33. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 33

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

तैंतीसवाँ सर्ग – २६ श्लोक ।।

सारांश ।।

राजा कुशनाभ द्वारा कन्याओं के धैर्य एवम् क्षमाशीलता की प्रशंसा, ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभ की कन्याओं का विवाह। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
बुद्धिमान् महाराज कुशनाभ का वह वचन सुनकर उन सौ कन्याओं ने पिता के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा – ।।

२.
“राजन्! सर्वत्र संचार करनेवाले वायुदेव अशुभ मार्ग का अवलम्बन करके हम पर बलात्कार करना चाहते थे। धर्म पर उन की दृष्टि नहीं थी।” ।।

३.
“हमने उनसे कहा – “देव! आपका कल्याण हो, हमारे पिता विद्यमान हैं; हम स्वच्छन्द नहीं हैं। आप पिताजी के पास जाकर हमारा वरण कीजिये। यदि वे हमें आपको सौंप देंगे तो हम आपकी हो जायँगी।” ।।

४.
“परंतु उनका मन तो पाप से बँधा हुआ था। उन्होंने हमारी बात नहीं मानी। हम सब बहनें ये ही धर्मसंगत बातें कह रही थीं, तो भी उन्होंने हमें गहरी चोट पहुँचायी - बिना अपराध के ही हमें पीड़ा दी।” ।।

५.
“उनकी बात सुनकर परम धर्मात्मा महातेजस्वी राजा ने उन अपनी परम उत्तम सौ कन्याओं को इस प्रकार उत्तर दिया- ।।

६.
“पुत्रियो! क्षमाशील महापुरुष ही जिसे कर सकते हैं, वही क्षमा तुमने भी की है। यह तुमलोगों के द्वारा महान् कार्य सम्पन्न हुआ है। तुम सब ने एकमत होकर जो मेरे कुल की मर्यादा पर ही दृष्टि रखी है—कामभाव को अपने मन में स्थान नहीं दिया है - यह भी तुम लोगों ने बहुत बड़ा काम किया है।” ।।

७.
“स्त्री हो या पुरुष, उसके लिये क्षमा ही आभूषण है। पुत्रियो! तुम सब लोगों में समानरूप से जैसी क्षमा या सहिष्णुता है, वह विशेषतः देवताओं के लिये भी दुष्कर ही है।” ।।

८.
“पुत्रियो! क्षमा दान है, क्षमा सत्य है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है और क्षमा धर्म है, क्षमा पर ही यह सम्पूर्ण जगत् टिका हुआ है।” ।।

९ से १०.
ककुत्स्थकुलनन्दन श्रीराम ! देवतुल्य पराक्रमी राजा कुशनाभ ने कन्याओं से ऐसा कहकर उन्हें अन्तःपुर में जाने की आज्ञा दे दी और मन्त्रणा के तत्त्व को जाननेवाले उन नरेश ने स्वयम् मन्त्रियों के साथ बैठ कर कन्याओं के विवाह के विषय में विचार आरम्भ किया। विचारणीय विषय यह था कि “किस देश में, किस समय और किस सुयोग्य वर के साथ उनका विवाह किया जाय?” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
उन्हीं दिनों चूली नाम से प्रसिद्ध एक महातेजस्वी, सदाचारी एवम् ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) मुनि वेदोक्त तप का अनुष्ठान कर रहे थे (अथवा ब्रह्मचिन्तनरूप तपस्या में संलग्न थे) ।।

१२.
श्रीराम ! तुम्हारा भला हो, उस समय एक गन्धर्व कुमारी वहाँ रहकर उन तपस्वी मुनि की उपासना (अनुग्रह की इच्छा से सेवा) करती थी। उसका नाम था सोमदा। वह ऊर्मिला की पुत्री थी। ।।

१३.
वह प्रतिदिन मुनि को प्रणाम करके उनकी सेवा में लगी रहती थी तथा धर्म में स्थित रहकर समय- समय पर सेवा के लिये उपस्थित होती थी; इस से उसके ऊपर वे गौरवशाली मुनि बहुत संतुष्ट हुए। ।।

