15. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 15

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।

पंद्रहवाँ सर्ग- ५४ श्लोक ।।

सारांश ।।

वन की शोभा देखते हुए हनुमान्जी का एक चैत्य प्रासाद (मन्दिर) के पास सीता को दयनीय अवस्था में देखना, पहचानना और प्रसन्न होना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
उस अशोक वृक्ष पर बैठे-बैठे हनुमान्जी सम्पूर्ण वन को देखते और सीताजी को ढूँढ़ते हुए वहाँ की सारी भूमि पर दृष्टिपात करने लगे ।।

२.
वह भूमि कल्प वृक्ष की लताओं तथा वृक्षों से सुशोभित थी, दिव्य गन्ध तथा दिव्य रस से परिपूर्ण थी और सब ओर से सजायी गयी थी ।।

३.
मृगों और पक्षियों से व्याप्त हो कर वह भूमि नन्दन वन के समान शोभा पा रही थी, अट्टालिकाओं तथा राजभवनों से युक्त थी तथा कोकिल समूहों की काकली से कोलाहल पूर्ण जान पड़ती थी ।।

४.
सुवर्णमय उत्पल और कमलों से भरी हुई बावड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। बहुत-से आसन और कालीन वहाँ बिछे हुए थे। अनेकानेक भूमि गृह वहाँ शोभा पा रहे थे ।।

५.
सभी ऋतुओं में फूल देने वाले और फलों से भरे हुए रमणीय वृक्ष उस भूमि को विभूषित कर रहे थे। खिले हुए अशोकों की शोभा से सूर्योदय काल की छटा-सी छिटक रही थी ।।

६.
पवनकुमार हनुमान्जी ने उस अशोक पर बैठे-बैठे ही उस दमकती हुई-सी वाटिका को देखा। वहाँ के पक्षी उस वाटिका को बारंबार पत्रों और शाखाओं से हीन कर रहे थे ।।

७ से ८.
वृक्षों से झड़ते हुए सैकड़ों विचित्र पुष्पगुच्छों से नीचे से ऊपर तक मानो फूल से बने हुए शोक नाशक अशोकों से, फूलों के भारी भार से झुक कर पृथ्वी का स्पर्श-सा करते हुए खिले हुए करों तथा सुन्दर फूल वाले पलाशों से उपलक्षित वह भूभाग उन की प्रभा के कारण सब ओर से उद्दीप्त- न-सा हो रहा था ।।

९.
पुंनाग (श्वेत कमल या नाग केसर), छितवन, चम्पा तथा बहुवार आदि बहुत से सुन्दर पुष्पों वाले वृक्ष, जिनकी जड़ें बहुत मोटी थीं, वहाँ शोभा पा रहे थे ।।

१०.
वहाँ सहस्रों अशोक के वृक्ष थे, जिनमें से कुछ तो सुवर्ण के समान कान्तिमान् थे, कुछ आग की ज्वाला के समान प्रकाशित हो रहे थे और कोइ कोइ काले काजल की-सी कान्तिवाले थे ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
वह अशोक वन देवोद्यान नन्दन के समान आनन्ददायी, कुबेर के चैत्ररथ वन के समान विचित्र तथा उन दोनों से भी बढ़ कर अचिन्त्य, दिव्य एवम् रमणीय शोभा से सम्पन्न था ।।

१२.
वह पुष्परूपी नक्षत्रों से युक्त दूसरे आकाश के समान सुशोभित हो रहा था तथा पुष्पमय सैकड़ों रत्नों से विचित्र शोभा पाने वाले पाँचवें समुद्र के समान जान पड़ता था।।

१३ से १४.
सब ऋतुओं में फूल देने वाले मनोरम गन्धयुक्त वृक्षों से भरा हुआ तथा भाँति-भाँति के कलरव करने वाले मृगों और पक्षियों से सुशोभित वह उद्यान बड़ा रमणीय प्रतीत हो रहा था। वह अनेक प्रकार की सुगन्ध का भार वहन करने के कारण पवित्र गन्ध से युक्त और मनोहर जान पड़ता था। दूसरे गिरिराज गन्धमादन के समान उत्तम सुगन्ध से व्याप्त था ।।

