16. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 16
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।
सोलहवाँ सर्ग ।।
सारांश ।।
सुमन्त्र का श्रीराम के महल में पहुँच कर महाराज का संदेश सुनाना और श्रीराम का सीता से अनुमति ले कर लक्ष्मण के साथ रथ पर बैठ कर गाजे-बाजे के साथ मार्ग में स्त्री-पुरुषों की बातें सुनते हुए जाना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
पुरातन वृत्तान्तों के ज्ञाता सूत सुमन्त्र मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए उस अन्तःपुर के द्वार को लाँघ कर भवन की एकान्त कक्षा में जा पहुँचे, जहाँ भीड़ बिलकुल नहीं थी ।।
२.
वहाँ श्रीराम के चरणों में अनुराग रखने वाले एकाग्रचित्त एवम् सावधान युवक प्रास और धनुष आदि लिये डटे हुए थे। उन के कानों में शुद्ध सुवर्ण के बने हुए कुण्डल झिलमिला रहे थे ।।
३.
उस ड्यौढ़ी में सुमन्त्र को गेरुआ वस्त्र पहने और हाथ में छड़ी लिये वस्त्राभूषणों से अलंकृत बहुत से वृद्ध पुरुष बड़ी सावधानी के साथ द्वार पर बैठे दिखायी दिये, जो अन्तःपुर की स्त्रियों के अध्यक्ष (संरक्षक) थे ।।
४.
सुमन्त्र को आते देख श्रीराम का प्रिय करने की इच्छा रखने वाले वे सभी पुरुष सहसा वेग पूर्वक आसनों से उठ कर खड़े हो गये ।।
५.
राज सेवा में अत्यन्त कुशल तथा विनीत हृदय वाले सूत पुत्र सुमन्त्र ने उन से कहा – “ आपलोग श्रीरामचन्द्रजी से शीघ्र जा कर कहें, कि सुमन्त्र दरवाजे पर खड़े हैं।” ।।
६.
स्वामी का प्रिय करने की इच्छा वाले वे सब सेवक श्रीरामचन्द्रजी के पास जा पहुँचे। उस समय श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ विराजमान थे। उन सेवकों ने शीघ्र ही उन्हें सुमन्त्र का संदेश सुना दिया ।।
७.
द्वार रक्षकों द्वारा दी हुई सूचना पा कर श्रीराम ने पिता की प्रसन्नता के लिये उन के अन्तरङ्ग सेवक सुमन्त्र को वहीं अन्तःपुर में बुलवा लिया ।।
८.
वहाँ पहुँच कर सुमन्त्र ने देखा श्रीरामचन्द्रजी वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो कुबेर के समान जान पड़ते हैं और बिछौनों से युक्त सोने के पलंग पर विराजमान हैं ।।
९ से १०.
शत्रुओं को संताप देने वाले रघुनाथजी के श्रीअङ्गों में वाराह के रुधिर की भाँति लाल, पवित्र और सुगन्धित उत्तम चन्दन का लेप लगा हुआ है और देवी सीता उन के पास बैठ कर अपने हाथ से चवँर डुला रही हैं। सीता के अत्यन्त समीप बैठे हुए श्रीराम चित्रा से संयुक्त चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे हैं ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
विनय के ज्ञाता वन्दी सुमन्त्र ने तपते हुए सूर्य की भाँति अपने नित्य प्रकाश से सम्पन्न रह कर अधिक प्रकाशित होने वाले वरदायक श्रीराम को विनीत भाव से प्रणाम किया।
१२.
विहार कालिक शयन के लिये जो आसन था, उस पलंग पर बैठे हुए प्रसन्न मुख वाले राजकुमार श्रीराम का दर्शन कर के राजा दशरथ द्वारा सम्मानित सुमन्त्र ने हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहा- ।।
१३.
“श्रीराम! आप को पा कर महारानी कौसल्या सर्वश्रेष्ठ संतान वाली हो गयी हैं। इस समय रानी कैकेयी के साथ बैठे हुए आप के पिताजी आप को देखना चाहते हैं, अतः वहाँ चलिये, विलम्ब न कीजिये।” ।।
१४.
सुमन्त्र के ऐसा कहने पर महातेजस्वी नरश्रेष्ठ श्रीराम ने सीताजी का सम्मान करते हुए प्रसन्नता पूर्वक उन से इस प्रकार कहा- ।।
१५.
“देवि! जान पड़ता है, पिता जी और माता कैकेयी दोनों मिल कर मेरे विषय में ही कुछ विचार कर रहे हैं। निश्चय ही मेरे अभिषेक के सम्बन्ध में ही कोई बात होती होगी।” ।।
१६.
“मेरे अभिषेक के विषय में राजा के अभिप्राय को लक्ष्य कर के उन का प्रिय करने की इच्छा वाली परम उदार एवम् समर्थ कजरारे नेत्रों वाली कैकेयी मेरे अभिषेक के लिये ही राजा को प्रेरित कर रही होंगी।” ।।
१७.
