16. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 16

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।

सोलहवाँ सर्ग – ३२ श्लोक ।।

सारांश ।।

हनुमान्जी का मन-ही-मन सीताजी के शील और सौन्दर्य की सराहना करते हुए उन्हें कष्ट में पड़ी देख स्वयम् भी उन के लिये शोक करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
परमप्रशंसनीया सीताजी और गुणाभिराम श्रीरामजी की प्रशंसा करके वानर श्रेष्ठ हनुमान्जी फिर विचार करने लगे ।।

२.
लगभग दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करने पर उनके नेत्रों में आँसू भर आये और वे तेजस्वी हनुमान् सीताजी के विषय में इस प्रकार विलाप करने लगे ।।

३.
“अहो! जिन्होंने गुरुजनों से शिक्षा पायी है, उन लक्ष्मणजी के बड़े भाई श्रीरामजी की प्रियतमा पत्नी सीताजी भी यदि इस प्रकार दुख से आतुर हो रही हैं तो यह कहना पड़ता है कि काल का उल्लङ्घन करना सभी के लिये अत्यन्त कठिन है” ।।

४.
“जैसे वर्षा ऋतु आनेपर भी देवी गंगा अधिक क्षुब्ध नहीं होती हैं, उसी प्रकार श्रीराम तथा बुद्धिमान् लक्ष्मणजी के अमोघ पराक्रम का निश्चित ज्ञान रखने वाली देवी सीताजी भी शोक से अधिक विचलित नहीं हो रही हैं” ।।

५.
“सीताजी के शील, स्वभाव, अवस्था और बर्ताव श्रीरामजी के ही समान हैं। उनका कुल भी उन्हीं के तुल्य महान् है, अतः, श्री रघुनाथजी विदेहकुमारी सीताजी के सर्वथा योग्य हैं तथा ये कजरारे नेत्रों वाली सीताजी भी उन्हीं के योग्य हैं” ।।

६.
नूतन सुवर्ण के समान दीप्ति मती और लोक कमनीया लक्ष्मीजी के समान शोभा मयी श्रीसीताजी को देख कर हनुमान्जी ने श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया और मन-ही-मन इस प्रकार कहा - ।।

७.
“इन्हीं विशाललोचना सीताजी के लिये भगवान् श्रीरामजी ने महाबली वाली का वध किया और रावण के समान पराक्रमी कबन्ध को भी मार गिराया” ।।

८.
“इन्हीं के लिये श्रीरामजी ने वन में पराक्रम करके भयानक पराक्रमी राक्षस विराध को भी उसी प्रकार युद्ध में मार डाला, जैसे देवराज इन्द्र ने शम्बरासुर का वध किया था” ।।

९ से १०.
“इन्हीं के कारण आत्मज्ञानी श्रीरामचन्द्रजी ने जनस्थान में अपने अग्निशिखा के सदृश तेजस्वी बाणों द्वारा भयानक कर्म करने वाले चौदह हजार राक्षसों को काल के गाल में भेज दिया और युद्ध में खर, त्रिशिरा तथा महातेजस्वी दूषण को भी मार गिराया” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“वानरों का वह दुर्लभ ऐश्वर्य, जो वाली के द्वारा सुरक्षित था, इन्हीं के कारण विश्वविख्यात सुग्रीव को प्राप्त हुआ है” ।।

१२.
“इन्हीं विशाललोचना सीताजी के लिये मैंने नदों और नदियोंके स्वामी श्रीमान् समुद्र का उल्लङ्घन किया और इस लंकापुरी को छान डाला है” ।।

१३.
“इनके लिये तो यदि भगवान् श्रीरामजी समुद्र पर्यन्त पृथ्वी तथा सारे संसार को भी उलट देते तो भी वह मेरे विचार से उचित ही होता” ।।

१४.
“एक ओर तीनों लोकों का राज्य और दूसरी ओर जनककुमारी सीताजी को रख कर तुलना की जाय तो त्रिलोकी का सारा राज्य सीताजी की एक कला के बराबर भी नहीं हो सकता” ।।

१५.
“ये धर्मशील मिथिलानरेश महात्मा राजा जनक की पुत्री सीताजी पतिव्रत धर्म में बहुत दृढ़ हैं” ।।

१६.
“जब हलके मुख (फाल) - से खेत जोता जा रहा था, उस समय ये पृथ्वी को फाड़ कर कमल के पराग की भाँति क्यारी की सुन्दर धूलों से लिपटी हुई प्रकट हुई थीं” ।।

१७.
“जो परम पराक्रमी, श्रेष्ठ शील स्वभाव वाले और युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले थे, उन्हीं महाराज दशरथ की ये यशस्विनी ज्येष्ठ पुत्र वधू हैं” ।।

