14. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 14

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

चौदहवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

कैकेयी का राजा को सत्य पर दृढ़ रहने के लिये प्रेरणा देकर अपने वरों की पूर्ति के लिये दुराग्रह दिखाना, महर्षि वसिष्ठ का अन्तःपुर के द्वार पर आगमन और सुमन्त्र को महाराज के पाँस भेजना, राजा की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम को बुलाने के लिये जाना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
इक्ष्वाकुनन्दन राजा दशरथ पुत्र शोक से पीड़ित हो पृथ्वी पर अचेत पड़े थे और वेदना से छटपटा रहे थे, उन्हें इस अवस्था में देख कर पापिनी कैकेयी इस प्रकार बोली- ।।

२.
“महाराज! आप ने मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी और जब मैंने उन्हें माँगा, तब आप इस प्रकार सन्न हो कर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो कोई पाप कर के पछता रहे हों, यह क्या बात है ? आप को सत्पुरुषों की मर्यादा में स्थिर रहना चाहिये।” ।।

३.
“धर्मज्ञ पुरुष सत्य को ही सब से श्रेष्ठ धर्म बतलाते हैं, उस सत्य का सहारा ले कर मैंने आप को धर्म का पालन करने के लिये ही प्रेरित किया है।” ।।

४.
“पृथ्वी पति राजा शैब्य ने बाज पक्षी को अपना शरीर देने की प्रतिज्ञा कर के उसे दे ही दिया और दे कर उत्तम गति प्राप्त कर ली।” ।।

५.
“इसी प्रकार तेजस्वी राजा अलर्क ने वेदों के पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मण को उस के याचना करने पर मन में खेद न लाते हुए अपनी दोनों आँखें निकाल कर दे दी थीं।” ।।

६.
“सत्य को प्राप्त हुआ समुद्र सत्य का ही अनुसरण करने के कारण पर्व आदि के समय भी अपनी छोटी-सी सीमा तट- भूमि का भी उल्लङ्घन नहीं करता।” ।।

७.
“सत्य ही प्रणव रूप शब्द ब्रह्म है, सत्य में ही धर्म प्रतिष्ठित है, सत्य ही अविनाशी वेद है और सत्य से ही पर ब्रह्म की प्राप्ति होती है।” ।।

८.
“इस लिये यदि आप की बुद्धि धर्म में स्थित है तो सत्य का अनुसरण कीजिये। साधुशिरोमणे ! मेरा माँगा हुआ वह वर सफल होना चाहिये; क्यों कि आप स्वयम् ही उस वर के दाता हैं।” ।।

९.
“धर्म के ही अभीष्ट फल की सिद्धि के लिये तथा मेरी प्रेरणा से भी आप अपने पुत्र श्रीराम को घर से निकाल दीजिये। मैं अपने इस कथन को तीन बार दुहराती हूँ।” ।।

१०.
“आर्य! यदि मुझ से की हुई इस प्रतिज्ञा का आप पालन नहीं करें गे तो मैं आप से परित्यक्त (उपेक्षित) हो कर आप के सामने ही अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी।” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
इस प्रकार कैकेयी ने जब निःशङ्क हो कर राजा को प्रेरित किया, तब वे उस सत्य रूपी बन्धन को वैसे ही नहीं खोल सके उस बन्धन से अपने को उसी प्रकार नहीं मुक्त कर सके, जैसे राजा बलि इन्द्रप्रेरित वामन के पाश से अपने को मुक्त करने में असमर्थ हो गये थे ।।

१२.
दो पहियों के बीच में फँस कर वहाँ से निकलने की चेष्टा करने वाले गाड़ी के बैल की भाँति उन का हृदय उद्भ्रान्त हो उठा था और उन के मुख की कान्ति भी फीकी पड़ गयी थी ।।

१३.
अपने विकल नेत्रों से कुछ भी देखने में असमर्थ से हो कर भूपाल दशरथ ने बड़ी कठिनाइ से धैर्य धारण कर के अपने हृदय को सँम्भाला और कैकेयी से इस प्रकार कहा- ।।

