15. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 15

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

पंद्रहवाँ सर्ग ।।

सारांश ।।

सुमन्त्र का राजा की आज्ञा से श्रीराम को बुलाने के लिये उन के भवन में जाना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
वे वेदों के पारङ्गत ब्राह्मण तथा राजपुरोहित वह रात बिता कर प्रातः काल (राजा की प्रेरणा के अनुसार) राज द्वार पर उपस्थित हुए थे ।।

२.
मन्त्री, सेना के मुख्य-मुख्य अधिकारी और बड़े-बड़े सेठ साहूकार श्रीरामचन्द्रजी के अभिषेक के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ एकत्र हुए थे ।।

३ से ५.
निर्मल सूर्योदय होने पर दिन में जब पुष्य नक्षत्र का योग आया तथा श्रीराम के जन्म का कर्क लग्न उपस्थित हुआ, उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने श्रीराम के अभिषेक के लिये सारी सामग्री एकत्र कर के उसे जँचा कर रख दिया। जल से भरे हुए सोने के कलश, भलीभाँति सजाया हुआ भद्रपीठ, चमकीले व्याघ्र चर्म से अच्छी तरह आवृत रथ, गङ्गा-यमुना के पवित्र सङ्गम से लाया हुआ जल- ये सब वस्तुएँ एकत्र कर ली गयी थीं ।।

६ से ८.
इन के सिवा जो अन्य नदियाँ, पवित्र जलाशय, कूप और सरोवर हैं तथा जो पूर्व की ओर बहने वाली (गोदावरी और कावेरी आदि) नदियाँ हैं, ऊपर की ओर प्रवाह वाले जो (ब्रह्मावर्त आदि) सरोवर हैं तथा दक्षिण और उत्तर की ओर बहने वाली जो (गण्डकी एवम् शोणभद्र आदि) नदियाँ हैं, जिन में दूध के समान निर्मल जल भरा रहता है, उन सब से और समस्त समुद्रों से भी लाया हुआ जल वहाँ संग्रह कर के रखा गया था। इन के अतिरिक्त दूध, दही, घी, मधु, लावा, कुश, फूल, आठ सुन्दर कन्याएँ, मदमत्त गजराज और दूध वाले वृक्षों के पल्लवों से ढके हुए सोने- चाँदी के जल पूर्ण कलश भी वहाँ विराजमान थे, जो उत्तम जल से भरे होने के साथ ही पद्म और उत्पलों से संयुक्त होने के कारण बड़ी शोभा पा रहे थे ।।

९.
श्रीराम के लिये चन्द्रमा की किरणों के समान विकसित कान्ति से युक्त श्वेत, पीत वर्ण का रत्न जटित उत्तम चँवर सुसज्जित रूप से रखा हुआ था ।।

१०.
चन्द्र मण्डल के समान सुसज्जित श्वेत छत्र भी अभिषेक सामग्री के साथ शोभा पा रहा था, जो परम सुन्दर और प्रकाश फैलाने वाला था ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
सुसज्जित श्वेत वृषभ और श्वेत अश्व भी खड़े थे ।।

१२ से १३.
सब प्रकार के बाजे उपस्थित थे। स्तुति पाठ करने वाले वन्दी तथा अन्य मागध आदि भी उपस्थित थे। इक्ष्वाकु वंशी राजाओं के राज्य में जैसी अभिषेक सामग्री का संग्रह होना चाहिये, राजकुमार के अभिषेक की वैसी ही सामग्री साथ ले कर वे सब लोग महाराज दशरथ की आज्ञा के अनुसार वहाँ उन के दर्शन के लिये एकत्र हुए थे ।।

१४.
राजा को द्वार पर न देख कर वे कहने लगे- “कौन महाराज के पास जा कर हमारे आगमन की सूचना देगा। हम महाराज को यहाँ नहीं देखते हैं। सूर्योदय हो गया है और बुद्धिमान् श्रीराम के यौवराज्याभिषेक की सारी सामग्री जुट गयी है।” ।।

१५.
वे सब लोग जब इस प्रकार की बातें कर रहे थे, उसी समय राजा द्वारा सम्मानित सुमन्त्र ने वहाँ खड़े हुए उन समस्त भू पतियों से यह बात कही - ।।

१६ से १७.
“मैं महाराज की आज्ञा से श्रीराम को बुलाने के लिये तुरंत जा रहा हूँ। आप सब लोग महाराज के तथा विशेषतः श्रीरामचन्द्रजी के पूजनीय हैं। मैं उन्हीं की ओर से आप समस्त चिरंजीवी पुरुषों के कुशल- समाचार पूछ रहा हूँ। आप लोग सुख से हैं न?” ।।

१८.
ऐसा कह कर और जगे हुए होने पर श्री महाराज के बाहर न आने का कारण बता कर पुरातन वृत्तान्तों को जानने वाले सुमन्त्र पुनः अन्तः पुर के द्वार पर लौट आये ।।

१९.
वह राजभवन सुमन्त्र के लिये सदा खुला रहता था। उन्हों ने भीतर प्रवेश किया और प्रवेश कर के महाराज के वंश की स्तुति की ।।