१५ से १७.
उस अशोक वाटिका में वानरशिरोमणि हनुमान्ने थोड़ी ही दूर पर एक गोलाकार ऊँचा मन्दिर देखा, जिस के भीतर एक हजार खंभे लगे हुए थे। वह मन्दिर कैलास पर्वत के समान श्वेत वर्ण का था। उसमें मूँगे की सीढ़ियाँ बनी थीं तथा तपाये हुए सोने की वेदियाँ बनायी गयी थीं। वह निर्मल प्रासाद अपनी शोभा से देदीप्यमान- सा हो रहा था। दर्शकों की दृष्टि में चकाचौंध - सा पैदा कर देता था और बहुत ऊँचा होने के कारण आकाश में रेखा खींचता सा जान पड़ता था ।।

१८ से १९.
वह चैत्य प्रासाद (मन्दिर) देखने के अनन्तर उन की दृष्टि वहाँ एक सुन्दर स्त्री पर पड़ी, जो मलिन वस्त्र धारण किये राक्षसियों से घिरी हुई बैठी थी। वह उपवास करने के कारण अत्यन्त दुर्बल और दीन दिखायी देती थी तथा बारंबार सिसक रही थी। शुक्लपक्ष के आरम्भ में चन्द्रमा की कला जैसी निर्मल और कृश दिखायी देती है, वैसी ही वह भी दृष्टिगोचर हो रही थी ।।

२०.
धुँंधली-सी स्मृति के आधार पर कुछ-कुछ पहचाने जाने वाले अपने रूप से वह सुन्दर प्रभा बिखेर रही थी और धूएँ से ढकी हुई अग्नि की ज्वाला के समान जान पड़ती थी ।।

श्लोक २१ से ३१ ।।

२१.
एक ही पीले रंग के पुराने रेशमी वस्त्र से उस का शरीर ढका हुआ था। वह मलिन, अलंकार शून्य होने के कारण कमलों से रहित पुष्करिणी के समान श्री हीन दिखायी देती थी ।।

२२.
वह तपस्विनी मंगल ग्रह से आक्रान्त रोहिणी के समान शोक से पीड़ित, दुख से संतप्त और सर्वथा क्षीणकाय हो रही थी ।।

२३.
उपवास से दुर्बल हुई उस दुखिया नारी के मुँह पर आँसुओं की धारा बह रही थी। वह शोक और चिन्ता में मग्न हो दीन दशा में पड़ी हुई थी एवम् निरन्तर दुख में ही डूबी रहती थी ।।

२४.
वह अपने प्रियजनों को तो देख नहीं पाती थी। उस की दृष्टि के समक्ष सदा राक्षसियों का समूह ही बैठा रहता था। जैसे कोई मृगी अपने यूथ से बिछुड़ कर कुत्तों के झुंड से घिर गयी हो, वही दशा उस की भी हो रही थी ।।

२५.
काली नागिन के समान कटि से नीचे तक लटकी हुई एकमात्र काली वेणी के द्वारा उपलक्षित होने वाली वह नारी बादलों के हट जाने पर नीली वन श्रेणी से घिरी हुई पृथ्वी के समान प्रतीत हो रही थी ।।

२६.
वह सुख भोगने के योग्य थी, किंतु दुख से संतप्त हो रही थी। इस के पहले उसे संकटों का कोई भी अनुभव नहीं था। उस विशाल नेत्रों वाली, अत्यन्त मलिन और क्षीणकाय अ अवलोकन कर के युक्तियुक्त कारणों द्वारा हनुमान्जी ने यह अनुमान किया कि हो न हो यही सीताजी है ।।

