आये थे, उन्हें छोड़ कर भाग गये। ककुत्स्थनन्दन ! वे धीरस्वभाव नरेश दिन-रात चिन्ता की आग में जलने लगे और अकेले ही तपोधन विश्वामित्र की शरण में गये। ।।

१३ से १५.
श्रीराम ! विश्वामित्र ने देखा राजा का जीवन निष्फल हो गया है। उन्हें चाण्डाल के रूप में देखकर उन महातेजस्वी परम धर्मात्मा मुनि के हृदय में करुणा भर आयी। वे दया से द्रवित होकर भयंकर दिखायी देने वाले राजा त्रिशंकु से इस प्रकार बोले- “महाबली राजकुमार ! तुम्हारा भला हो, यहाँ किस काम से तुम्हारा आना हुआ है? वीर अयोध्यानरेश ! जान पड़ता है तुम शाप से चाण्डाल भाव को प्राप्त हुए हो।” ।।

१६.
विश्वामित्र की बात सुनकर चाण्डाल भाव को प्राप्त हुए और वाणी के तात्पर्य को समझने वाले राजा त्रिशंकु ने हाथ जोड़कर वाक्यार्थ कोविद विश्वामित्र मुनि से इस प्रकार कहा- ।।

१७.
“महर्षे! मुझे गुरु तथा गुरुपुत्रों ने ठुकरा दिया। मैं जिस मनोऽभीष्ट वस्तु को पाना चाहता था, उसे न पाकर इच्छा के विपरीत अनर्थ का भागी हो गया।” ।।

१८.
“सौम्यदर्शन मुनीश्वर! मैं चाहता था कि इसी शरीर से स्वर्ग को जाऊँ, परंतु यह इच्छा तो पूर्ण न हो सकी। मैंने सैकड़ों यज्ञ किये हैं; किंतु उनका भी कोई फल नहीं मिल रहा है।” ।।

१९.
“सौम्य! मैं क्षत्रिय धर्म की शपथ खाकर आपसे कहता हूँ कि बड़े-से-बड़े सङ्कट में पड़ने पर भी न तो पहले कभी मैंने मिथ्या भाषण किया है और न भविष्य में ही कभी करूँगा।” ।।

२० से २२.
“मैंने नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान किया, प्रजाजनों की धर्म पूर्वक रक्षा की और शील एवम् सदाचार के द्वारा महात्माओं तथा गुरुजनों को संतुष्ट रखने का प्रयास किया। इस समय भी मैं यज्ञ करना चाहता था; अतः मेरा यह प्रयत्न धर्म के लिये ही था। मुनिप्रवर! तो भी मेरे गुरुजन मुझ पर संतुष्ट न हो सके। यह देखकर मैं दैव को ही बड़ा मानता हूँ। पुरुषार्थं तो निरर्थक जान पड़ता है।” ।।

श्लोक २३ से २४ ।।

२३.
“दैव सब पर आक्रमण करता है। दैव ही सबकी परमगति है। मुने! मैं अत्यन्त आर्त होकर आपकी कृपा चाहता हूँ। दैव ने मेरे पुरुषार्थ को दबा दिया है। आपका भला हो। आप मुझपर अवश्य कृपा करें।” ।।

२४.
“अब मैं आपके सिवा दूसरे किसी की शरण में नहीं जाऊँगा। दूसरा कोई मुझे शरण देने वाला है भी तो नहीं। आप ही अपने पुरुषार्थ से मेरे दुर्दैव को पलट सकते हैं।” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 58- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.