17. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 17
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
सत्रहवाँ सर्ग – ३२ श्लोक ।।
सारांश ।।
भयंकर राक्षसियों से घिरी हुई सीताजी के दर्शन से हनुमान्जी का प्रसन्न होना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
तदनन्तर वह दिन बीतने के पश्चात् कुमुद समूह के समान श्वेत वर्णवाले तथा निर्मल रूप से उदित हुए चन्द्रदेव स्वच्छ आकाश में कुछ ऊपर को चढ़ आये। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई हंस किसी नील जलराशि में तैर रहा हो ।।
२.
निर्मल कान्ति वाले चन्द्रमा अपनी प्रभा से सीताजी के दर्शन आदि में पवनकुमार हनुमांजी की सहायता-सी करते हुए अपनी शीतल किरणों द्वारा उन की सेवा करने लगे ।।
३.
उस समय उन्होंने पूर्णचन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली सीताजी को देखा, जो जल में अधिक बोझ के कारण दबी हुई नौका की भाँति शोक के भारी भार से मानो झुक गयी थीं ।।
४.
वायुपुत्र हनुमान्जी ने जब विदेहकुमारी सीताजी को देखने के लिये अपनी दृष्टि दौड़ायी, तब उन्हें उनके पास ही बैठी हुई भयानक दृष्टि वाली बहुत-सी राक्षसियाँ दिखायी दीं ।।
५.
उनमें से किसी के एक आँख थी तो दूसरी के एक कान। किसी-किसी के कान इतने बड़े थे कि वह उन्हें चादर की भाँति ओढ़े हुए थीं। किसीके कान ही नहीं थे और किसीके कान ऐसे दिखायी देते थे मानो खूँटे गड़े हुए हों। किसी-किसी की साँस लेने वाली नाक उस के मस्तक पर थी ।।
६.
किसीका शरीर बहुत बड़ा था और किसीका बहुत उत्तम। किसीकी गर्दन पतली और बड़ी थी। किसीके केश उड़ गये थे और किसी-किसी के माथे पर केश उगे ही नहीं थे। कोइ कोइ राक्षसी अपने शरीर के केशों का ही कम्बल धारण किये हुए थी ।।
७.
किसीके कान और ललाट बड़े-बड़े थे तो किसी के पेट और स्तन लंबे थे। किसीके ओठ बड़े होने के कारण लटक रहे थे तो किसीके ठोड़ी में ही सटे हुए थे। किसीका मुँह बड़ा था और किसीके घुटने ।।
८.
कोई नाटी, कोई लंबी, कोई कुबड़ी, कोइ टेढ़ी-मेढ़ी, कोई बवनी कोइ विकराल, कोई टेढ़े मुँह वाली, कोई पीली आँख वाली और कोई विकट मुँह वाली थीं ।।
९.
कितनी ही राक्षसियाँ बिगड़े शरीर वाली, काली, पीली, क्रोध करने वाली और कलह पसंद करने वाली थीं। उन सब ने काले लोहे के बने हुए बड़े-बड़े शूल, कूट और मुद्गर धारण कर रखे थे ।।
१०.
कितनी ही राक्षसियों के मुख सूअर, मृग, सिंह, भैंस, बकरी और सियारिनों के समान थे। किन्हीं के पैर हाथियों के समान, किन्हीं के ऊँटों के समान और किन्हीं के घोड़ों के समान थे। किन्हीं- किन्हीं के सिर बन्ध की भाँति छाती में स्थित थे; अतः गड्ढे के समान दिखायी देते थे। (अथवा किन्हीं – किन्हीं के सिर में गड्ढे थे) ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
किन्हीं के एक हाथ था तो किन्हीं के एक पैर। किन्हीं के कान गदहों के समान थे तो किन्हीं के घोड़ों के समान। किन्हीं – किन्हीं के कान गौओं, हाथियों और सिंहों के समान दृष्टिगोचर होते थे ।।
१२.
किन्हीं की नासिकाएँ बहुत बड़ी थीं और किन्हीं की तिरछी। किन्हीं – किन्हीं के नाक ही नहीं थी। कोइ कोइ हाथी की सूँड़ के समान नाक वाली थीं और किन्हीं – किन्हीं की नासिकाएँ ललाट में ही थीं, जिनसे वे साँस लिया करती थीं ।।
१३.
किन्हीं के पैर हाथियों के समान थे और किन्हीं के गौओं के समान। कोई बड़े-बड़े पैर धारण करती थीं और कितनी ही ऐसी थीं जिनके पैरों में चोटी के समान केश उगे हुए थे। बहुत-सी राक्षसियाँ बेहद लंबे सिर और गर्दन वाली थीं और कितनों के पेट तथा स्तन बहुत बड़े-बड़े थे ।।
१४.
किन्हीं के मुँह और नेत्र सीमा से अधिक बड़े थे, किन्हीं – किन्हीं के मुखों में बड़ी-बड़ी जिह्वाएँ थीं और कितनी ही ऐसी राक्षसियाँ थीं, जो बकरी, हाथी, गाय, सूअर, घोड़े, ऊँट और गदहों के समान मुँह धारण करती थीं। इसी लिये वे देखने में बड़ी भयंकर थीं ।।
१५ से १६.