“मेरी माता केकयराजकुमारी इस समाचार से बहुत प्रसन्न हुइ होंगी। वे महाराज का हित चाहने वाली और उन की अनुगामिनी हैं। साथ ही वे मेरा भी भला चाहती हैं। अतः वे महाराज को अभिषेक करने के लिये जल्दी करने को कह रही होंगी।” ।।
१८.
“सौभाग्य की बात है कि महाराज अपनी प्यारी रानी के साथ बैठे हैं और उन्हों ने मेरे अभीष्ट अर्थ को सिद्ध करने वाले सुमन्त्र को ही दूत बना कर भेजा है।” ।।
१९.
“जैसी वहाँ अन्तरङ्ग परिषद् बैठी है, वैसे ही दूत सुमन्त्र जी यहाँ पधारे हैं। अवश्य आज ही महाराज मुझे युवराज के पद पर अभिषिक्त करेंगे।” ।।
२०.
“अतः मैं प्रसन्नता पूर्वक यहाँ से शीघ्र जा कर महाराज का दर्शन करूँगा। तुम परिजनों के साथ यहाँ सुख पूर्वक बैठो और आनन्द करो।” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
पति द्वारा इस प्रकार सम्मानित हो कर कजरारे नेत्रों वाली सीतादेवी उन का मङ्गल- चिन्तन करती हुई स्वामी के साथ-साथ द्वार तक उन्हें पहुँचाने के लिये गयीं ॥
२२.
उस समय वे बोलीं- “आर्यपुत्र! ब्राह्मणों के साथ रह कर आप का युवराज पद पर अभिषेक कर के महाराज दूसरे समय में राजसूय यज्ञ में सम्राट ट्के पद पर आप का अभिषेक करने योग्य हैं। ठीक उसी तरह जैसे लोक स्रष्टा ब्रह्मा ने देवराज इन्द्र का अभिषेक किया था।” ।।
२३.
“आप राजसूय यज्ञ में दीक्षित हो तदनुकूल व्रत का पालन करने में तत्पर, श्रेष्ठ मृग चर्मधारी, पवित्र तथा हाथ में मृग का श्रृङ्ग धारण करने वाले हों और इस रूप में आप का दर्शन करती हुई मैं आप की सेवा में संलग्न रहूँ- यही मेरी शुभ-कामना है।” ।।
२४.
“आप की पूर्व दिशा में वज्रधारी इन्द्र, दक्षिण दिशा में यमराज, पश्चिम दिशा में वरुण और उत्तर दिशा में कुबेर रक्षा करें।” ।।
२५.
तदनन्तर सीता की अनुमति ले उत्सवकालिक मङ्गलकृत्य पूर्ण कर के श्रीरामचन्द्रजी सुमन्त्र के साथ अपने महल से बाहर निकले ।।
२६.
पर्वत की गुफा में शयन करने वाला सिंह जैसे पर्वत से निकल कर आता है, उसी प्रकार महल से निकल कर श्रीरामचन्द्रजी ने द्वार पर लक्ष्मण को उपस्थित देखा, जो विनीत भाव से हाथ जोड़े खड़े थे ।।
२७ से २८.
तदनन्तर मध्यम कक्षा में आ कर वे मित्रों से मिले। फिर प्रार्थी जनों को उपस्थित देख उन सब से मिल कर उन्हें संतुष्ट कर के पुरुषसिंह राजकुमार श्रीराम व्याघ्रचर्म से आवृत, शोभाशाली तथा अग्नि के समान तेजस्वी उत्तम रथ पर आरूढ़ हुए ।।
२९.
उस रथ की घरघराहट मेघ की गम्भीर गर्जना के समान प्रतीत हो रही थी । उस में स्थान की संकीर्णता नहीं थी। वह विस्तृत था और मणि एवम् सुवर्ण से विभूषित था। उस की कान्ति सुवर्णमय मेरु पर्वत के समान जान पड़ती थी। वह रथ अपनी प्रभा से लोगों की आँखों में चकाचौंध सा पैदा कर देता था ।।
३०.
उस में उत्तम घोड़े जुते हुए थे, जो अधिक पुष्ट होने के कारण हाथी के बच्चों के समान प्रतीत होते थे। जैसे सहस्र नेत्र धारी इन्द्र हरे रंग के घोड़ों से युक्त शीघ्रगामी रथ पर सवार होते हैं, उसी प्रकार श्रीराम अपने उस रथ पर आरूढ़ थे ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१.
अपनी सहज शोभा से प्रकाशित श्री रघुनाथ जी उस रथ पर आरूढ़ हो तुरंत वहाँ से चल दिये। वह तेजस्वी रथ आकाश में गरजने वाले मेघ की भाँति अपनी घर्घर ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करता हुआ महान् मेघखण्ड से निकलने वाले चन्द्रमा के समान श्रीराम के उस भवन से बाहर निकला ।।
३२.
श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण भी हाथ में विचित्र चवँर लिये उस रथ पर बैठ गये और पीछे से अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम की रक्षा करने लगे ।।
३३.
