48. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 48

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

अड़तालीसवाँ सर्ग – ३३ श्लोक ।।

सारांश ।।

राजा सुमति से सत्त्कृत होकर एक रात विशाला में रहकर मुनियों सहित श्रीराम का मिथिला पुरी में पहुँचना और वहाँ सूने आश्रम के विषय में पूछने पर विश्वामित्रजी का उनसे अहल्या को शाप प्राप्त होने की कथा सुनाना। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
वहाँ परस्पर समागम के समय एक-दूसरे का कुशल-मंगल पूछकर बातचीत के अन्त में राजा सुमति ने महामुनि विश्वामित्र से कहा- ।।

२.
“ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो। ये दोनों कुमार देवताओं के तुल्य पराक्रमी जान पड़ते हैं। इनकी चाल-ढाल हाथी और सिंह की गति के समान है। ये दोनों वीर सिंह और साँड़ के समान प्रतीत होते हैं।” ।।

३.
“इनके बड़े-बड़े नेत्र विकसित कमलदल के समान शोभा पाते हैं। ये दोनों तलवार, तरकस और धनुष धारण किये हुए हैं। अपने सुन्दर रूप के द्वारा दोनों अश्विनी कुमारों को लज्जित करते हैं तथा युवावस्था के निकट आ पहुँचे हैं।” ।।

४.
“इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो दो देवकुमार दैवेच्छा वश देवलोक से पृथ्वी पर आ गये हों। मुने! ये दोनों किसके पुत्र हैं और कैसे, किस लिये यहाँ पैदल ही आये हैं?” ।।

५.
“जैसे चन्द्रमा और सूर्य आकाश की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार ये दोनों कुमार इस देश को सुशोभित कर रहे हैं। शरीर की ऊँचाइ, मनोभावसूचक संकेत तथा चेष्टा (बोलचाल) में ये दोनों एक-दूसरे के समान हैं।” ।।

६.
“श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले ये दोनों नरश्रेष्ठ वीर इस दुर्गम मार्ग में किस लिये आये हैं? यह मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ” ।।

७.
सुमति का यह वचन सुनकर विश्वामित्रजी ने उन्हें सब वृत्तान्त यथार्थ रूप से निवेदन किया। सिद्धाश्रम में निवास और राक्षसों के वध का प्रसंग भी यथावत् रूप से कह सुनाया। विश्वामित्रजी की बात सुनकर राजा सुमति को बड़ा विस्मय हुआ। ।।

८.
उन्होंने परम आदरणीय अतिथि के रूप में आये हुए उन दोनों महाबली दशरथपुत्रों का विधिपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया। ।।

९.
सुमति से उत्तम आदर-सत्कार पा कर वे दोनों रघुवंशी कुमार वहाँ एक रात रहे और सबेरे उठकर मिथिला की ओर चल दिये। ।।

१०.
मिथिला में पहुँचकर जनकपुरी की सुन्दर शोभा देख सभी महर्षि साधु-साधु कहकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
मिथिला के उपवन में एक पुराना आश्रम था, जो अत्यन्त रमणीय होकर भी सुनसान दिखायी देता था। उसे देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने मुनिवर विश्वामित्रजी से पूछा- ।।

१२.
“भगवन्! यह कैसा स्थान है, जो देखने में तो आश्रम जैसा है; किंतु एक भी मुनि यहाँ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। मैं यह सुनना चाहता हूँ कि पहले यह आश्रम किसका था?” ।।

१३.
श्रीरामचन्द्रजी का यह प्रश्न सुनकर प्रवच्चन कुशल महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र ने इस प्रकार उत्तर दिया- ।।

१४.
“रघुनन्दन! पूर्वकाल में यह जिस महात्मा का आश्रम था और जिन्होंने क्रोध पूर्वक इसे शाप दे दिया था, उनका तथा उनके इस आश्रम का सब वृत्तान्त तुमसे कहता हूँ। तुम यथार्थ रूप से इस को सुनो।” ।।

