37. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 37

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

सैंतीसवाँ सर्ग – ३२ श्लोक ।।

सारांश ।।

गंगा कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
जब महादेवजी तपस्या कर रहे थे, उस समय इन्द्र और अग्नि आदि सम्पूर्ण देवता अपने लिये सेनापति की इच्छा लेकर ब्रह्माजी के पास आये। ।।

२.
देवताओं को आराम देने वाले श्रीराम ! इन्द्र और अग्नि सहित समस्त देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा को प्रणाम करके इस प्रकार कहा- ।।

३.
“प्रभो! पूर्वकाल में जिन भगवान् महेश्वर ने हमें (बीजरूप से) सेनापति प्रदान किया था, वे उमा देवी के साथ उत्तम तप का आश्रय लेकर तपस्या कर रहे हैं।” ।।

४.
“विधि-विधान के ज्ञाता पितामह! अब लोकहित के लिये जो कर्तव्य प्राप्त हो, उसको पूर्ण कीजिये क्योंकि आप ही हमारे परम आश्रय हैं।” ।।

५.
देवताओं की यह बात सुनकर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने मधुर वचनों द्वारा उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ।।

६.
“देवताओ! गिरिराजकुमारी पार्वती ने जो शाप दिया है, उसके अनुसार तुम्हें अपनी पत्नियों के गर्भ से अब कोई संतान नहीं होगी। उमादेवी की वाणी अमोघ है; अतः वह सत्य होकर ही रहेगी; इसमें संशय नहीं है।” ।।

७.
“ये हैं उमा की बड़ी बहिन आकाशगंगा, जिनके गर्भ में शङ्करजी के उस तेजको स्थापित करके अग्निदेव एक ऐसे पुत्र को जन्म देंगे, जो देवताओं के शत्रुओं का दमन करने में समर्थ सेनापति होगा।” ।।

८.
“ये गंगा गिरिराज की ज्येष्ठ पुत्री हैं, अतः अपनी छोटी बहिन के उस पुत्र को अपने ही पुत्र के समान मानें गी। उमा को भी यह बहुत प्रिय लगे गा। इसमें संशय नहीं है।” ।।

९.
रघुनन्दन ! ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर सब देवता कृतकृत्य हो गये। उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम करके उनका पूजन किया। ।।

१०.
श्रीराम ! विविध धातुओं से अलंकृत उत्तम कैलास पर्वत पर जा कर उन सम्पूर्ण देवताओं ने अग्निदेव को पुत्र उत्पन्न करने के कार्य में नियुक्त किया। ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
वे बोले – “देव ! हुताशन! यह देवताओं का कार्य है, इसे सिद्ध कीजिये। भगवान् रुद्र के उस महान् तेज को अब आप गंगाजी में स्थापित कर दीजिये।” ।।

१२.
तब देवताओं से “बहुत अच्छा।” कहकर अग्निदेव गंगाजी के निकट आये और बोले— “देवि ! आप इस गर्भ को धारण करें। यह देवताओं का प्रिय कार्य है।” ।।

१३.
अग्निदेव की यह बात सुनकर गंगादेवी ने दिव्यरूप धारण कर लिया। उनकी यह महिमा- यह रूप - वैभव देखकर अग्निदेव ने उस रुद्र-तेज को उनके सब ओर बिखेर दिया। ।।

१४.
रघुनन्दन ! अग्निदेव ने जब गंगादेवी को सब ओर से उस रुद्र- तेज द्वारा अभिषिक्त कर दिया, तब गंगाजी के सारे स्रोत उस से परिपूर्ण हो गये। ।।

१५.
तब गंगाजी ने समस्त देवताओं के अग्रगामी अग्निदेव से इस प्रकार कहा – “देव ! आपके द्वारा स्थापित किये गये इस बढ़े हुए तेज को धारण करने में मैं असमर्थ हूँ। इसकी आँच से जल रही हूँ। और मेरी चेतना व्यथित हो गयी है।” ।।

१६.
तब सम्पूर्ण देवताओं के हविष्य को भोग लगाने वाले अग्निदेव ने गंगादेवी से कहा – “देवि ! हिमालय पर्वत के पार्श्व भाग में इस गर्भ को स्थापित कर दीजिये।” ।।

१७.
निष्पाप रघुनन्दन ! अग्निदेव की यह बात सुनकर महातेजस्विनी गंगा ने उस अत्यन्त प्रकाशमान गर्भ को अपने स्रोतों से निकाल कर यथोचित स्थान में रख दिया ।।