२०.
तदनन्तर वे राजा के शयन गृह के पास जा कर खड़े हो गये। उस घर के अत्यन्त निकट पहुँच कर जहाँ बीच में केवल चिक का अन्तर रह गया था, खड़े हो वे गुण वर्णन पूर्वक आशीर्वाद सूचक वचनों द्वारा रघुकुलनरेश की स्तुति करने लगे - ।।

श्लोक २१ से ३१ ।।

२१.
“ककुत्स्थनन्दन! चन्द्रमा, सूर्य, शिव, कुबेर, वरुण, अग्नि और इन्द्र आप को विजय प्रदान करें।” ।।

२२.
“भगवती रात्रि विदा हो गयी। अब कल्याण स्वरूप दिन उपस्थित हुआ है। राजसिंह! निद्रा त्याग कर जग जाइये और अब जो कार्य प्राप्त है, उसे कीजिये।” ।।

२३.
“ब्राह्मण, सेना के मुख्य अधिकारी और बड़े-बड़े सेठ साहूकार यहाँ आ गये हैं। वे सब लोग आप का दर्शन चाहते हैं। रघुनन्दन! जागिये।” ।।

२४.
मन्त्रणा करने में कुशल सूत सुमन्त्र जब इस प्रकार स्तुति करने लगे, तब राजा ने जाग कर उन से यह बात कही - ।।

२५ से २६.
“सूत! श्रीराम को बुला लाओ' – यह जो मैंने तुम से कहा था, उस का पालन क्यों नहीं हुआ? ऐसा कौन-सा कारण है, जिस से मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन किया जा रहा है? मैं सोया नहीं हूँ। तुम श्रीराम को शीघ्र यहाँ बुला लाओ।” ।।

२७ से २८.
इस प्रकार राजा दशरथ ने जब सूत को फिर उपदेश दिया, तब वे राजा की वह आज्ञा सुन कर सिर झुका कर उस का सम्मान करते हुए राजभवन से बाहर निकल गये। वे मन-ही-मन अपना महान् प्रिय हुआ मानने लगे। राजभवन से निकल कर सुमन्त्र ध्वजा – पताकाओं से सुशोभित राजमार्ग पर आ गये ।।

२९.
हर्ष और उल्लास में भर कर सब ओर दृष्टि डालते हुए शीघ्रता पूर्वक आगे बढ़ने लगे। सूत सुमन्त्र वहाँ मार्ग में सब लोगों के मुँह से श्रीराम के राज्याभिषेक की आनन्द दायिनी बातें सुनते जा रहे थे ।।

३० से ३१.
तदनन्तर सुमन्त्र को श्रीराम का सुन्दर भवन दिखायी दिया, जो कैलास पर्वत के समान श्वेत प्रभा से प्रकाशित हो रहा था। वह इन्द्र भवन के समान दीप्तिमान् था । उस का फाटक विशाल किवाड़ों से बंद था (उस के भीतर का छोटा-सा द्वार ही खुला हुआ था)। सैकड़ों वेदिकाएँ उस भवन की शोभा बढ़ा रही थीं ।।

श्लोक ३२ से ४० ।।

३२.
उस का मुख्य अग्र भाग सोने की देव प्रतिमाओं से अलंकृत था । उस के बाहर फाटक में मणि और मूँगे जड़े हुए थे। वह सारा भवन शरद् ऋतु के बादलों की भाँति श्वेत कान्ति से युक्त, दीप्तिमान् और मेरु पर्वत की कन्दरा के समान शोभायमान था ।।

३३.
सुवर्ण निर्मित पुष्पों की मालाओं के बीच-बीच में पिरोयी हुई बहुमूल्य मणियों से वह भवन सजा हुआ था। दीवारों में जड़ी हुई मुक्तामणियों से व्याप्त हो कर जगमगा रहा था (अथवा वहाँ मोती और मणियों के भण्डार भरे हुए थे)। चन्दन और अगर की सुगन्ध उस की शोभा बढ़ा रही थी ।।

३४.
वह भवन मलयाचल के समीप वर्ती दर्दुर नामक चन्दन गिरि के शिखर की भाँति सब ओर मनोहर सुगन्ध बिखेर रहा था। कलरव करते हुए सारस और मयूर आदि पक्षी उस की शोभावृद्धि कर रहे थे ।।

३५.
सोने आदि की सुन्दर ढंग से बनी हुई भेड़ियों की मूर्तियों से वह व्याप्त था। शिल्पियों ने उस की दीवारों में बड़ी सुन्दर नक्काशी की थी। वह अपनी उत्कृष्ट शोभा से समस्त प्राणियों के मन और नेत्रों को आकृष्ट कर लेता था ।।

३६.
चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी, कुबेर भवन के समान अक्षय सम्पत्ति से पूर्ण तथा इन्द्र धाम के समान भव्य एवम् मनोरम उस श्रीराम के भवन में नाना प्रकार के पक्षी चहक रहे थे ।।

