14. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 14
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
चौदहवाँ सर्ग – ५२ श्लोक ।।
सारांश ।।
हनुमानजी का अशोक वाटिका में प्रवेश करके उस की शोभा देखना तथा एक अशोक वृक्ष पर छिपे रह कर वहीं से सीताजी का अनुसन्धान करना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
महातेजस्वी हनुमान्जी एक मुहूर्त तक इसी प्रकार विचार करते रहे। तत्पश्चात् मन-ही-मन सीताजी का ध्यान करके वे रावण के महल से कूद पड़े और अशोक वाटिका की चारदीवारी पर चढ़ गये ।।
२.
उस चारदीवारी पर बैठे हुए महाकपि हनुमान्जी के सारे अंगों में हर्ष जनित रोमाञ्च हो आया। उन्होंने वसन्त के आरम्भ में वहाँ नाना प्रकार के वृक्ष देखे, जिनकी डालियों के अग्र भाग फूलों के भार से लदे थे ।।
३ से ४.
वहाँ साल, अशोक, नीम और चम्पा के वृक्ष खूब खिले हुए थे। बहुवार, नागकेसर और बन्दर के मुँह की भाँति लाल फल देनेवाले आम भी पुष्प एवम् मञ्जरियों से सुशोभित हो रहे थे। अमराइयों से युक्त वे सभी वृक्ष शत-शत लताओं से आवेष्टित थे। हनुमान्जी प्रत्यञ्चा से छूटे हुए बाण के समान उछले और उन वृक्षों की वाटिका में जा पहुँचे ।।
५ से ६.
वह विचित्र वाटिका सोने और चांदी के समान वर्ण वाले वृक्षों द्वारा सब ओर से घिरी हुई थी। उसमें नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे, जिस से वह सारी वाटिका गूंज रही थी। उसके भीतर प्रवेश करके बलवान् हनुमान्जी ने उस का निरीक्षण किया। भाँति-भाँति के विहंगमों और मृग समूहों से उस की विचित्र शोभा हो रही थी। वह विचित्र काननों से अलंकृत थी और नवोदित सूर्य के समान अरुण रंग की दिखायी देती थी ।।
७.
फूलों और फलों से लदे हुए नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त हुई उस अशोक वाटिका का मतवाले कोकिल और भ्रमर सेवन करते थे ।।
८.
वह वाटिका ऐसी थी, जहाँ जाने से हर समय लोगों के मन में प्रसन्नता होती थी। मृग और पक्षी मदमत्त हो उठते थे। मतवाले मोरों का कलनाद वहाँ निरन्तर गूंजता रहता था और नाना प्रकार के पक्षी वहाँ निवास करते थे ।।
९.
उस वाटिका में सती-साध्वी सुन्दरी राजकुमारी सीताजी की खोज करते हुए वानरवीर हनुमानजी ने घोंसलों में सुखपूर्वक सोये हुए पक्षियों को जगा दिया ।।
१०.
उड़ते हुए विहंगमों के पंखों की हवा लगने से वहाँ के वृक्ष अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों की वर्षा करने लगे ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
उस समय पवनकुमार हनुमान्जी उन फूलों से आच्छादित होकर ऐसी शोभा पाने लगे, मानो उस अशोक वन में कोई फूलों का बना हुआ पहाड़ शोभा पा रहा हो ।।
१२.
सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ते और वृक्ष समूहों में घूमते हुए कपिवर हनुमानजी को देख कर समस्त प्राणी एवम् राक्षस ऐसा मानने लगे कि साक्षात् ऋतुराज वसन्त ही यहाँ वानर वेश में विचर रहा है ।।
१३.
वृक्षों से झड़ कर गिरे हुए भाँति-भाँति के फूलों से आच्छादित हुई वहाँ की भूमि फूलों के श्रृंगार से विभूषित हुइ युवती स्त्री के समान शोभा पाने लगी ।।
१४.
उस समय उन वेगशाली वानरवीर के द्वारा वेगपूर्वक बारंबार हिलाये हुए वे वृक्ष विचित्र पुष्पों की वर्षा कर रहे थे ।।
१५.
इस प्रकार डालियों के पत्ते झड़ जाने तथा फल-फूल और पल्लवों के टूट कर बिखर जाने से नंग-धड़ंग दिखायी देने वाले वे वृक्ष उन हारे हुए जुआरियों के समान जान पड़ते थे, जिन्होंने अपने गहने और कपड़े भी दावँ पर रख दिये हों ।।
१६.
वेगशाली हनुमान्जी के हिलाये हुए वे फलशाली श्रेष्ठ वृक्ष तुरंत ही अपने फल-फूल और पत्तों का परित्याग कर देते थे ।।
१७.
पवनपुत्र हनुमानजी द्वारा कम्पित किये गये वे वृक्ष फल-फूल आदि के ना होने से केवल डालियों के आश्रय बने हुए थे; पक्षियों के समुदाय भी उन्हें छोड़ कर चल दिये थे। उस अवस्था में - सब प्राणिमात्र के लिये अगम्य (असेवनीय) हो गये थे ।।
१८ से १९.