१५.
“नरश्रेष्ठ! पूर्वकाल में यह स्थान महात्मा गौतम का आश्रम था। उस समय यह आश्रम बड़ा ही दिव्य जान पड़ता था। देवता भी इसकी पूजा एवम् प्रशंसा किया करते थे।” ।।

१६.
“महायशस्वी राजपुत्र! पूर्वकाल में महर्षि गौतम अपनी पत्नी अहल्या के साथ रहकर यहाँ तपस्या करते थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक यहाँ तप किया था।” ।।

१७.
“एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम पर नहीं थे, उपयुक्त अवसर समझ कर शचीपति इन्द्र गौतम मुनि का वेष धारण किये वहाँ आये और अहल्या से इस प्रकार बोले - ।।

१८.
“सदा सावधान रहने वाली सुन्दरी! रति की इच्छा रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतु काल की प्रतीक्षा नहीं करते हैं। सुन्दर कटिप्रदेश वाली सुन्दरी! मैं (इन्द्र) तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ।” ।।

१९.
“रघुनन्दन! महर्षि गौतम का वेष धारण करके आये हुए इन्द्र को पहचान कर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने “अहो! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं” इस कौतूहल वश उनके साथ समागम का निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।” ।।

२०.
“रति के पश्चात् उसने देवराज इन्द्र से संतुष्टचित्त होकर कहा – “सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी। प्रभो ! अब आप शीघ्र यहाँ से चले जाइये। देवेश्वर ! महर्षि गौतम के कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकार से रक्षा कीजिये।” ।।

श्लोक २१ से ३३ ।।

२१.
“तब इन्द्र ने अहल्या से हंसते हुए कहा – “सुन्दरी! मैं भी संतुष्ट हो गया। अब जैसे आया था, उसी तरह चला जाऊँगा।” ।।

२२.
“श्रीराम! इस प्रकार अहल्या से समागम करके इन्द्र जब उस कुटी से बाहर निकले, तब गौतम के आ जाने की आशङ्का से बड़ी उतावली के साथ वेग पूर्वक भागने का प्रयत्न करने लगे।” ।।

२३ से २४.
“इतने ही में उन्होंने देखा, देवताओं और दानवों के लिये भी दुर्धर्ष, तपोबल सम्पन्न महामुनि गौतम हाथ में समिधा लिये आश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। उनका शरीर तीर्थ के जल से भीगा हुआ है और वे प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रहे हैं।” ।।

२५ से २६.
“उनपर दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्र भय से थर्रा उठे। उनके मुखपर विषाद छा गया। दुराचारी इन्द्र को मुनि का वेष धारण किये देख सदाचार सम्पन्न मुनिवर गौतम जी ने रोष में भरकर कहा- ।।

२७.
“दुर्मते! तूने मेरा रुप धारण करके यह न करने योग्य पाप कर्म किया है, इसलिये तू विफल (अण्डकोषों से रहित) हो जायगा।” ।।

२८.
“रोष में भरे हुए महात्मा गौतम के ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्र के दोनों अण्डकोष उसी क्षण पृथ्वी पर गिर पड़े।” ।।

२९ से ३२.
“इन्द्र को इस प्रकार शाप देकर गौतम ने अपनी पत्नी को भी शाप दिया – “दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुइ राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रह कर इस आश्रम में निवास करेगी। जब दुर्धर्ष दशरथ कुमार राम इस घोर वन में पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी। उनका आतिथ्य सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जायँगे और तू प्रसन्नता पूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी।” ।।

३३.
“अपनी दुराचारिणी पत्नी से ऐसा कहकर महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम इस आश्रम को छोड़ कर चले गये और सिद्धों तथा चारणों से सेवित हिमालय के रमणीय शिखर पर रहकर तपस्या करने लगे।” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ॥।

Sarg 48- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.