३७.
सुमन्त्र ने देखा – श्रीराम का महल मेरु पर्वत के शिखर की भाँति शोभा पा रहा है। हाथ जोड़ कर श्रीराम की वन्दना करने के लिये उपस्थित हुए असंख्य मनुष्यों से वह भरा हुआ है ।।

३८.
भाँति-भाँति के उपहार ले कर जनपद निवासी मनुष्य उस समय वहाँ पहुँचे हुए थे। श्रीराम के अभिषेक का समाचार सुन कर उन के मुख प्रसन्नता से खिल उठे थे। वे उस उत्सव को देखने के लिये उत्कण्ठित थे। उन सब की उपस्थिति से भवन की बड़ी शोभा हो रही थी ।

३९.
वह विशाल राजभवन महान् मेघ खण्ड के समान ऊँचा और सुन्दर शोभा से सम्पन्न था। उस की दीवारों में नाना प्रकार के रत्न जड़े गये थे और कुबड़े सेवकों से वह भरा हुआ था ।।

४०.
सारथि सुमन्त्र राजभवन की ओर जाने वाले वरूथ (लोहे की चद्दर या सींकचों के बने हुए आवरण) से युक्त तथा अच्छे घोड़ों से जुते हुए रथ के द्वारा मनुष्यों की भीड़ से भरे राजमार्ग की शोभा बढ़ाते तथा समस्त नगरनिवासियों के मन को आनन्द प्रदान करते हुए श्रीराम के भवन के पास जा पहुँचे ।।

श्लोक ४१ से ४८ ।।

४१.
उत्तम वस्तु को प्राप्त करने के अधिकारी श्रीराम का वह महान् समृद्धि शाली विशाल भवन शची पति इन्द्र के भवन की भाँति सुशोभित हो रहा था। इधर-उधर फैले हुए मृगों और मयूरों से उस की शोभा और भी बढ़ गयी थी। वहाँ पहुँच कर सारथि सुमन्त्र के शरीर में अधिक हर्ष के कारण रोमाञ्च हो आया ।।

४२.
वहाँ कैलास और स्वर्ग के समान दिव्य शोभा से युक्त, सुन्दर सजी हुइ अनेक ड्यौड़ियों को लाँघ कर श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा में चलने वाले बहुतेरे श्रेष्ठ मनुष्यों को बीच में छोड़ते हुए रथ सहित सुमन्त्र अन्तः पुर के द्वार पर उपस्थित हुए ।।

४३.
उस स्थान पर उन्हों ने श्रीराम के अभिषेक सम्बन्धी कर्म करने वाले लोगों की हर्ष भरी बातें सुनीं, जो राजकुमार श्रीराम के लिये सब ओर से मङ्गल कामना सूचित करती थीं। इसी प्रकार उन्हों ने अन्य सब लोगों की भी हर्षोल्लास से परिपूर्ण वार्ताओं को श्रवण किया ।।

४४.
श्रीराम का वह भवन इन्द्र सदन की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था। मृगों और पक्षियों से सेवित होने के कारण उस की रमणीयता और भी बढ़ गयी थी। सुमन्त्र ने उस भवन को देखा। वह अपनी प्रभा से प्रकाशित होने वाले मेरु गिरि के ऊँचे शिखर की भाँति सुशोभित हो रहा था ।।

४५.
उस भवन के द्वार पर पहुँच कर सुमन्त्र ने देखा – श्रीराम की वन्दना के लिये हाथ जोड़े उपस्थित हुए जनपद वासी मनुष्य अपनी सवारियों से उतर कर हाथों में भाँति-भाँति के उपहार लिये करोड़ों और परार्धो की संख्या में खड़े थे, जिस से वहाँ बड़ी भारी भीड़ लग गयी थी ।।

४६.
तदनन्तर उन्हों ने श्रीराम की सवारी में आने वाले सुन्दर शत्रुञ्जय नामक विशाल काय गजराज को देखा, जो महान् मेघ से युक्त पर्वत के समान प्रतीत होता था। उस के गण्ड स्थल से मद की धारा बह रही थी। वह अंकुश से काबू आनेवाला नहीं था। उस का वेग शत्रुओं के लिये अत्यन्त असह्य था। उस का जैसा नाम था, वैसा ही गुण भी था ।।

४७.
उन्हों ने वहाँ राजा के परम प्रिय मुख्य-मुख्य मन्त्रियों को भी एक साथ उपस्थित देखा, जो सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित थे और घोड़े, रथ तथा हाथियों के साथ वहाँ आये हुए थे। सुमन्त्र ने उन सब को एक ओर हटा कर स्वयम् श्रीराम के समृद्धि शाली अन्तः पुर में प्रवेश किया ।।

४८.
जैसे मगर प्रचुर रत्नों से भरे हुए समुद्र में बे रोक-टोक प्रवेश करता है, उसी प्रकार सारथि सुमन्त्र ने पर्वत-शिखर पर आरूढ़ हुए अविचल मेघ के समान शोभायमान महान् विमान के सदृश सुन्दर गृहों से संयुक्त तथा प्रचुर रत्न भण्डार से भरपूर उस भवन में बिना किसी रोक-टोक के प्रवेश किया ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १५॥

Sarg 15 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.