२७.
इच्छानुसार रूप धारण करने वाला वह राक्षस जब सीताजी को हर कर ले जा रहा था, उस दिन जिस रूप में उन का दर्शन हुआ था, कल्याणी नारी भी वैसे ही रूप से युक्त दिखायी दे रही है ।।

२८.
देवी सीताजी का मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर था। उन की भौंहें बड़ी सुन्दर थीं। दोनों स्तन मनोहर और गोलाकार थे। वे अपनी अंग कान्ति से सम्पूर्ण दिशाओं का अन्धकार दूर किये देती थीं ।।

२९.
उन के केश काले-काले और ओष्ठ बिम्बफल के समान लाल थे। कटिभाग बहुत ही सुन्दर था। सारे अंग सुडौल और सुगठित थे ।।

३० से ३१.
कमलनयनी सीताजी कामदेव की प्रेयसी रति के समान सुन्दर थीं, पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान समस्त जगत के लिये प्रिय थीं। उनका शरीर बहुत ही सुन्दर था। वे नियम परायणा तापसी के समान भूमि पर बैठी थीं। यद्यपि वे स्वभाव से ही भीरु और चिन्ता के कारण बारंबार लंबी साँस खींच रही थीं तो भी दूसरों के लिये नागिन के समान भयंकर थीं ।।

श्लोक ३२ से ४० ।।

३२.
वे विस्तृत महान् शोकजाल से आच्छादित होने के कारण विशेष शोभा नहीं पा रही थीं। धू के समूह से मिली हुई अग्नि शिखा के समान दिखायी देती थीं ।।

३३ से ३४.
वे संदिग्ध अर्थ वाली स्मृति, भूतल पर गिरी हुई ऋद्धि, टूटी हुई श्रद्धा, भग्नरु हुई आशा, विघ्नयुक्त सिद्धि, कलुषित बुद्धि और मिथ्या कलंक से भ्रष्ट हुई कीर्ति के समान जान पड़ती थीं ।।

३५.
श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में रुकावट पड़ जाने से उन के मन में बड़ी व्यथा हो रही थी। राक्षसों से पीड़ित हुई मृग-शावकनयनी अबला सीताजी असहाय की भाँति इधर-उधर देख रही थीं ।।

३६.
उनका मुख प्रसन्न नहीं था। उस पर आँसुओं की धारा बह रही थी और नेत्रों की पलकें काली एवम् टेढ़ी दिखायी देती थीं। वे बारंबार लंबी साँस खींच रही थीं ।।

३७.
उनके शरीर पर मैल जम गयी थी। वे दीनता की मूर्ति बनी बैठी थीं तथा श्रृंगार और भूषण धारण करने के योग्य होने पर भी अलंकार शून्य थीं, अतः काले बादलों से ढकी हुइ चन्द्रमा की प्रभा के समान जान पड़ती थीं ।।

३८.
अभ्यास न करने से शिथिल (विस्मृत) हुई विद्या के समान क्षीण हुई सीताजी को देख कर हनुमान्जी की बुद्धि संदेह में पड़ गयी ।।

३९.
अलंकार तथा स्नान- अनुलेपन आदि अंग संस्कार से रहित हुइ सीताजी व्याकरणादि जनित संस्कार से शून्य होने के कारण अर्थान्तर को प्राप्त हुई वाणी के समान पहचानी नहीं जा रही थीं। हनुमानजी ने बड़े कष्ट से उन्हें पहचाना ।।

४०.
उन विशाललोचना सती-साध्वी राजकुमारी को देख कर उन्हों ने कारणों (युक्तियों) द्वारा उपपादन करते हुए मन में निश्चय किया कि यही सीताजी हैं ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
उन दिनों श्रीरामचन्द्रजी ने विदेहकुमारी के अंगों में जिन-जिन आभूषणों के होने की चर्चा की थी, वे ही आभूषण-समूह इस समय उन के अंगों की शोभा बढ़ा रहे थे। हनुमान्जी ने इस बात की ओर लक्ष्य किया ।।