१४.
“पापिनि! मैंने अग्नि के समीप ‘साङ्गुष्ठं ते गृभ्णामि सौभगत्वाय हस्तम्०' इत्यादि वैदिक मन्त्रका पाठ कर के तेरे जिस हाथ को पकड़ा था, उसे आज छोड़ रहा हूँ। साथ ही तेरे और अपने द्वारा उत्पन्न हुए तेरे पुत्र का भी त्याग करता हूँ।” ।।

१५.
“देवि! रात बीत गयी। सूर्योदय होते ही सब लोग निश्चय ही श्रीराम का राज्याभिषेक करने के लिये मुझे शीघ्रता करने को कहें गे।” ।।

१६.
“उस समय जो सामान श्रीराम के अभिषेक के लिये जुटाया गया है, उस के द्वारा मेरे मरने के बाद श्रीराम के हाथ से मुझे जलाञ्जलि दिलवा देना; परंतु अपने पुत्र सहित तू मेरे लिये जलाञ्जलि न देना।” ।।

१७ से १८.
“पापाचारिणि! यदि तू श्रीराम के अभिषेक में विघ्न डालेगी (तो तुझे मेरे लिये जलाञ्जलि देने का कोई अधिकार न होगा) । मैं पहले श्रीराम के राज्याभिषेक के समाचार से जो जन- समुदाय का हर्षोल्लास से परिपूर्ण उन्नत मुख देख चुका हूँ, वैसा देखने के पश्चात् आज पुनः उसी जनता के हर्ष और आनन्द से शून्य, नीचे लटके हुए मुखों को मैं नहीं देख सकूँगा।” ।।

१९.
महात्मा राजा दशरथ के कैकेयी से इस तरह की बातें करते-करते ही चन्द्रमा और नक्षत्र मालाओं से अलंकृत वह पुण्यमयी रजनी बीत गयी और प्रभात काल आ गया ।।

२०.
तदनन्तर बातचीत के मर्म को समझने वाली पापाचारिणी कैकेयी रोष से मूर्च्छित-सी हो कर पुनः कठोर वाणी में बोली - ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१ से २२.
“राजन्! आप विष और शूल आदि रोगों के समान कष्ट देने वाले ऐसे वचन क्यों बोल रहे हैं। (इन बातों से कुछ होने-जाने वाला नहीं है)। आप बिना किसी क्लेश के अपने पुत्र श्रीराम को यहाँ बुलवाये। मेरे पुत्र को राज्य पर प्रतिष्ठित कीजिये और श्रीराम को वन में भेज कर मुझे निष्कण्टक बनाइये; तभी आप कृत कृत्य हो सकें गे।” ।।

२३.
तीखे कोड़े की मार से पीड़ित हुए उत्तम अश्व की भाँति कैकेयी द्वारा बारंबार प्रेरित होने पर व्यथित हुए राजा दशरथ ने इस प्रकार कहा- ।।

२४.
“मैं धर्म के बन्धन में बँधा हुआ हूँ। मेरी चेतना लुप्त होती जा रही है। इस लिये इस समय मैं अपने धर्मपरायण परम प्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखना चाहता हूँ।” ।।

२५ से २६.
उधर जब रात बीती, प्रभात हुआ, सूर्यदेव का उदय हो गया और पुण्यनक्षत्र के योग में अभिषेक का शुभ मुहूर्त आ पहुँचा, उस समय शिष्यों से घिरे हुए शुभ गुण सम्पन्न महर्षि वसिष्ठ अभिषेक की आवश्यक सामग्रियों का संग्रह कर के शीघ्रता पूर्वक उस श्रेष्ठ पुरी में आये ।।

