13. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 13

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।

तेरहवाँ सर्ग – ६९ श्लोक ।।

सारांश ।।

सीताजी के नाश की आशंका से हनुमान्जी की चिन्ता, श्रीराम को सीताजी के न मिलने की सूचना देने से अनर्थ की सम्भावना देख हनुमान्जी का ना लौटने का निश्चय करके पुनः खोजने का विचार करना और अशोक वाटिका में ढूँढ़ने के विषय में तरह- तरह की बातें सोचना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
वानर यूथपति हनुमान्जी विमान से उतर कर महल के परकोटे पर चढ़ आये। वहाँ आकर वे मेघमाला के अंक में चमकती हुई बिजली के समान बड़े वेग से इधर-उधर घूमने लगे ।।

२.
रावण के सभी घरों में एक बार पुनः चक्कर लगा कर जब कपिवर हनुमान्जी ने जनकनन्दिनी सीताजी को नहीं देखा, तब वे मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे - ।।

३.
“ मैंने श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करने के लिये कई बार लंका को छान डाला है; किंतु सर्वांग सुन्दरी विदेहनन्दिनी सीताजी मुझे कहीं नहीं दिखायी देती हैं” ।।

४.
“मैंने यहाँके छोटे तालाब, पोखरे, सरोवर, सरिताएँ, नदियाँ, पानी के आस-पास के जंगल तथा दुर्गम पहाड़, सब देख डाले हैं। इस नगर के आस - पासकी सारी भूमि खोज डाली है; किंतु कहीं भी मुझे जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ” ।।

५.
“गृध्रराज सम्पाति ने तो सीताजी को यहाँ रावण के महल में ही बताया था। फिर भी नाजाने क्यों वे यहाँ दिखायी नहीं देती हैं” ।।

६.
“क्या रावण के द्वारा बल पूर्वक हर कर लायी हुई विदेहकुलनन्दिनी मिथिलेशकुमारी जनकदुलारी सीताजी कभी विवश हो कर रावण की सेवा में उपस्थित हो सकती हैं (यह असम्भव है)” ।।

७.
“मैं तो समझ्ता हूँ कि श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से भयभीत हो वह राक्षस जब सीताजी को ले कर शीघ्रता पूर्वक आकाश में उछला है, उस समय कहीं बीच में ही वे छूट कर गिर पड़ी हों” ।।

८.
“ अथवा यह भी सम्भव है कि जब आर्या सीताजी सिद्धसेवित आकाश मार्ग से ले जायी जा रही हों, उस समय समुद्र को देख कर भय के कारण उन का हृदय ही फट कर नीचे गिर पड़ा हो” ।।

९.
“अथवा यह भी मालूम होता है कि रावण के प्रबल वेग और उस की भुजाओं के दृढ़ बन्धन से पीड़ित होकर विशाल लोचना आर्या सीताजी ने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया हो” ।।

१०.
“ऐसा भी हो सकता है कि जिस समय रावण उन्हें समुद्र के ऊपर हो कर ला रहा हो, उस समय जनककुमारी सीताजी छटपटा कर समुद्र में गिर पड़ी हों। अवश्य ऐसा ही हुआ होगा” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११ से १२.
“अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि अपने शील की रक्षा में तत्पर हुई किसी सहायक बन्धु की सहायता से वञ्चित तपस्विनी सीताजी को इस नीच रावण ने ही खा लिया हो अथवा मन में दुष्ट भावना रखने वाली राक्षसराज रावण की पत्नियों ने ही कजरारे नेत्रों वाली साध्वी सीताजी को अपना आहार बना लिया होगा” ।।

१३.
“हाय! श्रीरामचन्द्रजी के पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर तथा प्रफुल्ल कमलदल के सदृश नेत्रों वाले मुख का चिन्तन करती हुई दयनीया सीताजी इस संसार से चल बसीं।। हों” ।।

१४.
“हा राम! हा लक्ष्मण! हा अयोध्यापुरी! इस प्रकार पुकार – पुकार कर बहुत विलाप करके मिथिलेशकुमारी विदेहनन्दिनी सीताजी ने अपने शरीर को त्याग दिया होगा” ।।

१५.
“अथवा मेरी समझ में यह आता है कि वे रावण के ही किसी गुप्तगृह में छिपा कर रखी गयी हैं। हाय! वहाँ वह बाला पिंजरे में बन्द हुई मैना की तरह बारम्बार आर्तनाद करती होगी” ।।

१६.
“जो जनकजी के कुल में उत्पन्न हुई हैं और श्रीरामचन्द्रजी की धर्मपत्नी हैं, वे नील कमल के- से नेत्रों वाली सुमध्यमा सीताजी रावण के अधीन कैसे हो सकती हैं?” ।।