४२.
सुन्दर बने हुए कुण्डल और कुत्ते के दाँतों की-सी आकृति वाले त्रिकर्ण नामधारी कर्णफूल कानों में सुन्दर ढंग से सुप्रतिष्ठित एवम् सुशोभित थे। हाथों में कंगन आदि आभूषण थे, जिन में मणि और मूँगे जड़े हुए थे ।।

४३ से ४४.
यद्यपि बहुत दिनों से पहने गये होने के कारण वे कुछ काले पड़ गये थे, तथापि उन के आकार-प्रकार वैसे ही थे। (हनुमान्जी ने सोचा - ) श्रीरामचन्द्रजी ने जिन की चर्चा की थी, मेरी समझ में ये वे ही आभूषण हैं। सीताजी ने जो आभूषण वहाँ गिरा दिये थे, उन को मैं इनके अंगों में नहीं देख रहा हूँ। इनके जो आभूषण मार्ग में गिराये नहीं गये थे, वे ही ये दिखायी देते हैं, इस में संशय नहीं है ।।

४५ से ४६.
“उस समय वानरों ने पर्वत पर गिराये हुए सुवर्ण पत्र के समान जो सुन्दर पीला वस्त्र और पृथ्वी पर पड़े हुए उत्तमोत्तम बहुमूल्य एवम् बजने वाले आभूषण देखे थे, वे इन्हीं के द्वारा गिराये हुए थे” ।।

४७.
“यह वस्त्र बहुत दिनों से पहने जाने के कारण यद्यपि बहुत पुराना हो गया है, तथापि इस का पीला रंग अभी तक उतरा नहीं है। यह भी वैसा ही कान्तिमान् है, जैसा वह दूसरा वस्त्र था” ।।

४८.
“ये सुवर्ण के समान गौर अंगवाली श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी महारानी हैं, जो अदृश्य हो जाने पर भी उनके मन से विलग नहीं हुई हैं” ।।

४९.
“ये वे ही सीताजी हैं, जिनके लिये श्रीरामचन्द्रजी इस जगत में करुणा, दया, शोक और प्रेम- इन चार कारणों से संतप्त होते रहते हैं” ।।

५०.
“एक स्त्री खो गयी, यह सोच कर उनके हृदय में करुणा भर आती है। वह हमारे आश्रित थी, यह सोच कर वे दया से द्रवित हो उठते हैं। मेरी पत्नी ही मुझसे बिछुड़ गयी, इसका विचार करके वे शोक व्याकुल हो उठते हैं तथा मेरी प्रियतमा मेरे पास नहीं रही, ऐसी भावना करके उनके हृदय में प्रेम की वेदना होने लगती है” ।।

श्लोक ५१ से ५४ ।।

५१.
“जैसा अलौकिक रूप श्रीरामचन्द्रजी का है तथा जैसा मनोहर रूप एवम् अंग-प्रत्यंग की सुघड़ता इन देवी सीताजी में है; इसे देखते हुए कजरारे नेत्रों वाली सीताजी उन्हीं के योग्य पत्नी हैं” ।।

५२.
“इन देवी का मन श्री रघुनाथजी में और श्री रघुनाथजी का मन इनमें लगा हुआ है, इसीलिये ये तथा धर्मात्मा श्रीराम जीवित हैं। इनके मुहूर्त मात्र जीवन में भी यही कारण है” ।।

५३.
“इनके बिछुड़ जाने पर भी भगवान् श्रीराम जो अपने शरीर को धारण करते हैं, शोक से शिथिल नहीं हो जाते हैं, यह उन्हों ने अत्यन्त दुष्कर कार्य किया है” ।।

५४.
इस प्रकार उस अवस्था में सीता का दर्शन पा कर पवनपुत्र हनुमान्जी बहुत प्रसन्न हुए। वे मन-ही-मन भगवान् श्रीराम के पास जा पहुँचे – उनका चिन्तन करने लगे तथा सीता - जैसी साध्वी को पत्नीरूप में पाने से उन के सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 15 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.