18. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 18

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

अठारहवाँ सर्ग ।।

सारांश ।।

श्रीराम का कैकेयी से पिता के चिन्तित होने का कारण पूछना और कैकेयी का कठोरता पूर्वक अपने माँगे हुए वरों का वृत्तान्त बता कर श्रीराम को वनवास के लिये प्रेरित करना ।।

आरम्भ

श्लोक १ से १० ।।

१.
भवन में जा कर श्रीराम ने पिता को कैकेयी के साथ एक सुन्दर आसन पर बैठे देखा। वे विषाद में डूबे हुए थे, उन का मुँह सूख गया था और वे बड़े दयनीय दिखायी दे रहे थे ।।

२.
निकट पहुँचने पर श्रीराम ने विनीत भाव से पहले अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया; उस के बाद बड़ी सावधानी के साथ उन्हों ने कैकेयी के चरणों में भी मस्तक झुकाया ।।

३.
उस समय दीन दशा में पड़े हुए राजा दशरथ एक बार “राम!” ऐसा कह कर चुप हो गये (इस से आगे उन से बोला नहीं गया)। उन के नेत्रों में आँसू भर आये, अतः वे श्रीराम की ओर न तो देख ही सके और न ही उन से कोइ बात ही कर सके ।।

४.
राजा का वह अभूत पूर्व भयंकर रूप देख कर श्रीराम को भी भय हो गया, मानो उन्हों ने पैर से किसी सर्प को छू दिया हो ।।

६.
राजा की इन्द्रियों में प्रसन्नता नहीं थी; वे शोक और संताप से दुर्बल हो रहे थे, बारंबार लंबी साँसें भर रहे थे तथा उन के चित्त में बड़ी व्यथा और व्याकुलता थी। वे ऐसे दिखते थे, मानो तरङ्ग मालाओं से उपलक्षित अक्षोभ्य समुद्र क्षुब्ध हो उठा हो, सूर्य को राहु ने ग्रस लिया हो अथवा किसी महर्षि ने झूठ बोल दिया हो ।।

७.
राजा का वह शोक सम्भावना से परे था। इस शोक का क्या कारण है - यह सोचते हुए श्रीरामचन्द्रजी पूर्णिमा के समुद्र की भाँति अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठे ।।

८.
पिता के हित में तत्पर रहने वाले परम चतुर श्रीराम सोचने लगे “कि आज ही ऐसी क्या बात हो गयी जिस से महाराज मुझ से प्रसन्न हो कर बोलते नहीं हैं?” ।।

९.
“और दिन तो पिताजी कुपित होने पर भी मुझे देखते ही प्रसन्न हो जाते थे, आज मेरी ओर दृष्टिपात कर के इन्हें क्लेश क्यों हो रहा है?” ।।

१०.
यह सब सोच कर श्रीराम दीन-से हो गये, शोक से कातर हो उठे, विषाद के कारण उन के मुख की कान्ति फीकी पड़ गयी। वे कैकेयी को प्रणाम कर के उसी से पूछने लगे - ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“मा! मुझ से अनजाने में कोई अपराध तो नहीं हो गया, जिस से पिताजी मुझ पर नाराज हो गये हैं। तुम यह बात मुझे बताओ और तुम्हीं इन्हें मना दो।” ।।

१२.
“ये तो सदा मुझे प्यार करते थे, आज इन का मन अप्रसन्न क्यों हो गया? देख रहा हूँ, ये आज मुझ से बोलते तक नहीं हैं, इन के मुख पर विषाद छा रहा है और ये अत्यन्त दुखी हो रहे हैं।” ।।

१३.
“कोइ शारीरिक व्याधि जनित संताप अथवा मानसिक अभिताप (चिन्ता) तो इन्हें पीड़ित नहीं कर रहा है? क्यों कि मनुष्य को सदा सुख ही सुख मिले- ऐसा सुयोग प्रायः दुर्लभ होता है।” ।।

१४.
“प्रियदर्शन कुमार भरत, महाबली शत्रुघ्न अथवा मेरी माताओं का तो कोई अमंगल तो नहीं हुआ है?” ।।

१५.
“महाराजको असंतुष्ट करके अथवा इनकी आज्ञा न मानकर इन्हें कुपित कर देनेपर मैं दो घड़ी भी जीवित रहना नहीं चाहूँगा ।।

१६.
“मनुष्य जिस के कारण इस जगत में अपना प्रादुर्भाव (जन्म) देखता है, उस प्रत्यक्ष देवता पिता के जीते जी वह उस के अनुकूल बर्ताव क्यों न करेगा?” ।।

१७.
“कहीं तुमने तो अभिमान या रोष के कारण मेरे पिताजी से कोई कठोर बात तो नहीं कह डाली, जिस से इन का मन दुखी हो गया है?” ।।

१८.
“देवि! मैं सच्ची बात पूछता हूँ, बताओ, किस कारण से महाराज के मन में आज इतना विकार (संताप ) है? इन की ऐसी अवस्था तो पहले कभी नहीं देखी गयी थी।” ।।

१९.
महात्मा श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर अत्यन्त निर्लज्ज कैकेयी बड़ी ढिठाइ के साथ अपने मतलब की बात इस प्रकार बोली- ।।