१८.
“धर्मज्ञ, कृतज्ञ एवम् आत्मज्ञानी भगवान् श्रीरामजी की ये प्यारी पत्नी सीताजी इस समय राक्षसियों के वश में पड़ गयी हैं” ।।

१९.
“ये केवल पतिप्रेम के कारण सारे भोगों को लात मार कर विपत्तियों का कुछ भी विचार न करके श्री रघुनाथजी के साथ निर्जन वन में चली आयी थीं” ।।

२०.
“यहाँ आकर फल-मूलों से ही संतुष्ट रहती हुई पतिदेव की सेवा में लगी रहीं और वन में भी उसी प्रकार परम प्रसन्न रहती थीं, जैसे राज महलों में रहा करती थीं” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“वे ही ये सुवर्ण के समान सुन्दर अंग वाली और सदा मुसकराकर बात करने वाली सुन्दरी सीताजी, जो अनर्थ भोगने के योग्य नहीं थीं, इस यातना को सहन करती हैं” ।।

२२.
“यद्यपि रावण ने इन्हें बहुत कष्ट दिये हैं तो भी ये अपने शील, सदाचार एवम् सतीत्व से सम्पन्न हैं। (उसके वशीभूत नहीं हो सकी हैं।) अतएव जैसे प्यासा मनुष्य पौंसले पर जाना चाहता है, उसी प्रकार श्री रघुनाथजी इन्हें देखना चाहते हैं” ।।

२३.
“जैसे राज्य से भ्रष्ट हुआ राजा पुनः पृथ्वी का राज्य पाकर बहुत प्रसन्न होता है, उसी प्रकार उनकी पुनः प्राप्ति होने से श्री रघुनाथजी को निश्चय ही बड़ी प्रसन्नता होगी” ।।

२४.
“ये अपने बन्धुजनों से बिछुड़ कर विषय भोगों को तिलाञ्जलि दे केवल भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के समागम की आशा से ही अपना शरीर धारण किये हुए हैं” ।।

२५.
“ये न तो राक्षसियों की ओर देखती हैं और न इन फल-फूल वाले वृक्षों पर ही दृष्टि डालती हैं, सर्वथा एकाग्र चित्त हो मन की आँखों से केवल श्रीरामजी का ही निरन्तर दर्शन (ध्यान) करती हैं- इस में संदेह नहीं है” ।।

२६.
“निश्चय ही पति नारी के लिये आभूषण की अपेक्षा भी अधिक शोभा का हेतु है। ये सीताजी उन्हीं पतिदेव से बिछुड़ गयी हैं, इस लिये शोभा के योग्य होने पर भी शोभा नहीं पा रही हैं” ।।

२७.
“भगवान् श्रीरामजी इनसे बिछुड़ जाने पर भी जो अपने शरीर को धारण कर रहे हैं, दुख से अत्यन्त शिथिल नहीं हो जाते हैं, यह उनका अत्यन्त दुष्कर कर्म है” ।।

२८.
“काले केश और कमल- जैसे नेत्रों वाली ये सीताजी वास्तव में सुख भोगने के योग्य ही हैं। इन्हें दुखी जान कर मेरा मन भी व्यथित हो उठता है” ।।

२९.
“अहो! जो पृथ्वी के समान क्षमा शील और प्रफुल्ल कमल के समान नेत्रों वाली हैं तथा श्रीरामजी और लक्ष्मणजी ने जिनकी सदा रक्षा की है, वे ही सीताजी आज इस वृक्ष के नीचे बैठी हैं और ये विकराल नेत्रों वाली राक्षसियाँ इनकी रखवाली करती हैं” ।।

३०.
“हिम की मारी हुई कमलिनी के समान इन की शोभा नष्ट हो गयी है, दुख-पर-दुख उठाने के कारण अत्यन्त पीड़ित हो रही हैं तथा अपने सहचर से बिछुड़ी हुई चकवी के समान पति वियोग का कष्ट सहन करती हुई ये जनककिशोरी सीताजी बड़ी दयनीय दशा को पहुँच गयी हैं” ।।

श्लोक ३१ से ३२ ।।

३१.
“फूलों के भार से जिन की डालियों के अग्रभाग झुक गये हैं, वे अशोक वृक्ष इस समय सीतादेवी के लिये अत्यन्त शोक उत्पन्न कर रहे हैं तथा शिशिर का अन्त होजाने से वसन्त की रात में उदित हुए शीतल किरणों वाले चन्द्रदेव भी इनके लिये अनेक सहस्र किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव की भाँति संताप दे रहे हैं” ।।

३२.
इस प्रकार विचार करते हुए बलवान् वानरश्रेष्ठ वेगशाली हनुमान्जी यह निश्चय करके कि “ये ही सीताजी हैं” उसी वृक्ष पर बैठे रहे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 16 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.