१४.
रघुनन्दन ! शुभ समय आने पर चूली ने उस गन्धर्व कन्या से कहा- “शुभे ! तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य सिद्ध करूँ।” ।।

१५.
मुनि को संतुष्ट जान कर गन्धर्व कन्या बहुत प्रसन्न हुई। वह बोलने की कला जानती थी; उसने वाणी के मर्मज्ञ मुनि से मधुर स्वर में इस प्रकार कहा- ।।

१६.
“महर्षे! आप ब्राह्मी सम्पत्ति (ब्रह्मतेज) से सम्पन्न हो कर ब्रह्मस्वरूप हो गये हैं, अतएव आप महान् तपस्वी हैं। मैं आप से ब्राह्म तप (ब्रह्म-ज्ञान एवम् वेदोक्त तप) से युक्त धर्मात्मा पुत्र प्राप्त करना चाहती हूँ।” ।।

१७.
“मुने! आप का भला हो। मेरे कोई पति नहीं है। मैं न तो किसी की पत्नी हुई हूँ और न आगे होऊँ गी। आप की सेवा में आयी हू, आप अपने ब्राह्म बल (तपः शक्ति) से मुझे पुत्र प्रदान करें।” ।।

१८.
उस गन्धर्व कन्या की सेवा से संतुष्ट हुए ब्रह्मर्षि चूली ने उसे परम उत्तम ब्राह्म तप से सम्पन्न पुत्र प्रदान किया। वह उनके मानसिक संकल्प से प्रकट हुआ मानस पुत्र था। उसका नाम 'ब्रह्मदत्त' हुआ। ।।

१९.
(कुशनाभ के यहाँ जब कन्याओं के विवाह का विचार चल रहा था) उस समय राजा ब्रह्मदत्त उत्तम लक्ष्मी से सम्पन्न हो 'काम्पिल्या' नामक नगरी में उसी तरह निवास करते थे, जैसे स्वर्ग की अमरावतीपुरी में देवराज इन्द्र। ।।

२०.
ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ! तब परम धर्मात्मा राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त के साथ अपनी सौ कन्याओं को ब्याह देने का निश्चय किया। ।।

श्लोक २१ से २६ ।।

२१.
महातेजस्वी भूपाल राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त को बुलाकर अत्यन्त प्रसन्न चित्त से उन्हें अपनी सौ कन्याएँ सौंप दीं। ।।

२२.
रघुनन्दन! उस समय देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी पृथ्वी पति ब्रह्मदत्त ने क्रमशः उन सभी कन्याओं का पाणिग्रहण किया। ।।

२३.
विवाह काल में उन कन्याओं के हाथों का ब्रह्मदत्त के हाथ से स्पर्श होते ही वे सब की सब कन्याएँ कुब्जत्व दोष से रहित, नीरोग तथा उत्तम शोभा से सम्पन्न प्रतीत होने लगीं। ।।

२४.
वातरोग के रूप में आये हुए वायुदेव ने उन कन्याओं को छोड़ दिया - यह देख पृथ्वी पति राजा कुशनाभ बड़े प्रसन्न हुए और बारम्बार हर्ष का अनुभव करने लगे। ।।

२५.
भूपाल राजा ब्रह्मदत्त का विवाह - कार्य सम्पन्न हो जाने पर महाराज कुशनाभ ने उन्हें पत्नियों तथा पुरोहितों सहित आदरपूर्वक विदा किया। ।।

२६.
गन्धर्वी सोमदा ने अपने पुत्र को तथा उसके योग्य विवाह सम्बन्ध को देख कर अपनी उन पुत्रवधुओं का यथोचित रूप से अभिनन्दन किया। उसने एक-एक करके उन सभी राजकन्याओं को हृदय से लगाया और महाराज कुशनाभ की सराहना करके वहाँ से प्रस्थान किया। ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 33- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.