57. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 57
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
सत्तावनवाँ सर्ग – २२ श्लोक ।।
सारांश ।।
विश्वामित्र की तपस्या, राजा त्रिशंकु का अपना यज्ञ कराने के लिये पहले वसिष्ठजी से प्रार्थना करना और उनके इन्कार कर देने पर उन्हींके पुत्रों की शरण में जाना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१ से २.
श्रीराम ! तदनन्तर विश्वामित्र अपनी पराजय को याद करके मन-ही-मन संतप्त होने लगे। महात्मा वसिष्ठ के साथ वैर बाँध कर महातपस्वी विश्वामित्र बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुए अपनी रानी के साथ दक्षिण दिशा में जाकर अत्यन्त उत्कृष्ट एवम् भयंकर तपस्या करने लगे। ।।
३.
वहाँ मन और इन्द्रियों को वश में करके वे फल- मूल का आहार करते तथा उत्तम तपस्या में लगे रहते थे। वहीं उनके हविष्पन्द, मधुष्पन्द, दृढनेत्र और महारथ नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सत्य और धर्म में तत्पर रहनेवाले थे। ।।
४ से ५.
एक हजार वर्ष पूरे हो जाने पर लोकपितामह ब्रह्माजी ने तपस्या के धनी विश्वामित्र को दर्शन देकर मधुर वाणी में कहा— “कुशिकनन्दन ! तुमने तपस्या के द्वारा राजर्षियों के लोकों पर विजय पायी है। इस तपस्या के प्रभाव से हम तुम्हें सच्चा राजर्षि समझते हैं।” ।।
६.
यह कहकर सम्पूर्ण लोकों के स्वामी ब्रह्माजी देवताओं के साथ स्वर्ग लोक होते हुए ब्रह्म लोक को चले गये। ।।
७ से ८.
उनकी बात सुनकर विश्वामित्र का मुख लज्जा से कुछ झुक गया। वे बड़े दुख से व्यथित हो दीनता पूर्वक मन-ही-मन यों कहने लगे- “अहो ! मैंने इतना बड़ा तप किया तो भी ऋषियों सहित सम्पूर्ण देवता मुझे राजर्षि ही समझते हैं। मालूम होता है, इस तपस्या का कोई फल नहीं हुआ।” ।।
९.
श्रीराम ! मनमें ऐसा सोचकर अपने मन को वश में रखने वाले महातपस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र पुनः भारी तपस्या में लग गये। ।।
१०.
इसी समय इक्ष्वाकु कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले एक सत्यवादी और जितेन्द्रिय राजा राज्य करते थे। उनका नाम था त्रिशंकु। ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
रघुनन्दन ! उनके मन में यह विचार हुआ कि मैं ऐसा कोई यज्ञ करूँ, जिस से अपने इस शरीर के साथ ही देवताओं की परम गति – स्वर्गलोक को जा पहुँचूँ। ।।
१२.
तब उन्होंने वसिष्ठजी को बुला कर अपना यह विचार उन्हें कह सुनाया। महात्मा वसिष्ठ ने उन्हें बताया कि “ऐसा होना असम्भव है।” ।।
१३.
जब वसिष्ठजी ने उन्हें कोरा उत्तर दे दिया, तब वे राजा उस कर्म की सिद्धि के लिये दक्षिण दिशा में उन्हीं के पुत्रों के पास चले गये। ।।
१४ से १५.
वसिष्ठजी के वे पुत्र जहाँ दीर्घ काल से तपस्या में प्रवृत्त होकर तप करते थे, उस स्थान पर पहुँच कर महातेजस्वी त्रिशंकु ने देखा कि मन को वश में रखने वाले वे सौ परमतेजस्वी वसिष्ठकुमार तपस्या में संलग्न हैं। ।।
१६.
उन सभी महात्मा गुरुपुत्रों के पास जाकर उन्होंने क्रमशः उन्हें प्रणाम किया और लज्जा से अपने मुख को कुछ नीचा किये हाथ जोड़ कर उन सब महात्माओं से कहा- ।।
१७ से १८.
“गुरुपुत्रो! आप शरणागत वत्सल हैं। मैं आप लोगों की शरण में आया हूँ, आपका कल्याण हो। महात्मा वसिष्ठ ने मेरा यज्ञ कराना अस्वीकार कर दिया है। मैं एक महान् यज्ञ करना चाहता हूँ। आप लोग उसके लिये आज्ञा दें।” ।।
१९ से २०.
“मैं समस्त गुरुपुत्रों को नमस्कार करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप लोग तपस्या में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण हैं। मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह याचना करता हूँ कि आप लोग एकाग्रचित्त हो मुझसे मेरी अभीष्ट सिद्धि के लिये ऐसा कोई यज्ञ करावें, जिससे मैं इस शरीर के साथ ही देवलोक में जा सकूँ।” ।।
श्लोक २१ से २२ ।।
२१.
“तपोधनो! महात्मा वसिष्ठ के अस्वीकार कर देनेपर अब मैं अपने लिये समस्त गुरुपुत्रों की शरण में जाने के सिवा दूसरी कोई गति नहीं देखता।” ।।
२२.
“समस्त इक्ष्वाकु वंशियों के लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परम गति हैं। उनके बाद आप सब लोग ही मेरे परम देवता हैं।” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 57- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