२७.
उस पुण्य वेला में अयोध्या की सड़कें झाड़-बुहार कर साफ की गयी थीं और उन पर जल का छिड़काव हुआ था। सारी पुरी उत्तम पताकाओं से सुशोभित हो रही थी । वहाँ के सभी मनुष्य हर्ष और उत्साह से भरे हुए थे। बाजार और दूकानें इस तरह सजी हुई थीं कि उनकी समृद्धि देखते ही बनती थी ।।

२८.
सब ओर महान् उत्सव हो रहा था। सारी नगरी श्रीरामचन्द्रजी के अभिषेक के लिये उत्सुक हो रही थी। चारों ओर चन्दन, अगर और धूप की सुगन्ध व्याप्त हो रही थी ।।

२९.
इन्द्र नगरी अमरावती के समान शोभा पाने वाली उस पुरी को पार कर के श्रीमान् वसिष्ठजी ने राजा दशरथ के अन्तःपुर का दर्शन किया। जहाँ सहस्त्रों ध्वजाएँ फहरा रही थीं ।।

३०.
नगर और जन पद के लोग वहाँ भरे हुए थे। बहुत से ब्राह्मण उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे। छड़ीदार राजसेवक तथा सजे सजाये सुन्दर घोड़े वहाँ अधिक संख्या में उपस्थित थे ।।

श्लोक ३१ से ४१ ।।

३१.
श्रेष्ठ महर्षियों से घिरे हुए वसिष्ठजी परम प्रसन्न हो उस अन्तः पुर में पहुँच कर उस जन- समुदाय को लाँघ कर आगे बढ़ गये ।।

३२.
वहाँ उन्हों ने महाराज के सुन्दर सचिव तथा सारथि सुमन्त्र को अन्तः पुर के द्वार पर उपस्थित देखा, जो उसी समय भीतर से निकले थे ।।

३३.
तब महातेजस्वी वसिष्ठजी ने परम चतुर सूतपुत्र सुमन्त्र से कहा- “सूत! तुम महाराज को शीघ्र ही मेरे आगमन की सूचना दो।” ।।

३४.
“(उन्हें बताओ कि श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये सारी सामग्री एकत्र कर ली गयी है) ये गङ्गाजल से भरे कलश रखे हैं, इन सोने के कलशों में समुद्रों से लाया हुआ जल भरा हुआ है। यह लकी लकड़ी का बना हुआ भद्रपीठ है, जो अभिषेक के लिये लाया गया है (इसी पर बिठा कर श्रीराम का अभिषेक होगा)” ।।

३५ से ४१.
“सब प्रकार के बीज, गन्ध, भाँति-भाँति के रत्न, मधु, दही, घी, लावा या खील, कुश, फूल, दूध, आठ सुन्दर कन्याएँ, मत्त गजराज, चार घोड़ों वाला रथ, चमचमाता हुआ खड्ग, उत्तम धनुष, मनुष्यों द्वारा ढोयी जाने वाली सवारी (पालकी आदि), चन्द्रमा के समान श्वेत छत्र, सफेद चँवर, सोने की झारी, सुवर्ण की माला से अलंकृत ऊँचे डील वाला श्वेत पीत वर्ण का वृषभ, चार दाढ़ों वाला सिंह, महा बलवान् उत्तम अश्व, सिंहासन, व्याघ्र चर्म, समिधाएँ, अग्नि, सब प्रकार के बाजे, वाराङ्गनाएँ, श्रृङ्गारयुक्त सौभाग्यवती स्त्रियाँ, आचार्य, ब्राह्मण, गौ, पवित्र पशु-पक्षी, नगर और जनपद के श्रेष्ठ पुरुष अपने सेवक – गणों सहित प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्यापारी – ये तथा और भी बहुत-से प्रिय वादी मनुष्य बहुसंख्यक राजाओं के साथ प्रसन्नता पूर्वक श्रीराम के अभिषेक के लिये यहाँ उपस्थित हैं।” ।।