फिर तो सब ओर से मनुष्यों की भारी भीड़ निकलने लगी। उस समय उस जन समूह के चलने से सहसा भयंकर कोलाहल मच गया ।।
३४.
श्रीराम के पीछे-पीछे अच्छे-अच्छे घोड़े और पर्वतों के समान विशालकाय श्रेष्ठ गजराज सैकड़ों और हजारों की संख्या में चलने लगे ।।
३५.
उन के आगे-आगे कवच आदि से सुसज्जित तथा चन्दन और अगुरु से विभूषित हो खड्ग और धनुष धारण किये बहुत से शूरवीर तथा मङ्गलाशंसी मनुष्य – वन्दी आदि चल रहे थे ।।
३६ से ३७.
तदनन्तर मार्ग में वाद्यों की ध्वनि, वन्दीजनों के स्तुति पाठ के शब्द तथा शूरवीरों के सिंहनाद सुनायी देने लगे। भवनों की खिड़कियों में बैठी हुई वस्त्राभूषणों से विभूषित वनिताएँ सब ओर शत्रुदमन श्रीराम पर ढेर के ढेर सुन्दर पुष्प बिखेर रही थीं। इस अवस्था में श्रीराम आगे बढ़ते चले जा रहे थे ।।
३८.
उस समय अट्टालिकाओं और भूतल पर खड़ी हुई सर्वाङ्गसुन्दरी युवतियाँ श्रीराम का प्रिय करने की इच्छा से श्रेष्ठ वचनों द्वारा उन की स्तुति गाने लगीं ।।
३९.
“माता को आनन्द प्रदान करनेवाले रघुवीर! आप की यह यात्रा सफल होगी और आप को पैतृक राज्य प्राप्त होगा। इस अवस्था में आप को देखती हुई आप की माता कौसल्या निश्चय ही आनन्दित हो रही होंगी।” ।।
४० से ४१.
वे नारियाँ श्रीराम की हृदयवल्लभा सीमन्तिनी सीता को संसार की समस्त सौभाग्यवती स्त्रियों से श्रेष्ठ मानती हुई कहने लगीं- “उन देवी सीता ने पूर्वकाल में निश्चय ही बड़ा भारी तप किया होगा, तभी तो उन्होंने चन्द्रमा से संयुक्त हुई रोहिणी की भाँति श्रीराम का संयोग प्राप्त किया है।” ।।
श्लोक ४२ से ४७ ।।
४२.
इस प्रकार राजमार्ग पर रथ पर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी प्रासाद शिखरों पर बैठी हुइ युवती स्त्रियों के द्वारा कही गयी ये प्यारी बातें सुन रहे थे ।।
४३.
उस समय अयोध्या में आये हुए दूर-दूर के लोग अत्यन्त हर्ष से भर कर वहाँ श्रीरामचन्द्रजी के विषय में जो वार्तालाप और तरह – तरह की बातें कर रहे थे, अपने विषय में कही गयी उन सभी बातों को श्री रघुनाथजी सुनते जा रहे थे ।।
४४.
वे कह रहे थे – “इस समय ये श्रीरामचन्द्रजी महाराज दशरथ की कृपा से बहुत बड़ी सम्पत्ति के अधिकारी होने जा रहे हैं। अब हम सब लोगों की समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जायँगी, क्योंकि ये श्रीराम हमारे शासक होंगे।” ।।
४५.
“यदि यह सारा राज्य चिरकाल के लिये इनके हाथ में आ जाय तो इस जगत की समस्त जनता के लिये यह महान् लाभ होगा। इनके राजा होने पर कभी किसी का अप्रिय नहीं होगा और किसी को कोइ दुख भी नहीं देखना पड़ेगा।” ।।
४६.
हिनहिनाते हुए घोड़ों, चिग्घाड़ते हुए हाथियों, जय-जय कार करते हुए आगे-आगे चलने वाले वन्दियों, स्तुति पाठ करने वाले सूतों, वंश की विरुदावलि बखानने वाले मागधों तथा सर्व श्रेष्ठ गुणगायकों के तुमुल घोष के बीच उन वन्दी आदि से पूजित एवम् प्रशंसित होते हुए श्रीरामचन्द्र जी कुबेर के समान चल रहे थे ।।
४७.
यात्रा करते हुए श्रीराम जी ने उस विशाल राजमार्ग को देखा, जो हथिनियों, मतवाले हाथियों, रथों और घोड़ों से खचाखच भरा हुआ था। उस के प्रत्येक चौराहे पर मनुष्यों की भारी भीड़ इकट्ठी हो रही थी। उस के दोनों पार्श्वभागों में प्रचुर रत्नों से भरी हुई दुकानें थीं तथा विक्रय के योग्य और भी बहुत-से द्रव्यों के ढेर वहाँ दिखायी दे रहे थे। वह राजमार्ग बहुत साफ-सुथरा था ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १६॥
Sarg 16 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.