१७.
“जनककिशोरी सीताजी चाहे गुप्तगृह में अदृश्य कर के रखी गयी हों, चाहे समुद्र में गिर कर प्राणों से हाथ धो बैठी हों अथवा श्रीरामचन्द्रजी के विरह का कष्ट ना सह सकने के कारण उन्हों ने मृत्यु की शरण ले ली हो, किसी भी दशा में श्रीरामचन्द्रजी को इस बात की सूचना देना उचित नहीं होगा; क्योंकि वे अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते हैं” ।।

१८.
“इस समाचार के बताने में भी दोष है और ना बताने में भी दोष की सम्भावना है, ऐसी दशा में किस उपाय से काम लेना चाहिये ? मुझे तो बताना और ना बताना दोनों ही दुष्कर प्रतीत होते हैं” ।।

१९.
“ऐसी दशा में जब कोई भी कार्य करना दुष्कर प्रतीत होता है, तब मेरे लिये इस समय के अनुसार क्या करना उचित होगा?” इन्हीं बातों पर हनुमान्जी बारम्बार विचार करने लगे ।।

२०.
(उन्होंने फिर सोचा) – “यदि मैं सीताजी को देखे बिना ही यहाँ से वानरराज की पुरी किष्किन्धा को लौट जाऊँगा तो मेरा पुरुषार्थ ही क्या रह जायगा ?” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“फिर तो मेरा यह समुद्रलंघन, लंका में प्रवेश और राक्षसों को देखना सब व्यर्थ हो जायगा” ।।

२२.
“किष्किन्धा में पहुँचने पर मुझसे मिलकर सुग्रीव, दूसरे दूसरे वानर तथा वे दोनों दशरथ राजकुमार भी क्या कहेंगे?” ।।

२३.
“यदि वहाँ जाकर मैं श्रीरामचन्द्रजी से यह कठोर बात कह दूँ कि मुझे सीताजी का दर्शन नहीं हुआ तो वे प्राणों का परित्याग कर देंगे” ।।

२४.
“सीताजी के विषय में ऐसे रूखे, कठोर, तीखे और इन्द्रियों को संताप देनेवाले दुर्वचन को सुन कर वे कदापि जीवित नहीं रहेंगे” ।।

२५.
“उन्हें संकट में पड़ कर प्राणों के परित्याग का संकल्प करते देख उन के प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले बुद्धिमान् लक्ष्मणजी भी जीवित नहीं रहेंगे” ।।

२६.
“अपने इन दो भाइयों के विनाश का समाचार सुनकर भरतजी भी प्राण त्याग देंगे और भरतजी की मृत्यु देख कर शत्रुघ्न भी जीवित नहीं रह सकेंगे” ।।

२७.
“इस प्रकार चारों पुत्रों की मृत्यु हुई देख कर कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी – ये तीनों माताएँ भी निस्संदेह प्राण त्याग देंगी” ।।

२८.
“कृतज्ञ और सत्यप्रतिज्ञ वानरराज सुग्रीव भी जब श्रीरामचन्द्रजी को ऐसी अवस्था में देखें गे तो स्वयं भी प्राण विसर्जन कर देंगे” ।।

२९.
“तत्पश्चात् पति शोक से पीड़ित हो दुखित चित्त, दीन, व्यथित और आनन्दशून्य हुई तपस्विनी रुमा भी जान दे देगी” ।।

३०.
“फिर तो रानी तारा भी जीवित नहीं रहेंगी। वे वाली के विरह जनित दुख से तो पीड़ित थीं ही इस नूतन शोक से कातर हो शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
“माता-पिता के विनाश और सुग्रीव के मरणजनित संकट से पीड़ित हो कुमार अंगद भी अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे” ।।

३२ से ३३.
“तदनन्तर, स्वामी के दुख से पीड़ित हुए सारे वानर अपने हाथों और मुक्कों से सिर पीटने लगेंगे। यशस्वी वानर राज ने सान्त्वना पूर्ण वचनों और दान – मान से जिनका लालन-पालन किया था, वे वानर अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे” ।।

३४.
“ऐसी अवस्था में शेष वानर वनों, पर्वतों और गुफाओं में एकत्र हो कर फिर कभी क्रीड़ा- विहार का आनन्द नहीं लेंगे” ।।

३५.
“अपने राजा के शोक से पीड़ित हो सब वानर अपने पुत्र, स्त्री और मन्त्रियों सहित पर्वतों के शिखरों से नीचे सम अथवा विषम स्थानों में गिर कर प्राण दे देंगे” ।।