श्लोक ४२ से ५० ।।

४२.
“तुम महाराज से शीघ्रता करने के लिये कहो, जिस से अब सूर्योदय के पश्चात् पुष्यनक्षत्र के योग में श्रीराम राज्य प्राप्त कर लें।” ।।

४३.
वसिष्ठजी के ये वचन सुन कर महाबली सूतपुत्र सुमन्त्र ने राजसिंह दशरथ की स्तुति करते हुए उन के भवन में प्रवेश किया ।।

४४.
राजा का प्रिय करने की इच्छा रखने वाले और उन के द्वारा सम्मानित द्वारपाल उन बूढ़े सचिव को भीतर जाने से रोक न सके; क्यों कि उन के लिये पहले से ही महाराज की आज्ञा थी कि ये किसी समय भी भीतर आने से रोके न जायँ ।।

४५.
सुमन्त्र राजा के पास जा कर खड़े हो गये। उन्हें उन की उस अवस्था का पता नहीं था; इस लिये वे अत्यन्त संतोष दायक वचनों द्वारा उन की स्तुति करने को उद्यत हुए ।।

४६.
सूत सुमन्त्र राजा के उस महल में पहले की ही भाँति हाथ जोड़ कर उन महाराज की स्तुति करने लगे - ।।

४७.
“महाराज! जैसे सूर्योदय होने पर तेजस्वी समुद्र स्वयम् हर्ष की तरंगों से उल्लसित हो उस में स्नान की इच्छा वाले मनुष्यों को आनन्दित करता है, उसी प्रकार आप स्वयम् प्रसन्न हो प्रसन्नता पूर्ण हृदय से हम सेवकों को आनन्द प्रदान कीजिये।” ।।

४८.
“देवसारथि मातलि ने इसी बेला में देवराज इन्द्र की स्तुति की थी, जिस से उन्हों ने समस्त दानवों पर विजय प्राप्त कर ली, उसी प्रकार मैं भी स्तुति वचनों द्वारा आप को जगा रहा हूँ।” ।।

४९.
“छहों अङ्ग सहित चारों वेद तथा समस्त विद्याएँ जैसे स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा को जगाती हैं, उसी प्रकार आज मैं आप को जगा रहा हूँ।” ।।

५०.
“जैसे चन्द्रमा के साथ सूर्य समस्त भूतों की आधार भूता इस शुभ-स्वरूपा पृथ्वी को जगाया करते हैं, उसी प्रकार आज मैं आप को जगा रहा हूँ।” ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
“महाराज! उठिये और उत्सव कालिक मङ्गल कृत्य पूर्ण कर के वस्त्राभूषणों से सुशोभित शरीर से सिंहासन पर विराजमान होइये। फिर मेरु पर्वत से ऊपर उठने वाले सूर्यदेव के समान आप की शोभा होती रहे।” ।।

५२.
“ककुत्स्थकुलनन्दन! चन्द्रमा, सूर्य, शिव, कुबेर, वरुण, अग्नि और इन्द्र आप को विजय प्रदान करें!” ।।

५३.
“राजसिंह! भगवती रात्रिदेवी विदा हो गयीं। आप ने जिस के लिये आज्ञा दी थी, आप का वह सारा कार्य पूर्ण हो गया। इस बात को आप जान लें और इस के बाद जो अभिषेक का कार्य शेष है, उसे पूर्ण करें।” ।।

५४.
“श्रीराम के अभिषेक की सारी तैयारी हो चुकी है। नगर और जनपद के लोग तथा मुख्य- मुख्य व्यापारी भी हाथ जोड़े हुए उपस्थित हैं।”

५५.
“राजन्! ये भगवान् वसिष्ठ मुनि ब्राह्मणों के साथ द्वार पर खड़े हैं; अतः श्रीराम के अभिषेक का कार्य आरम्भ करने के लिये शीघ्र आज्ञा दीजिये।” ।।

