24. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 24

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

चौबीसवाँ सर्ग – ३२ श्लोक ।।

सारांश ।।

श्रीराम और लक्ष्मण का गङ्गा पार होते समय विश्वामित्रजी से जल में उठती हुई तुमुलध्वनि के विषय में प्रश्न करना, विश्वामित्रजी का उन्हें इसका कारण बताना तथा मलद, करुष एवम् ताटका वन का परिचय देते हुए इन्हें ताटका वध के लिये आज्ञा प्रदान करना। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
तदनन्तर निर्मल प्रभातकाल में नित्यकर्म से निवृत्त हुए विश्वामित्रजी को आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गङ्गा नदी के तट पर आये। ।।

२.
उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन पुण्याश्रम निवासी महात्मा मुनियों ने एक सुन्दर नाव मंग्वा कर विश्वामित्रजी से कहा – ।।

३.
“महर्षे! आप इन राजकुमारों को आगे करके इस नाव पर बैठ जाइये और मार्ग को निर्विघ्नता पूर्वक तै कीजिये, जिससे विलम्ब न हो।” ।।

४.
विश्वामित्रजी ने “बहुत अच्छा।” कहकर उन महर्षियों की सराहना की और वे श्रीराम तथा लक्ष्मण के साथ समुद्रगामिनी गङ्गा नदी को पार करने लगे। ।।

५.
गङ्गाजी की बीच धारा में आने पर छोटे भाइ सहित महातेजस्वी श्रीराम को दो जलों के टकराने की बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। “यह कैसी आवाज है? क्यों तथा कहाँ से आ रही है?” इस बातको निश्चित रूपसे जानने की इच्छा उनके भीतर जाग उठी। ।।

६.
तब श्रीराम ने नदी के मध्य भाग में मुनिवर विश्वामित्र से पूछा – “जल के परस्पर मिलने से यहाँ ऐसी तुमुल ध्वनि क्यों हो रही है ?” ।।

७.
श्रीरामचन्द्रजी के वचन में इस रहस्य को जानने की उत्कण्ठा भरी हुई थी। उसे सुनकर धर्मात्मा विश्वामित्र ने उस महान् शब्द (तुमुल ध्वनि) का सुनिश्चित कारण बताते हुए कहा- ।।

८.
“नरश्रेष्ठ राम! कैलास पर्वत पर एक सुन्दर सरोवर है। उसे ब्रह्माजी ने अपने मानसिक संकल्प से प्रकट किया था। मन के द्वारा प्रकट होने से ही वह उत्तम सरोवर 'मानस' कहलाता है।” ।।

९.
“उस सरोवर से एक नदी निकली है, जो अयोध्यापुरी से सट कर बहती है। ब्रह्मसर से निकलने के कारण वह पवित्र नदी सरयू के नाम से विख्यात है।” ।।

१०.
“उसी का जल यहां गङ्गाजी में मिल रहा है। दो नदियों के जलों के संघर्ष से ही यह भारी आवाज हो रही है; जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राम! तुम अपने मन को संयम में रखकर इस संगम के जल को प्रणाम करो।” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
यह सुनकर उन दोनों अत्यन्त धर्मात्मा भाइयों ने उन दोनों नदियों को प्रणाम किया और गङ्गाजी के दक्षिण किनारे पर उतर कर वे दोनों बन्धु जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चलने लगे। ।।

१२.
उस समय इक्ष्वाकुनन्दन राजकुमार श्रीराम ने अपने सामने एक भयङ्कर वन देखा, जिसमें मनुष्यों के आने-जाने का कोइ चिह्न नहीं था। उसे देखकर उन्होंने मुनिवर विश्वामित्र से पूछा- ।।

१३ से १४.
“गुरुदेव! यह वन तो बड़ा ही अद्भुत एवम् दुर्गम है। यहाँ चारों ओर झिल्लियों की झनकार सुनायी देती है। भयानक हिंसक जन्तु भरे हुए हैं। भयङ्कर बोली बोलने वाले पक्षी सब ओर फैले हुए हैं। नाना प्रकार के विहंगम भीषण स्वर में चहचहा रहे हैं।” ।।