३६.
“ अथवा सारे विष पी लेंगे या फांसी लगा लेंगे या जलती आग में प्रवेश कर जायेंगे। उपवास करने लगेंगे अथवा अपने ही शरीर में छुरा भोंक लेंगे” ।।

३७.
“मेरे वहाँ जाने पर मैं समझता हूँ बड़ा भयंकर आर्तनाद होने लगेगा। इक्ष्वाकु कुल का नाश और वानरों का भी विनाश हो जायगा” ।।

३८.
“इस लिये मैं यहाँ से किष्किन्धापुरी को तो नहीं जाऊँगा । मिथिलेशकुमारी सीताजी को देखे बिना मैं सुग्रीव का भी दर्शन नहीं कर सकूंगा” ।।

३९.
“यदि मैं यहीं रहूँ और वहाँ न जाऊँ तो मेरी आशा लगाये वे दोनों धर्मात्मा महारथी बन्धु प्राण धारण किये रहेंगे और वे वेगशाली वानर भी जीवित रहेंगे” ।।

४०.
“जानकीजी का दर्शन न मिलने पर मैं यहाँ वान प्रस्थी हो जाऊँगा। मेरे हाथ पर अपने-आप जो फल आदि खाद्य वस्तु प्राप्त हो जायगी, उसी को खा कर रहूँगा या परेच्छासे मेरे मुँह में जो फल आदि खाद्य वस्तु पड़ जायगी, उसी से निर्वाह करूँगा तथा शौच, संतोष आदि नियमों के पालन पूर्वक वृक्ष के नीचे निवास करूँगा” ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
“अथवा सागरतट वर्ती स्थान में, जहाँ फल- मूल और जल की अधिकता होती है, मैं चिता बना कर जलती हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा” ।।

४२.
“अथवा आमरण उपवासके लिये बैठकर लिंगशरीरधारी जीवात्माका शरीरसे वियोग कराने के प्रयत्नमें लगे हुए मेरे शरीरको कौवे तथा हिंसक जन्तु अपना आहार बना लेंगे” ।।

४३.
“यदि मुझे जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ तो मैं खुशी-खुशी जल समाधि ले लूँगा। मेरे विचार से इस तरह जल-प्रवेश कर के परलोक गमन करना ऋषियों की दृष्टि में भी उत्तम ही है” ।।

४४.
“ जिसका प्रारम्भ शुभ है, ऐसी सुभगा, यशस्विनी और मेरी कीर्ति माला रूपा यह दीर्घ रात्रि भी सीताजी को देखे बिना ही बीत चली है” ।।

४५.
“ अथवा, अब मैं नियम पूर्वक वृक्ष के नीचे निवास करने वाला तपस्वी हो जाऊँगा; किंतु उस असितलोचना सीताजी को देखे बिना यहाँ से कदापि नहीं लौटूं गा” ।।

४६.
“यदि सीताजी का पता लगाये बिना ही मैं लौट जाऊँ तो समस्त वानरों सहित अंगद जीवित नहीं रहेंगे” ।।

४७.
“इस जीवन का नाश कर देने में बहुत-से दोष हैं। जो पुरुष जीवित रहता है, वह कभी-न- कभी अवश्य कल्याण का भागी होता है; अतः मैं इन प्राणों को धारण किये रहूँगा। जीवित रहने पर अभीष्ट वस्तु अथवा सुख की प्राप्ति अवश्य म्भावी है” ।।

४८.
इस तरह मन में अनेक प्रकार के दुख धारण किये कपिकुञ्जर हनुमान्जी शोक का पार न पा सके ।।

४९.
तदनन्तर, धैर्यवान् कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी ने पराक्रम का सहारा ले कर सोचा- “अथवा महाबली दशमुख रावण का ही वध क्यों न कर डालूँ। भले ही सीताजी का अपहरण हो गया हो, इस रावण को मार डालने से उस वैर का भरपूर बदला सध जाय गा” ।।

५०.
“अथवा इसे उठा कर समुद्र के ऊपर-ऊपर से ले जाऊँ और जैसे पशुपति (रुद्र या अग्निरु)- को पशु अर्पित किया जाय, उसी प्रकार श्रीरामजी के हाथ में इस को सौंप दूँ” ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
इस प्रकार सीताजी को न पा कर वे चिन्ता में निमग्नरु हो गये। उन का मन सीताजी के ध्यान और शोक में डूब गया। फिर वे वानर वीर इस प्रकार विचार करने लगे - ।।

५२.
“जब तक मैं यशस्विनी श्रीरामजी की पत्नी सीताजी का दर्शन न कर लूँगा, तब तक इस लंकापुरी में बारंबार उनकी खोज करता रहूँगा” ।।