जिस के केश खुल गये हैं, अंगराग मिट गये हैं, सुन्दर दन्तावली से युक्त अधर- सुधा का पान कर लिया गया है तथा जिसके कतिपय अंग नखक्षत एवम् दन्तक्षत से उपलक्षित हो रहे हैं, प्रियतम के उप भोग में आयी हुई उस युवती के समान ही उस अशोकवाटिका की भी दशा हो रही थी। हनुमान्जी के हाथ-पैर और पूँछ से रौंदी जा चुकी थी तथा उसके अच्छे-अच्छे वृक्ष टूट कर गिर गये थे; इसलिये वह श्री हीन हो गयी थी ।।
२०.
जैसे वायु वर्षाऋतु में अपने वेग से मेघ समूहों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार कपिवर हनुमान्जी ने वहाँ फैली हुई विशाल लता- वल्लरियों के वितान वेगपूर्वक तोड़ डाले ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
वहाँ विचरते हुए उन वानरवीर ने पृथक्-पृथक् ऐसी मनोरम भूमियों का दर्शन किया, जिनमें मणि, चांदी एवम् सोने जड़े गये थे ।।
२२ से २३.
उस वाटिका में उन्हों ने जहाँ-तहाँ विभिन्न आकारों की बावड़ियाँ देखीं, जो उत्तम जल से भरी हुई और मणिमय सोपानों से युक्त थीं। उनके भीतर मोतियों और मूँगों की बालुकाएँ थीं। जल के नीचे की फर्श स्फटिक मणि की बनी हुइ थी और उन बावड़ियों के तटों पर तरह-तरह के विचित्र सुवर्णमय वृक्ष शोभा दे रहे थे ।।
२४.
उनमें खिले हुए कमलों के वन और चक्रवाकों के जोड़े शोभा बढ़ा रहे थे तथा पपीहा, हंस और सारसों के कलनाद गूँज रहे थे ।।
२५.
अनेकानेक विशाल, तटवर्ती वृक्षों से सुशोभित, अमृत के समान मधुर जल से पूर्ण तथा सुखदायिनी सरिताएँ चारों ओर से उन बावड़ियों का सदा संस्कार करती थीं (उन्हें स्वच्छ जल से परिपूर्ण बनाये रखती थीं ।।
२६.
उनके तटों पर सैकड़ों प्रकार की लताएँ फैली हुई थीं। खिले हुए कल्प वृक्षों ने उन्हें चारों ओर से घेर रखा था। उन के जल नाना प्रकार की झाड़ियों से ढके हुए थे तथा बीच-बीच में खिले हुए कर के वृक्ष गवाक्षकी-सी शोभा पाते थे ।।
२७ से २८.
फिर वहाँ कपिश्रेष्ठ हनुमानजी ने एक मेघ के समान काला और ऊँचे शिखरों वाला पर्वत देखा, जिसकी चोटियाँ बड़ी विचित्र थीं। उसके चारों ओर दूसरे दूसरे भी बहुत से पर्वत शिखर शोभा पा रहे थे। उसमें बहुत-सी पत्थर की गुफाएँ थीं और उस पर्वत पर अनेकानेक वृक्ष उगे हुए थे। वह पर्वत संसार भर में बड़ा रमणीय था ।।
२९.
कपिवर हनुमान्ने उस पर्वत से गिरती हुई एक नदी देखी, जो प्रियतम के अंक से उछल कर गिरी हुइ प्रियतमा के समान जान पड़ती थी ।।
३०.
जिनकी डालियाँ नीचे झुक कर पानी से लग गयी थीं, ऐसे तटवर्ती वृक्षों से उस नदी की वैसी ही शोभा हो रही थी, मानो प्रियतम से रूठ कर अन्यत्र जाती हुइ युवती को उसकी प्यारी सखियाँ उसे आगे बढ़ने से रोक रही हों ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१.
फिर उन महाकपि ने देखा कि वृक्षों की उन डालियों से टकरा कर उस नदी के जल का प्रवाह पीछे की ओर मुड़ गया है। मानो प्रसन्न हुई प्रेयसी पुनः प्रियतम की सेवा में उपस्थित हो रही हो ।।
३२.
उस पर्वत से थोड़ी ही दूरी पर कपिश्रेष्ठ पवनपुत्र हनुमान्ने बहुत से कमलमण्डित सरोवर देखे, जिनमें नाना प्रकार के पक्षी चहचहा रहे थे ।।
३३.
उनके सिवा उन्हों ने एक कृत्रिम तालाब भी देखा, जो शीतल जल से भरा हुआ था। उसमें श्रेष्ठ मणियों की सीढ़ियाँ बनी थीं और वह मोतियों की बालुका राशि से सुशोभित था ।।
३४.
उस अशोक वाटिका में विश्वकर्मा के बनाये हुए बड़े-बड़े महल और कृत्रिम कानन सब ओर से उस की शोभा बढ़ा रहे थे। नाना प्रकार के मृग समूहों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस वाटिका में विचित्र वन-उपवन शोभा दे रहे थे ।।
३५.
