17. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 17
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।
सत्रहवाँ सर्ग ।।
सारांश ।।
श्रीराम का राजपथ की शोभा देखते और सुहृदों की बातें सुनते हुए पिता के भवन में प्रवेश ।।
आरम्भ
श्लोक १ से १० ।।
१ से २.
इस प्रकार श्रीमान् रामचन्द्रजी अपने सुहृदों को आनन्द प्रदान करते हुए रथ पर बैठे राजमार्ग के बीचसे चले जा रहे थे; उन्होंने देखा - सारा नगर ध्वजाओं और पताकाओं से सुशोभित हो रहा है, चारों ओर बहुमूल्य अगुरु नामक धूप की सुगन्ध छा रही है और सब ओर असंख्य मनुष्यों की भीड़ दिखायी दे रही है। वह राजमार्ग श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल भव्य भवनों से सुशोभित तथा अगुरु की सुगन्ध से व्याप्त हो रहा था ।।
३ से ६.
उत्तम श्रेणी के चन्दनों, अगुरु नामक धूपों, उत्तम गन्धद्रव्यों, अलसी या सन आदि के रेशों से बने हुए कपड़ों तथा रेशमी वस्त्रों के ढेर, अनबिंधे मोती और उत्तमोत्तम स्फटिक रत्न उस विस्तृत एवम् उत्तम राजमार्ग की शोभा बढ़ा रहे थे। वह नाना प्रकार के पुष्पों तथा भाँति-भाँति के भक्ष्य पदार्थों से भरा हुआ था। उस के चौराहों की दही, अक्षत, हविष्य, लावा, धूप, अगर, चन्दन, नाना प्रकार के पुष्पहारों और गन्धद्रव्यों से सदा पूजा की जा रही थी । स्वर्गलोक में बैठे हुए देवराज इन्द्र की भाँति रथारूढ़ श्रीराम ने उस राजमार्ग को देखा ।।
७.
वे अपने सुहृदों के मुख से कहे गये बहुत से आशीर्वादों को सुनते और यथायोग्य उन सब लोगों का सम्मान करते हुए चले जा रहे थे ।।
८.
(उन के हितैषी सुहृद् कह रहे थे) “रघुनन्दन! तुम्हारे पितामह और प्रपितामह (दादे और परदादे) जिस पर चलते आये हैं, आज उसी मार्ग को ग्रहण कर के युवराज – पद पर अभिषिक्त हो आप हम सब लोगों का निरन्तर पालन करें।”।।
९.
(फिर वे आपस में कहने लगे) “भाइयो! श्रीराम के पिता तथा समस्त पितामहों द्वारा जिस प्रकार हमलोगों का पालन-पोषण हुआ है, श्रीराम के राजा होने पर हम उस से भी अधिक सुखी रहें गे।” ।।
१०.
“यदि हम राज्य पर प्रतिष्ठित हुए श्रीराम को पिता के घर से निकल्ते हुए देख लें- यदि राजा राम का दर्शन कर लें तो अब हमें इहलोक के भोग और परमार्थस्वरूप मोक्ष ले कर क्या करना है।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“अमित तेजस्वी श्रीराम का यदि राज्य पर अभिषेक हो जाय तो वह हमारे लिये जैसा प्रियतर कार्य होगा, उस से बढ़ कर दूसरा कोई परम प्रिय कार्य नहीं हो गा।” ।।
१२.
सुहृदों के मुँह से निकली हुई ये तथा और भी कई तरह की अपनी प्रशंसा से सम्बन्ध रखने वाली सुन्दर बातें सुनते हुए श्रीरामचन्द्रजी राजपथ पर बढ़े चले जा रहे थे ।।
१३.
(जो भी श्रीराम की ओर एक बार देख लेता, वह उन्हें देखता ही रह जाता था।) श्री रघुनाथजी के दूर चले जाने पर भी कोई उन पुरुषोत्तम की ओर से अपना मन या दृष्टि नहीं हटा पाता था ।।
१४.
उस समय जो श्रीराम को नहीं देखता और जिसे श्रीराम नहीं देख लेते थे, वह समस्त लोकों में निन्दित समझा जाता था तथा स्वयम् उसकी अन्तरात्मा भी उसे धिक्कारती रहती थी ।।
१५.
धर्मात्मा श्रीराम चारों वर्णों के सभी मनुष्यों पर उनकी अवस्था के अनुरूप दया करते थे, इस लिये वे सभी उन के भक्त थे ।।
१६.
राजकुमार श्रीराम चौराहों, देवमार्गों, चैत्यवृक्षों तथा देवमन्दिरों को अपने दाहिने छोड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे ।।
१७ से १९.
राजा दशरथ का भवन मेघ समूहों के समान शोभा पाने वाले, सुन्दर अनेक रूप-रंग वाले कैलास शिखर के समान उज्ज्वल प्रासाद शिखरों (अट्टालिकाओं) से सुशोभित था। उस में रत्नों की जाली से विभूषित तथा विमानाकार क्रीड़ा गृह भी बने हुए थे, जो अपनी श्वेत आभा से प्रकाशित हो रहे थे। वे अपनी ऊँचाइ से आकाश को भी लाँघते हुए-से प्रतीत हो रहे थे; ऐसे गृहों से युक्त वह श्रेष्ठ भवन इस भूतल पर इन्द्र सदन के समान शोभा पा रहा था। उस राजभवन के पास पहुँच कर अपनी शोभा से प्रकाशित होने वाले राजकुमार श्रीराम ने पिता के महल में प्रवेश किया ।।
२०.
उन्हों ने धनुर्धर वीरों द्वारा सुरक्षित भवन की तीन ड्यौड़ियों को तो घोड़े जुते हुए रथ से ही पार किया, फिर दो ड्यौढ़ियों में वे पुरुषोत्तम राम पैदल ही गये ।।
श्लोक २१ से २२ ।।
२१.
इस प्रकार सारी ड्यौढ़ियों को पार कर के दशरथनन्दन श्रीराम साथ आये हुए सब लोगों को लौटा कर स्वयम् अन्तःपुर में गये ।।
२२.
जब राजकुमार श्रीराम पिता के पास जाने के लिये अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए, तब आनन्दमग्न हुए सब लोग बाहर खड़े हो कर उन के पुनः निकलने की प्रतीक्षा करने लगे, ठीक उसी प्रकार जैसे सरिताओं का स्वामी समुद्र चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करता रहता है ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १७॥
Sarg 17 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.