१५.
“सिंह, व्याघ्र, सूअर और हाथी भी इस जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। धव (धौरा), अश्वकर्ण (एक प्रकार के शाल वृक्ष), ककुभ (अर्जुन), बेल, तिन्दुक (तेन्दू), पाटल (पाड़र) तथा बेर वृक्षों से भरा हुआ यह भयङ्कर वन क्या है? – इसका क्या नाम है?” ।।

१६.
तब महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र ने उनसे कहा- “वत्स! ककुत्स्थनन्दन ! यह भयङ्कर वन जिसके अधिकार में रहा है, उसका परिचय सुनो।” ।।

१७.
“नरश्रेष्ठ! पूर्वकाल में यहाँ दो समृद्धि शाली जनपद थे - मलद और करूष। ये दोनों देश देवताओं के प्रयत्न से निर्मित हुए थे।” ।।

१८.
“राम! बहुत पहले की बात है, वृत्रासुर का वध करने के पश्चात् देवराज इन्द्र मल से लिप्त हो गये। क्षुधा ने भी उन्हें धर दबाया और उनके भीतर ब्रह्महत्या प्रविष्ट हो गयी।” ।।

१९.
“तब देवताओं तथा तपोधन ऋषियों ने मलिन इन्द्र को यहाँ गंगा जल से भरे हुए कलशों द्वारा नहलाया तथा उनके मल (और कारूष - क्षुधा) को छुड़ा दिया।” ।।

२०.
“इस भूभाग में देवराज इन्द्र के शरीर से उत्पन्न हुए मल और कारूष को देकर देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए।” ।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१ से २२.
इन्द्र पूर्ववत् निर्मल, निष्करुष (क्षुधाहीन) एवम् शुद्ध हो गये। तब उन्होंने प्रसन्न होकर इस देश को यह उत्तम वर प्रदान किया - “ये दो जनपद लोकमें मलद और करूष नाम से विख्यात होंगे। मेरे अंग जनित मल को धारण करने वाले ये दोनों देश बड़े समृद्धिशाली होंगे।” ॥

२३.
“बुद्धिमान् इन्द्र के द्वारा की गयी उस देश की वह पूजा देख कर देवताओं ने पाकशासन को बारम्बार साधुवाद दिया।” ।।

२४.
“शत्रुदमन! मलद और करूष- ये दोनों जनपद दीर्घकाल तक समृद्धि शाली, धन-धान्य से सम्पन्न तथा सुखी रहे हैं।” ।।

२५.
“कुछ काल के अनन्तर यहाँ इच्छानुसार रूप धारण करने वाली एक यक्षिणी आयी, जो अपने शरीर में एक हजार हाथियों का बल धारण करती है।” । ।।

२६ से २७.
“उसका नाम ताटका है। वह बुद्धिमान् सुन्द नामक दैत्य की पत्नी है। तुम्हारा कल्याण हो! मारीच नामक राक्षस, जो इन्द्र के समान पराक्रमी है, उस ताटका का ही पुत्र है। उसकी भुजाएँ गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है।” ।।

२८.
“वह भयानक आकार वाला राक्षस यहाँ की प्रजा को सदा ही त्रास पहुँचाता रहता है। रघुनन्दन! वह दुराचारिणी ताटका भी सदा मलद और करूष – इन दोनों जनपदों का विनाश करती रहती है।” ।।

२९ से ३०.
“वह यक्षिणी डेढ़ योजन (छः कोस) तक के मार्ग को घेर कर इस वन में रहती है; अतः, हम लोगों को जिस ओर ताटका वन है, उधर ही चलना चाहिये। तुम अपने बाहुबल का सहारा लेकर इस दुराचारिणी को मार डालो।” ।।

श्लोक ३१ से ३२ ।।

३१.
“मेरी आज्ञा से इस देश को पुनः निष्कण्टक बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय कोई यहाँ आ नहीं सकता है।” ।।

३२.
“राम! उस असह्य एवम् भयानक यक्षिणी ने इस देश को उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भयङ्कर क्यों है, यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। उस यक्षिणी ने ही इस सारे देश को उजाड़ दिया है और वह आज भी अपने उस क्रूर कर्म से निवृत्त नहीं हुई है।” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 24- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.