वहाँ जो कोई भी वृक्ष थे, वे सब फल-फूल देने वाले थे, छत्र की भाँति घनी छाया किये रहते थे। उन सब के नीचे चांदी की और उस के ऊपर सोने की वेदियाँ बनी हुइ थीं ।।
३६ से ३७.
तदनन्तर महाकपि हनुमान्ने एक सुवर्णमयी शिंशपा (अशोक) का वृक्ष देखा, जो बहुत-से तावितानों और अगणित पत्तों से व्याप्त था। वह वृक्ष भी सब ओर से सुवर्णमयी वेदिकाओं से घिरा हुआ था ।।
३८.
इसके सिवा उन्हों ने और भी बहुत-से खुले मैदान, पहाड़ी झरने और अग्नि के समान दीप्तिमान् सुवर्णमय वृक्ष देखे ।।
३९.
उस समय वीर महाकपि हनुमान्जी ने सुमेरु के समान उन वृक्षों की प्रभा के कारण अपने को भी सब ओर से सुवर्णमय ही समझा ।।
४०.
वे सुवर्णमय वृक्ष समूह जब वायु के झोंके खा कर हिलने लगते, तब उनसे सैकड़ों घुँघुरुओं के बजने की-सी मधुर ध्वनि होती थी। वह सब देख कर हनुमान्जी को बड़ा विस्मय हुआ। उन वृक्षों की डालियों में सुन्दर फूल खिले हुए थे और नये-नये अंकुर तथा पल्लव निकले हुए थे, जिस से वे बड़े सुन्दर दिखायी देते थे ।।
श्लोक ४१ से ५० ।।
४१ से ४२.
महान् वेगशाली हनुमान्जी पत्तों से हरी-भरी उस शिंशपापर यह सोच कर चढ़ गये कि “मैं यहीं से श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिये उत्सुक हुइ उन विदेहनन्दिनी सीताजी को देखूँ गा, जो दुख से आतुर हो इच्छानुसार इधर-उधर जाती- आती होंगी” ।।
४३ से ४४.
“दुरात्मा रावण की यह अशोक वाटिका बड़ी ही रमणीय है। चन्दन, चम्पा और मौलसिरी के वृक्ष इस की शोभा बढ़ा रहे हैं। इधर यह पक्षियों से सेवित कमलमण्डित सरोवर भी बड़ा सुन्दर है। राजरानी जानकी इसके तट पर निश्चय ही आती होंगी” ।।
४५.
“रघुनाथजी की प्रियतमा राजरानी रामा सती साध्वी जानकीजी वन में घूमने-फिरने में बहुत कुशल हैं। वे अवश्य ही इधर आयेंगी” ।।
४६.
“ अथवा इस वन की विशेषताओं के ज्ञान में निपुण मृग शावकनयनी सीताजी आज यहाँ इस तालाब के तटवर्ती वन में अवश्य पधारें गी; क्योंकि वे श्रीरामचन्द्रजी के वियोग की चिन्ता से अत्यन्त दुबली हो गयी होंगी और इस सुन्दर स्थान में आने से उनकी चिन्ता कुछ कम हो सकेगी)” ।।
४७.
“सुन्दर नेत्रवाली देवी सीताजी भगवान् श्रीराम के विरह – शोक से बहुत ही संतप्त होंगी। वनवास में उन का सदा ही प्रेम रहा है, अतः वे वन में विचरती हुई इधर अवश्य आयेंगी” ।।
४८.
“श्रीराम की प्यारी पत्नी सती-साध्वी जनकनन्दिनी सीता पहले निश्चय ही वनवासी जन्तुओं से सदा प्रेम करती रही होंगी। (इसलिये उनके लिये वन में भ्रमण करना स्वाभाविक है, अतः यहाँ उन के दर्शन की सम्भावना है ही)” ।।
४९.
“यह प्रातःकाल की संध्या (उपासना) का समय है, इस में मन लगाने वाली और सदा सोलह वर्ष की सी अवस्था में रहने वाली अक्षययौवना जनककुमारी सुन्दरी सीताजी संध्याकालिक उपासना के लिये इस पुण्यसलिला नदी के तट पर अवश्य पधारें गी” ।।
५०.
“जो राजाधिराज श्रीरामचन्द्रजी की समादरणीया पत्नी हैं, उन शुभलक्षणा सीताजी के लिये यह सुन्दर अशोकवाटिका भी सब प्रकार से अनुकूल ही है” ।।
श्लोक ५१ से ५२ ।।
५१.
“यदि चन्द्रमुखी सीता देवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जल वाली सरिता के तट पर अवश्य पदार्पण करेंगी” ।।
५२.
ऐसा सोचते हुए महात्मा हनुमान्जी नरेन्द्रपत्नी सीताजी के शुभागमन की प्रतीक्षा में तत्पर हो सुन्दर फूलों से सुशोभित तथा घने पत्तों वाले उस अशोक वृक्ष पर छिपे रहकर उस सम्पूर्ण वन पर दृष्टिपात करते रहे ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 14 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
