32. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 32
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
बत्तीसवाँ सर्ग – २६ श्लोक ।।
सारांश ।।
ब्रह्मपुत्र कुश के चार पुत्रों का वर्णन, शोणभद्र-तटवर्ती प्रदेश को वसु की भूमि बताना, कुशनाभ की सौ कन्याओं का वायु के कोप से 'कुब्जा' होना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
(विश्वामित्रजी कहते हैं —) श्रीराम! पूर्वकाल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक महा तपस्वी राजा हो गये हैं। वे साक्षात् ब्रह्माजी के पुत्र थे। उनका प्रत्येक व्रत एवम् संकल्प बिना किसी क्लेश या कठिनाइ के ही पूर्ण हो जाता था। वे धर्म के ज्ञाता, सत्पुरुषों का आदर करनेवाले और महान् थे। ।।
२.
उत्तम कुल में उत्पन्न हुई विदर्भ देश की राजकुमारी उनकी पत्नी थी। उसके गर्भ से उन महात्मा नरेश ने चार पुत्र उत्पन्न किये, जो उन्हीं के समान थे। ।।
३ से ४.
उनके नाम इस प्रकार हैं- कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस तथा वसु। ये सब-के-सब तेजस्वी तथा महान् उत्साही थे। राजा कुश ने 'प्रजारक्षण रूप' क्षत्रियध मं के पालन की इच्छा से अपने उन धर्मिष्ठ तथा सत्यवादी पुत्रों से कहा – “पुत्रो ! प्रजा का पालन करो, इस से तुम्हें धर्म का पूरा-पूरा फल प्राप्त होगा।” ।।
५.
अपने पिता महाराज कुश की यह बात सुनकर उन चारों लोकशिरोमणि नरश्रेष्ठ राजकुमारों ने उस समय अपने-अपने लिये पृथक्-पृथक् नगरों का निर्माण कराया। ।।
६.
महातेजस्वी कुशाम्ब ने 'कौशाम्बी' पुरी बसायी (जिसे आजकल 'कोसम' कहते हैं )। धर्मात्मा कुशनाभ ने 'महोदय' नामक नगर का निर्माण कराया। ।।
७.
परम बुद्धिमान् असूर्तरजस ने 'धर्मारण्य' नामक एक श्रेष्ठ नगर बसाया तथा राजा वसु ने 'गिरिव्रज' नगर की स्थापना की। ।।
८.
महात्मा वसु की यह 'गिरिव्रज' नामक राजधानी वसुमती के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके चारों ओर ये पाँच श्रेष्ठ पर्वत सुशोभित होते हैं। ।।
९.
यह रमणीय (सोन) नदी दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहती हुई मगध देश में आयी है, इस लिये यहाँ 'सुमागधी' नाम से विख्यात हुई है। यह इन पाँच श्रेष्ठ पर्वतों के बीच में माला की भाँति सुशोभित हो रही है। ।।
१०.
श्रीराम ! इस प्रकार 'मागधी नाम से प्रसिद्ध हुई यह सोन नदी पूर्वोक्त महात्मा वसु से सम्बन्ध रखती है। रघुनन्दन ! यह दक्षिण-पश्चिम से आकर पूर्वोत्तर दिशा की ओर प्रवाहित हुई है। इसके दोनों तटों पर सुन्दर क्षेत्र (उपजाऊ खेत) हैं, अतः यह सदा सस्य मालाओं से अलंकृत ( हरी-भरी खेती से सुशोभित) रहती है। ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
रघुकुल को आनन्दित करनेवाले श्रीराम ! धर्मात्मा राजर्षि कुशनाभ ने घृताची अप्सरा के गर्भ से परम उत्तम सौ कन्याओं को जन्म दिया। ।।
१२ से १३.
वे सब की सब सुन्दर रूप लावण्य से सुशोभित थीं। धीरे-धीरे युवावस्था ने आकर उनके सौन्दर्य को और भी बढ़ा दिया। रघुवीर ! एक दिन वस्त्रों और आभूषणों से विभूषित हो वे सभी राजकन्याएँ उद्यान-भूमि में आकर वर्षाऋतु में प्रकाशित होने वाली विद्युन्मालाओं की भाँति शोभा पाने लगीं। सुन्दर अलंकारों से अलंकृत हुइ वे अंगनाएँ गाती, बजाती और नृत्य करती हुई वहाँ परम आमोद-प्रमोद में मग्न हो गयीं। ।।
१४.
उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे। इस भूतल पर उनके रूप-सौन्दर्य की कहीं भी तुलना नहीं थी। उस उद्यान में आकर वे बादलों के ओट में कुछ-कुछ छिपी हुई तारिकाओं के समान शोभा पा रही थीं। ।।
१५.
उस समय उत्तम गुणों से सम्पन्न तथा रूप और यौवन से सुशोभित उन सब राजकन्याओं को देख कर सर्वस्वरूप वायु देवता ने उन से इस प्रकार कहा - ।।
१६.
“सुन्दरियो! मैं तुम सब को अपनी प्रेयसी के रूप में प्राप्त करना चाहता हूँ। तुम सब मेरी भार्याएँ बनोगी। अब मनुष्यभाव का त्याग करो और मुझे अंगीकार करके देवांगनाओं की भाँति दीर्घ आयु प्राप्त कर लो।” ।।
१७.
“विशेषतः मानव शरीर में योवन कभी स्थिर नहीं रहता – प्रति क्षण क्षीण होता जाता है। मेरे साथ सम्बन्ध हो जाने पर तुम लोग अक्षय यौवन प्राप्त करके अमर हो जाओ गी।” ।।
१८.
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले वायुदेव का यह कथन सुनकर वे सौ कन्याएँ अवहेलना पूर्वक हँस कर बोलीं- ।।
१९.
“सुरश्रेष्ठ! आप प्राणवायु के रूप में समस्त प्राणियों के भीतर विचरते हैं (अतः, सब के मन की बातें भी जानते हैं; आप को यह मालूम होगा कि हमारे मन में आप के प्रति कोई आकर्षण नहीं है)। हम सब बहिनें आप के अनुपम प्रभाव को भी जानती हैं ( तो भी हमारा आप के प्रति अनुराग नहीं है; ऐसी दशा में यह अनुचित प्रस्ताव करके आप हमारा अपमान किस लिये कर रहे हैं?” ।।
२०.
“देव! देवशिरोमणे! हम सब की सब राजर्षि कुशनाभ की कन्याएँ हैं। देवता होने पर भी आपको शाप देकर वायुपद से भ्रष्ट कर सकती हैं, किंतु ऐसा करना नहीं चाहतीं ; क्योंकि हम अपने तप को सुरक्षित रखती हैं।” ।।
श्लोक २१ से २६ ।।
२१.
“दुर्मते! वह समय कभी न आवे, जब कि हम अपने सत्यवादी पिता की अवहेलना करके काम वश या अत्यन्त अधर्म पूर्वक स्वयम् ही वर ढूँढ़ने लगें।” ।।
२२.
“हमलोगों पर हमारे पिताजी का प्रभुत्व है, वे हमारे लिये सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। पिताजी हमें जिसके हाथ में दे देंगे, वही हमारा पति होगा।” ।।
२३.
उनकी यह बात सुनकर वायुदेव अत्यन्त कुपित हो उठे। उन ऐश्वर्यशाली प्रभु ने उनके भीतर प्रविष्ट हो सब अंगों को मोड़कर टेढ़ा कर दिया। शरीर मुड़ जाने के कारण वे कुबड़ी हो गयीं। उनकी आकृति मुट्ठी बँधे हुए एक हाथ के बराबर हो गयी। वे भय से व्याकुल हो उठीं। ।।
२४.
वायुदेव द्वारा कुबड़ी की हुइ उन कन्याओं ने राजभवन में प्रवेश किया। प्रवेश करके वे लज्जित और उद्विग्न हो गयीं। उनके नेत्रों से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं। ।।
२५.
अपनी परम सुन्दर प्यारी पुत्रियों को कुब्जता के कारण अत्यन्त दयनीय दशा में पड़ी देख राजा कुशनाभ घबरा गये और इस प्रकार बोले- ।।
२६.
“पुत्रियो! यह क्या हुआ? बताओ। कौन प्राणी धर्म की अवहेलना करता है? किसने तुम्हें कुबड़ी बना दिया, जिससे तुम तडप रही हो, किंतु कुछ बताती नहीं हो।“ यों कह कर राजा ने लंबी साँस खींची और उनका उत्तर सुनने के लिये वे सावधान होकर बैठ गये। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 32- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