किन्हीं के हाथ में शूल थे तो किन्हीं के मुद्गर कोइ क्रोधी स्वभाव की थीं तो कोई कलह से प्रेम रखती थीं। धुएँ जैसे केश और विकृत मुख वाली कितनी ही विकराल राक्षसियाँ सदा मद्यपान किया करती थीं। मदिरा और मांस उन्हें सदा प्रिय थे ।।
१७.
कितनी ही अपने अंगों में रक्त और मांस का लेप लगाये रहती थीं। रक्त और मांस ही उनके भोजन थे। उन्हें देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे। कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी ने उन सब को देखा ।।
१८ से १९.
वे उत्तम शाखावाले उस अशोक वृक्ष को चारों ओर से घेर कर उस से थोड़ी दूर पर बैठी थीं और सती साध्वी राजकुमारी सीता देवी उसी वृक्ष के नीचे उस की जड़ से सटी हुई बैठी थीं। उस समय शोभाशाली हनुमान्जी ने जनककिशोरी जानकीजी की ओर विशेष रूप से लक्ष्य किया। उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। वे शोक से संतप्त थीं और उनके केशों में मैल जम गयी थी ।।
२०.
जैसे पुण्य क्षीण हो जाने पर कोई तारा स्वर्ग से टूट कर पृथ्वी पर गिर पड़ा हो, उसी प्रकार वे भी कान्तिहीन दिखायी देती थीं। वे आदर्श चरित्र (पतिव्रत्य ) से सम्पन्न तथा इस के लिये सुविख्यात थीं। उन्हें पति के दर्शन के लिये लाले पड़े थे ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
वे उत्तम भूषणों से रहित थीं तो भी पति के वात्सल्य से विभूषित हो रहीं थीं (पति का स्नेह ही उनके लिये श्रृंगार था)। राक्षसराज रावण ने उन्हें बंदिनी बना रखा था। वे स्वजनों से बिछुड़ गयी थीं ।।
२२.
जैसे कोई हथिनी अपने यूथ से अलग हो गयी हो, यूथ पति के स्नेह से बँधी हो और उसे किसी सिंह ने रोक लिया हो। रावण की कैद में पड़ी हुई सीताजी की भी वैसी ही दशा हो रही थी। वे वर्षा काल बीत जाने पर शरद् ऋतु के श्वेत बादलों से घिरी हुई चन्द्र रेखा के समान प्रतीत हो रही थीं ।।
२३ से २४.
जैसे वीणा अपने स्वामी की अंगुलियों के स्पर्श से वञ्चित हो वादन आदि की क्रिया से रहित अयोग्य अवस्था में मूक पड़ी रहती है, उसी प्रकार सीताजी पति के सम्पर्क से दूर होने के कारण महान् क्लेश में पड़ कर ऐसी अवस्था को पहुँच गयी थीं, जो उनके योग्य नहीं थी। पति के हित में तत्पर रहने वाली सीताजी राक्षसों के अधीन रहने के योग्य नहीं थीं फिर भी वैसी दशा में पड़ी थीं। अशोक वाटिका में रहकर भी वे शोक के सागर में डूबी हुई थीं। क्रूर ग्रह से आक्रान्त हुइ रोहिणी की भाँति वे वहाँ उन राक्षसियों से घिरी हुई थीं। हनुमान्जी ने उन्हें देखा। वे पुष्पहीन लता की भाँति श्रीहीन हो रही थीं ।।
२५.
उनके सारे अंगों में मैल जम गयी थी। केवल शरीर सौन्दर्य ही उन का अलंकार था। वे कीचड़ से लिपटी हुई कमलनाल की भाँति शोभा और अशोभा दोनों से युक्त हो रही थीं ।।
२६.
मैले और पुराने वस्त्र से ढकी हुई मृगशावक नयनी भामिनी सीताजी को कपिवर हनुमांजी ने उस अवस्था में देखा ।।
२७.
यद्यपि देवी सीताजी के मुख पर दीनता छा रही थी तथापि अपने पति के तेज का स्मरण हो आने से उन के हृदय से वह दैन्य दूर हो जाता था। कजरारे नेत्रों वाली सीताजी अपने शील से ही सुरक्षित थीं ।।
२८ से ३०.
उनके नेत्र मृगछौनों के समान चञ्चल थे। वे डरी हुई मृग कन्या की भाँति सब ओर सशंक दृष्टि से देख रही थीं। अपने उच्छ्वासों से पल्लव धारी वृक्षों को दग्ध-सी करती जान पड़ती थीं। शोकों की मूर्तिमती प्रतिमा - सी दिखायी देती थीं और दुख की उठी हुई तरंग - सी प्रतीत होती थीं। उनके सभी अंगों का विभाग सुन्दर था। यद्यपि वे विरह-शोक से दुर्बल हो गयी थीं तथापि आभूषणों के बिना ही शोभा पाती थीं। इस अवस्था में मिथिलेशकुमारी सीताजी को देख कर पवनपुत्र हनुमान्को उनका पता लगजाने के कारण अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ ।।
श्लोक ३१ से ३२ ।।
३१.
मनोहर नेत्रों वाली सीताजी को वहाँ देख कर हनुमान्जी हर्ष के आँसू बहाने लगे। उन्होंने मन-ही- मन श्री रघुनाथजी को नमस्कार किया ।।
३२.
सीताजी के दर्शन से उल्लासित हो, श्रीराम और लक्ष्मणजी को नमस्कार करके, पराक्रमी हनुमान्जी वहीं छिपे रहे ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।। १७ ।।
Sarg 17 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