१८ से १९.
गंगा के गर्भ से जो तेज निकला, वह तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिखायी देने लगा (गंगा सुवर्णमय मेरुगिरि से प्रकट हुई हैं; अतः उनका बालक भी वैसे ही रूप-रंग का हुआ)। पृथ्वी पर जहाँ वह तेजस्वी गर्भ स्थापित हुआ, वहाँ की भूमि तथा प्रत्येक वस्तु सुवर्णमयी हो गयी। उसके आस-पास का स्थान अनुपम प्रभा से प्रकाशित होने वाला रजत हो गया। उस तेज की तीक्ष्णता से ही दूरवर्ती भूभाग की वस्तुएँ ताँबे और लोहे के रूप में परिणत हो गयीं। ।।

२०.
उस तेजस्वी गर्भ का जो मल था, वही वहाँ राँगा और सीसा हुआ। इस प्रकार पृथ्वी पर पड़कर वह तेज नाना प्रकार की धातुओं के रूप में वृद्धि को प्राप्त हुआ। ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
पृथ्वी पर उस गर्भ के रखे जाते ही उसके तेज से व्याप्त होकर पूर्वोक्त श्वेत पर्वत और उस से सम्बन्ध रखने वाला सारा वन सुवर्णमय होकर जगमगाने लगा। ।।

२२.
पुरुषसिंह रघुनन्दन ! तभी से अग्नि के समान प्रकाशित होनेवाले सुवर्ण का नाम जातरूप हो गया; क्योंकि उसी समय सुवर्ण का तेजस्वी रूप प्रकट हुआ था। उस गर्भ के सम्पर्क से वहाँ का तृण, वृक्ष, लता और गुल्म - सब कुछ सोने का हो गया। ।।

२३.
तदनन्तर इन्द्र और मरुद्गणों सहित सम्पूर्ण देवताओं ने वहाँ उत्पन्न हुए कुमार को दूध पिलाने के लिये छहों कृत्तिकाओं को नियुक्त किया। ।।

२४.
तब उन कृत्तिकाओं ने “यह हम सबका पुत्र हो।” ऐसी उत्तम शर्त रखकर और इस बात का निश्चित विश्वास लेकर उस नवजात बालक को अपना दूध प्रदान किया। ।।

२५.
उस समय सब देवता बोले- “यह बालक कार्तिकेय कहलाये गा और तुम लोगों का त्रिभुवन विख्यात पुत्र होगा – इसमें संशय नहीं है।” ।।

२६.
देवताओं का यह अनुकूल वचन सुनकर शिव और पार्वती से स्कन्दित ( स्खलित) तथा गंगा द्वारा गर्भस्त्राव होने पर प्रकट हुए अग्नि के समान उत्तम प्रभा से प्रकाशित होने वाले उस बालक को कृत्तिकाओं ने नहलाया। ।।

२७.
ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ! अग्नितुल्य तेजस्वी महाबाहु कार्तिकेय गर्भस्राव काल में स्कन्दित हुए थे; इस लिये देवताओं ने उन्हें स्कन्द कह कर पुकारा। ।।

२८.
तदनन्तर कृत्तिकाओं के स्तनों में परम उत्तम दूध प्रकट हुआ। उस समय स्कन्द ने अपने छः मुख प्रकट करके उन छहों का एक साथ ही स्तनपान किया। ।।

२९.
एक ही दिन दूध पीकर उस सुकुमार शरीर वाले शक्तिशाली कुमार ने अपने पराक्रम से दैत्यों की सारी सेनाओं पर विजय प्राप्त की। ।।

३०.
तत्पश्चात् अग्नि आदि सब देवताओं ने मिलकर उन महातेजस्वी स्कन्द का देव सेनापति के पद पर अभिषेक किया। ।।

श्लोक ३१ से ३२ ।।

३१.
श्रीराम ! यह मैंने तुम्हें गंगाजी के चरित्र को विस्तार पूर्वक बताया है; साथ ही कुमार कार्तिकेय के जन्म का भी प्रसंग सुनाया है, जो श्रोता को धन्य एवम् पुण्यात्मा बनाने वाला है। ।।

३२.
काकुत्स्थ! इस पृथ्वी पर जो मनुष्य कार्तिकेय में भक्तिभाव रखता है, वह इस लोक में दीर्घायु तथा पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न हो मृत्यु के पश्चात् स्कन्द के लोक में जाता है। ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 37- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.