२०.
“राम! महाराज कुपित नहीं हैं और न इन्हें कोई कष्ट ही हुआ है। इन के मन में कोई बात है, जिसे तुम्हारे स्नेह वश के कारन ये कह नहीं पा रहे हैं।” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“तुम इन के प्रिय हो, तुम से कोई अप्रिय बात कहने के लिये इन की जबान नहीं खुलती; किंतु इन्हों ने जिस कार्य के लिये मेरे सामने प्रतिज्ञा की है उस का तुम्हें अवश्य पालन करना चाहिये।” ।।

२२.
“इन्हों ने पहले तो मेरा सत्कार करते हुए मुझे मुँह माँगा वरदान दे दिया और अब ये दूसरे गँवार मनुष्यों की भाँति उस के लिये पश्चात्ताप कर रहे हैं।” ।।

२३.
“ये प्रजानाथ पहले “मैं दूँगा” – ऐसी प्रतिज्ञा कर के मुझे वर दे चुके हैं और अब उस के निवारण के लिये व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हैं, पानी निकल जाने पर उसे रोकने के लिये बाँध बाँधने की निरर्थक चेष्टा कर रहे हैं।” ।।

२४.
“राम! सत्य ही धर्म की जड़ है, यह सत्पुरुषों का भी निश्चय है। कहीं ऐसा न हो कि ये महाराज तुम्हारे कारण मुझ पर कुपित हो कर अपने उस सत्य को ही छोड़ बैठें। जैसे भी इन के सत्य का पालन हो, वैसा तुम्हें करना चाहिये।” ।।

२५.
“यदि राजा जिस बात को कहना चाहते हैं, वह शुभ हो या अशुभ, तुम सर्वथा उस का पालन करो तो मैं सारी बात पुनः तुम से कहूँगी।” ।।

२६.
“यदि राजा की कही हुई बात तुम्हारे कानों में पड़ कर वहीं नष्ट न हो जाय – यदि तुम उन की प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सको तो मैं तुम से सब कुछ खोल कर बता दूँगी, ये स्वयम् तुम से कुछ नहीं कहेंगे ।“।।

२७.
कैकेयी की कही हुई यह बात सुन कर श्रीराम के मन में बड़ी व्यथा हुई। उन्हों ने राजा के समीप ही देवी कैकेयी से इस प्रकार कहा- ।।

२८ से ३०.
“अहो! धिक्कार है! देवि! तुम्हें मेरे प्रति ऐसी बात मुँह से नहीं निकालनी चाहिये। मैं महाराज के कहने से आग में भी कूद सकता हूँ, तीव्र विष का भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ! महाराज मेरे गुरु, पिता और हितैषी हैं, मैं उन की आज्ञा पा कर क्या नहीं कर सकता? इस लिये देवि! राजा को जो अभीष्ट है, वह बात मुझे बताओ ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, उसे पूर्ण करूँगा। राम दो प्रकार की बातें नहीं करता है।” ।।

श्लोक ३१ से ४१ ।।

३१.
श्रीराम सरल स्वभाव से युक्त और सत्यवादी थे, उन की बात सुन कर अनार्या कैकेयी ने अत्यन्त दारुण वचन कहना आरम्भ किया ।।

३२.
“रघुनन्दन! पहले की बात है, देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता शत्रुओं के बाणों से बिंध गये थे, उस महा समर में मैंने इन की रक्षा की थी, उस से प्रसन्न हो कर इन्हों ने मुझे दो वर दिये थे।” ।।

३३.
“राघव! उन्हीं में से एक वर के द्वारा तो मैंने महाराज से यह याचना की है कि भरत का राज्याभिषेक हो और दूसरा वर यह माँगा है कि तुम्हें आज ही दण्डकारण्य में भेज दिया जाय।” ।।

३४.
“नरश्रेष्ठ! यदि तुम अपने पिता को सत्य प्रतिज्ञ बनाना चाहते हो और अपने को भी सत्यवादी सिद्ध करने की इच्छा रखते हो तो मेरी यह बात सुनो।” ।।

३५.
“तुम पिता की आज्ञा के अधीन रहो, जैसी इन्हों ने प्रतिज्ञा की है, उस के अनुसार तुम्हें चौदह वर्षों के लिये वन में प्रवेश करना चाहिये।” ।।

३६.
“रघुनन्दन! राजा ने तुम्हारे लिये जो यह अभिषेक का सामान जुटाया है, उस सब के द्वारा यहाँ भरत का अभिषेक किया जाय।” ।।

३७.
“और तुम इस अभिषेक को त्याग कर चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में रहते हुए जटा और चीर धारण करो।” ।।

३८.
“कोसल नरेश की इस वसुधा का, जो नाना प्रकार के रत्नों से भरी-पूरी और घोड़े तथा रथों से व्याप्त है, भरत शासन करें।” ।।

३९.
“बस इतनी ही बात है, ऐसा करने से तुम्हारे वियोग का कष्ट सहन करना पड़ेगा, यह सोच कर महाराज करुणा में डूब रहे हैं। इसी शो से इन का मुख सूख गया है और इन्हें तुम्हारी ओर देखने का साहस नहीं हो रहा है।” ।।

४०.
“रघुनन्दन राम! तुम राजा की इस आज्ञा का पालन करो और इन के महान् सत्य की रक्षा कर के इन नरेश को संकट से उबार लो।” ।।

४१.
कैकेयी के इस प्रकार कठोर वचन कहने पर भी श्रीराम के हृदय में शोक नहीं हुआ, परंतु महानुभाव राजा दशरथ पुत्र के भावी वियोग जनित दुख से संतप्त एवम् व्यथित हो उठे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १८ ॥

Sarg 18 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.