५६.
“जैसे चरवाहों के बिना पशु, सेनापति के बिना सेना, चन्द्रमा के बिना रात्रि और साँड़ के बिना की शोभा नहीं होती, ऐसी ही दशा उस राष्ट्र की हो जाती है, जहाँ राजा का दर्शन नहीं होता है।” ।।

५७.
सुमन्त्र के इस प्रकार कहे हुए सान्त्वना पूर्ण और सार्थक वचनो को सुन कर राजा दशरथ पुनः शोक से ग्रस्त हो गये ।।

५८ से ५९.
उस समय पुत्र के वियोग की सम्भावना से उन की प्रसन्नता नष्ट हो चुकी थी । शोक के कारण उन के नेत्र लाल हो गये थे । उन धर्मात्मा श्रीमान् नरेश ने एक बार दृष्टि उठा कर सूत की ओर देखा और इस प्रकार कहा— "तुम ऐसी बातें सुना कर मेरे मर्म स्थानों पर और अधिक आघात क्यों कर रहे हो?” ।।

६०.
राजा के ये करुण वचन सुन कर और उन की दीन दशा पर दृष्टिपात कर के सुमन्त्र हाथ जोड़े हुए उस स्थान से कुछ पीछे हट गये ।।

श्लोक ६१ से ६९ ।।

६१.
जब दुख और दीनता के कारण राजा स्वयम् कुछ भी न कह सके, तब मन्त्रणा का ज्ञान रखने वाली कैकेयी ने सुमन्त्र को इस प्रकार उत्तर दिया- ।।

६२.
“सुमन्त्र! राजा रात भर श्रीराम के राज्याभिषेक जनित हर्ष के कारण उत्कण्ठित हो कर जागते रहे हैं। अधिक जागरण से थक जाने के कारण इस समय इन्हें नींद आ गयी है।” ।।

६३.
“अतः सूत! तुम्हारा भला हो। तुम तुरंत जाओ और यशस्वी राजकुमार श्रीराम को यहाँ बुला लाओ। इस विषय में तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।” ।।

६४.
तब सुमन्त्र ने कहा- “भामिनि ! मैं महाराज की आज्ञा सुने बिना कैसे जा सकता हूँ?" मन्त्री की बात सुन कर राजा ने उन से कहा – ।।

६५.
“सुमन्त्र! मैं सुन्दर श्रीराम को देखना चाहता हूँ। तुम शीघ्र उन्हें यहाँ ले आओ।' उस समय श्रीराम के दर्शन से ही कल्याण मानते हुए राजा मन ही मन आनन्द का अनुभव करने लगे ।।

६६.
इधर सुमन्त्र राजा की आज्ञा से तुरंत प्रसन्नता पूर्वक वहाँ से चल दिये। कैकेयी ने जो तुरंत श्रीराम को बुला लाने की आज्ञा दी थी, उसे याद कर के वे सोचने लगे- “पता नहीं, यह उन्हें बुलाने के लिये इतनी जल्दी क्यों मचा रही है?” ।।

६७ से ६८.
“जान पड़ता है, श्रीरामचन्द्र के अभिषेक के लिये ही यह जल्दी कर रही है। इस कार्य में धर्मराज राजा दशरथ को अधिक आयास करना पड़ता है (शायद इसी लिये ये बाहर नहीं निकलते)” ऐसा निश्चय कर के महातेजस्वी सूत सुमन्त्र फिर बड़े हर्ष के साथ श्रीराम के दर्शन की इच्छा से चल पड़े। समुद्र के अन्तर्वर्ती जलाशय के समान उस सुन्दर अन्तःपुर से निकल कर सुमन्त्र ने द्वार के सामने मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई देखी ।।

६९.
राजा के अन्तःपुर से सहसा निकल कर सुमन्त्र ने द्वार पर एकत्र हुए लोगों की ओर दृष्टिपात किया। उन्हों ने देखा, बहुसंख्यक पुरवासी वहाँ उपस्थित थे और अनेकानेक महा धनी पुरुष राज द्वार पर आ कर खड़े थे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १४॥

Sarg 14 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.