५३.
‘यदि सम्पाति के कहने से भी मैं श्रीरामजी को यहाँ बुला ले आऊँ तो अपनी पत्नी को यहाँ न देखने पर श्री रघुनाथजी समस्त वानरों को जला कर भस्म कर देंगे” ।।

५४.
“अतः, यहीं नियमित आहार और इन्द्रियों के संयम पूर्वक निवास करूँ गा। मेरे कारण वे समस्त नर और वानर नष्ट न हों” ।।

५५.
“इधर यह बहुत बड़ी अशोक वाटिका है, इसके भीतर बड़े-बड़े वृक्ष हैं। इसमें मैंने अभी तक अनुसंधान नहीं किया है, अतः, अब इसी में चल कर ढूँढूँ गा” ।।

५६.
“राक्षसों के शोक को बढ़ाने वाला मैं यहाँ से वसु, रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार और मरुद्गणों को नमस्कार करके अशोक वाटिका में चलूँगा” ।।

५७.
“वहाँ समस्त राक्षसों को जीत कर जैसे तपस्वी को सिद्धि प्रदान की जाती है, इसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के हाथ में इक्ष्वाकुकुल को आनन्दित करने वाली देवी सीताजी को सौंप दूंगा” ।।

॥५८ से ५९.
इस प्रकार दो घड़ी तक सोच-विचार कर चिन्ता से शिथिल इन्द्रियों वाले महाबाहु पवनकुमार हनुमान्जी सहसा उठकर खड़े हो गये ( और देवताओं को नमस्कार करते हुए बोले- ) “लक्ष्मण सहित श्रीरामजी को नमस्कार है, जनकनन्दिनी सीता देवी को भी नमस्कार है। रुद्र, इन्द्र, यम और वायुदेवता को नमस्कार है तथा चन्द्रमा, अग्निरु एवम् मरुद्रणों को भी नमस्कार है” ।।

६०.
इस प्रकार उन सब को तथा सुग्रीवजी को भी नमस्कार करके पवनकुमार हनुमान्जी सम्पूर्ण दिशाओं की ओर दृष्टिपात करके अशोक वाटिका में जाने को उद्यत हुए ।।

श्लोक ६१ से ६९ ।।

६१.
उन वानरवीर पवनकुमार ने पहले मन के द्वारा ही उस सुन्दर अशोक वाटिका में जा कर भावी कर्तव्य का इस प्रकार चिन्तन किया ।।

६२.
“वह पुण्यमयी अशोक वाटिका सींचने - कोड़ने आदि सब प्रकार के संस्कारों से सँवारी गयी है। वह दूसरे दूसरे वनों से भी घिरी हुई है; अतः, उसकी रक्षा के लिये वहाँ निश्चय ही बहुत-से राक्षस तैनात किये गये होंगे” ।।

६३.
“राक्षसराज के नियुक्त किये हुए रक्षक अवश्य ही वहाँ के वृक्षों की रक्षा करते होंगे; इसलिये जगत के प्राण स्वरूप भगवान् वायुदेव भी वहाँ अधिक वेग से नहीं बहते होंगे” ।।

६४.
“मैंने श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि तथा रावण से अदृश्य रहने के लिये अपने शरीर को संकुचित करके छोटा बना लिया है। मुझे इस कार्य में ऋषियों सहित समस्त देवता सिद्धि- सफलता प्रदान करें” ।।

६५.
“स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा, अन्य देवगण, तपोनिष्ठ महर्षि, अग्निदेव, वायु तथा वज्रधारी इन्द्र भी मुझे सफलता प्रदान करें” ।।

६६ से ६७.
“पाशधारी वरुण, सोम, आदित्य, महात्मा अश्विनीकुमार, समस्त मरुद्गण, सम्पूर्ण भूत और भूतोंके अधिपति तथा और भी जो मार्ग में दिखनेवाले एवम् न दिखनेवाले देवता हैं, वे सब मुझे सिद्धि प्रदान करेंगे” ।।

६८.
“जिसकी नाक ऊँची और दाँत सफेद हैं, जिसमें चेचक आदि के दाग नहीं हैं, जहाँ पवित्र मुसकान की छटा छायी रहती है, जिसके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान सुशोभित होते हैं तथा जो निष्कलंक कलाधर के तुल्य कमनीय कान्ति से युक्त है, वह आर्या सीताजी का मुख मुझे कब दिखायी देगा ?” ।।

६९.
“इस क्षुद्र, नीच, नृशंसरूपधारी और अत्यन्त दारुण होने पर भी अलंकार युक्त विश्वसनीय वेष धारण करने वाले रावण ने उस तपस्विनी अबला को बलात् अपने अधीन कर लिया है। अब किस प्रकार वह मेरे दृष्टि पथ में आ सकती हैं?” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥

Sarg 13 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.