36. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 36
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
छत्तीसवाँ सर्ग – २७ श्लोक ।।
सारांश ।।
देवताओं का शिव-पार्वती को सुरत क्रीडा से निवृत्त करना तथा उमा देवी का देवताओं और पृथ्वी को शाप देना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
विश्वामित्रजी की बात समाप्त होने पर श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरों ने उनकी कही हुई कथा का अभिनन्दन करके मुनिवर विश्वामित्र से इस प्रकार कहा- ।।
२.
“ब्रह्मन्! आपने यह बड़ी उत्तम धर्मयुक्त कथा सुनायी है। अब आप गिरिराज हिमवान की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के दिव्य लोक तथा मनुष्य लोक से सम्बन्ध होने का वृत्तान्त विस्तार के साथ सुनाइये; क्योंकि आप विस्तृत वृत्तान्त के ज्ञाता हैं।” ।।
३.
“लोक को पवित्र करनेवाली गंगा किस कारण से तीन मार्गों में प्रवाहित होती हैं? सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा की ‘त्रिपथगा' नामसे प्रसिद्धि क्यों हुई?” ।।
४.
“धर्मज्ञ महर्षे! तीनों लोकों में वे अपनी तीन धाराओं के द्वारा कौन कौन से कार्य करती हैं?” श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर तपोधन विश्वामित्र ने मुनिमण्डली के बीच गंगाजी से सम्बन्ध रखनेवाली सारी बातें पूर्ण रूप से कह सुनायीं। ।।
५.
“श्रीराम! पूर्वकाल में महातपस्वी भगवान् नीलकण्ठ ने उमा देवी के साथ विवाह करके उन को नववधू के रूप में अपने निकट आयी देख उनके साथ रति-क्रीडा आरम्भ की।” ।।
६.
“परम बुद्धिमान् महान् देवता भगवान् नीलकण्ठ के उमा देवी के साथ क्रीडा- विहार करते सौ दिव्य वर्ष बीत गये।” ।।
७.
“शत्रुओं को संताप देनेवाले श्रीराम! इतने वर्षों तक विहार के बाद भी महादेवजी के उमा देवी के गर्भ से कोई पुत्र नहीं हुआ। यह देख ब्रह्मा आदि सभी देवता उन्हें रोकने का उद्योग करने लगे।” ।।
८.
“उन्होंने सोचा - इतने दीर्घकाल के पश्चात् यदि रुद्र के तेज से उमा देवी के गर्भ से कोई महान् प्राणी प्रकट हो भी जाय तो कौन उसके तेज को सहन करेगा?” यह विचार कर सब देवता भगवान् शिव के पास जा उन्हें प्रणाम करके यों बोले- ।।
९.
“इस लोक के हित में तत्पर रहनेवाले देवदेव महादेव! देवता आप के चरणों में मस्तक झुकाते हैं। इस से प्रसन्न होकर आप इन देवताओं पर कृपा करें।” ।।
१०.
“सुरश्रेष्ठ! ये लोक आपके तेज को नहीं धारण कर सकेंगे; अतः आप क्रीडा से निवृत्त हो वेबोधित तपस्या से युक्त हो कर उमादेवी के साथ तप कीजिये।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“तीनों लोकों के हित की कामना से अपने तेज (वीर्य) को तेजः स्वरूप अपने-आप में ही धारण कीजिये। इन सब लोकों की रक्षा कीजिये। लोकों का विनाश न कर डालिये।” ।।
१२.
देवताओं की यह बात सुन कर सर्वलोकमहेश्वर शिव ने “बहुत अच्छा।” कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया; फिर उनसे इस प्रकार कहा- ।।
१३.
“देवताओ! उमा सहित मैं अर्थात् हम दोनों अपने तेज से ही तेज को धारण कर लेंगे। पृथ्वी आदि सभी लोकों के निवासी शान्ति लाभ करें।” ।।
१४.
“किंतु सुरश्रेष्ठगण! यदि मेरा यह सर्वोत्तम तेज (वीर्य) क्षुब्ध हो कर अपने स्थान से स्खलित हो जाय तो उसे कौन धारण करेगा? – यह मुझे बताओ।” ।।
१५.
उनके ऐसा कहने पर देवताओं ने वृषभध्वज भगवान् शिव से कहा- “भगवन्! आज आपका तेज क्षुब्ध होकर गिरेगा, उसे यह पृथ्वी देवी धारण करेगी।” ।।
१६.
“देवताओं का यह कथन सुनकर महाबली देवेश्वर शिव ने अपना तेज छोड़ा, जिससे पर्वत और वनसहित यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी।” ।।
१७.
“तब देवताओं ने अग्नि देव से कहा- “अग्ने! तुम वायु के सहयोग से भगवान् शिव के इस महान् तेज को अपने भीतर रख लो।” ।।
१८.
“अग्नि से व्याप्त होने पर वह तेज श्वेत पर्वत के रूप में परिणत हो गया। साथ ही वहाँ दिव्य सरकंडों का वन भी प्रकट हुआ, जो अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत होता था।” ।।
१९.
“उसी वन में अग्निजनित महातेजस्वी कार्तिकेय का प्रादुर्भाव हुआ। तदनन्तर ऋषियों सहित देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्न चित्त होकर देवी उमा और भगवान् शिव का बड़े भक्ति भाव से पूजन किया।” ।।
२०.
“श्रीराम! इसके बाद गिरिराजनन्दिनी उमा के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने समस्त देवताओं को रोषपूर्वक शाप दे दिया। वे बोलीं- ।।
श्लोक २१ से २७ ।।
२१ से २२.
“देवताओ! मैंने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से पति के साथ समागम किया था, परंतु तुमलोगों ने मुझे रोक दिया। अतः अब तुम लोग भी अपनी पत्नियों से संतान उत्पन्न करने योग्य नहीं रह जाओगे। आज से तुम्हारी पत्नीयाँ संतानोत्पादन नहीं कर सकेंगी - संतानहीन हो जायँगी।” ।।
२३.
“सब देवताओं से ऐसा कह कर उमा देवी ने पृथिवी को भी शाप दिया- “भूमे! तेरा एक रूप नहीं रह जायगा। तू बहुतों की भार्या होगी।” ।।
२४.
“खोटी बुद्धिवाली पृथ्वी! तू चाहती थी कि मेरे पुत्र न हो। अतः मेरे क्रोध से कलुषित हो कर तू भी पुत्रजनित सुख या प्रसन्नता का अनुभव न कर सकेगी।” ।।
२५.
“उन सब देवताओं को उमा देवी के शाप से पीडित देख देवेश्वर भगवान् शिव ने उस समय पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया।” ।।
२६.
“वहाँसे जाकर हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में उसीके एक शिखर पर उमा देवी के साथ भगवान् महेश्वर तप करने लगे।” ।।
२७.
“लक्ष्मण सहित श्रीराम! यह मैंने तुम्हें गिरिराज हिमवान्की छोटी पुत्री उमा देवी का विस्तृत वृत्तान्त बताया है। अब मुझसे गंगा के प्रादुर्भाव की कथा सुनो।” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 36- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
