14. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 14
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।
चौदहवाँ सर्ग – २२ श्लोक ।।
सारांश ।।
वाली वध के लिये श्रीराम का आश्वासन पाकर सुग्रीव की विकट गर्जना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
वे सब लोग शीघ्रता पूर्वक वाली की किष्किन्धापुरी में पहुँच कर एक गहन वन में वृक्षों की ओट में अपने-आप को छिपा कर खड़े हो गये॥ ।।
२.
वन के प्रेमी विशाल ग्रीवा वाले सुग्रीव ने उस वन में चारों ओर दृष्टि दौड़ायी और अपने मन में अत्यन्त क्रोध का संचय किया॥ ।।
३.
तदनन्तर अपने सहायकों से घिरे हुए उन्हों ने अपने सिंहनाद से आकाश को फाड़ते हुए-से घोर गर्जना की और वाली को युद्ध के लिये ललकारा॥ ।।
४.
उस समय सुग्रीव वायु के वेग के साथ गर्जते हुए महामेघ के समान जान पड़ते थे। अपनी अङ्गकान्ति और प्रताप के द्वारा प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होते थे। उनकी चाल दर्प भरे सिंह के समान प्रतीत होती थी॥ ।।
५ से ६.
कार्यकुशल श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख कर सुग्रीव ने कहा- “भगवन्! वाली की यह किष्किन्धापुरी तपाये हुए सुवर्ण के द्वारा निर्मित नगर द्वार से सुशोभित है। इस में सब ओर वानरों का जाल-सा बिछा हुआ है तथा यह ध्वजों और यन्त्रों से सम्पन्न है। हम सब लोग इस पुरी में आ पहुँचे हैं। वीर! आप ने पहले वाली-वध के लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अब शीघ्र सफल कीजिये। ठीक उसी तरह जैसे आया हुआ अनुकूल समय लता को फल-फूल से सम्पन्न कर देता है।”। ।।
७.
सुग्रीव के ऐसा कहने पर शत्रुसूदन धर्मात्मा श्री रघुनाथजी ने फिर अपनी पूर्वोक्त बात को दुहराते हुए ही सुग्रीव से कहा- ।।
८ से ९.
“वीर! अब तो इस गजपुष्पी लता के द्वारा तुम ने अपनी पहचान के लिये चिह्न धारण कर ही लिया है। लक्ष्मण ने इसे उखाड़ कर तुम्हारे कण्ठ में पहना ही दिया है। तुम कण्ठ में धारण की हुइ इस लता के द्वारा बड़ी शोभा पा रहे हो। यदि आकाश में यह विपरीत घटना हो कि सूर्यमण्डल नक्षत्र माला से घिर जाय तभी इस कण्ठ-लम्बिनी लता से सुशोभित होने वाले तुम्हारी उस सूर्य से तुलना हो सकती है।”॥ ।।
१०.
“वानरराज! आज मैं वाली से उत्पन्न हुए तुम्हारे भय और वैर दोनों को युद्धस्थल में एक ही बार बाण छोड़ कर मिटा दूँगा।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“सुग्रीव! तुम मुझे अपने उस भ्रातारूपी शत्रु को दिखा तो दो। फिर वाली मारा जा कर वन के भीतर धूल में लोटता दिखायी देगा।” ।।
१२.
“यदि मेरी दृष्टि में पड़ जाने पर भी वह जीवित लौट जाय तो तुम मुझे दोषी समझना और तत्काल जी भर कर मेरी निन्दा करना।” ।।
१३.
“तुम्हारी आँखों के सामने मैंने अपने एक ही बाण से साल के सात वृक्ष विदीर्ण किये थे, मेरे उसी बल से आज समराङ्गण में (एक बाण से ही) तुम वाली को मारा गया समझो।” ।।
१४ से १५.
“बहुत समय से संकट झेलते रहने पर भी मैं कभी झूठ नहीं बोला हूँ। मेरे मन में धर्म का लोभ है। इस लिये किसी तरह मैं झूठ तो बोलूँगा ही नहीं। साथ ही अपनी प्रतिज्ञा को भी अवश्य सफल करूँगा। अतः तुम भय और घबराहट को अपने हृदय से निकाल दो।” ।।
१६.
“जैसे इन्द्र वर्षा कर के उगे हुए धान के खेत को फल से सम्पन्न करते हैं, उसी तरह मैं भी बाण का प्रयोग कर के वाली के वध द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा। इस लिये सुग्रीव! तुम सुवर्ण माला धारी वाली को बुलाने के लिये इस समय ऐसी गर्जना करो, जिस से तुम्हारा सामना करने के लिये वह वानर नगर से बाहर निकल आये।” ।।
१७.
“वह अनेक युद्धों में विजय पा कर विजयश्री से सुशोभित हुआ है। सब पर विजय पाने की इच्छा रखता है और उस ने कभी तुम से हार नहीं खायी है। इस के अलावे युद्ध से उस का बड़ा प्रेम है, अतः वाली कहीं भी आसक्त न हो कर नगर के बाहर अवश्य निकलेगा।”
१८.
“क्योंकि अपने पराक्रम को जानने वाले वीर पुरुष, विशेषतः स्त्रियों के सामने, युद्ध के लिये शत्रुओं के तिरस्कारपूर्ण शब्द सुन कर कदापि सहन नहीं करते हैं।” ।।
१९.
श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुन कर सुवर्ण के समान पिङ्गल वर्ण वाले सुग्रीव ने आकाश को विदीर्ण-सा करते हुए कठोर स्वर में बड़ी भयंकर गर्जना की॥ ।।
२०.
उस सिंहनाद से भयभीत हो बड़े-बड़े बैल शक्तिहीन हो राजा के दोष से परपुरुषों द्वारा पकड़ी जाने वाली कुलाङ्गनाओं के समान व्याकुल चित्त हो सब ओर भाग चले॥ ।।
श्लोक २१ से २२ ।।
२१.
मृग युद्धस्थल में अस्त्र-शस्त्रों की चोट खा कर भागे हुए घोड़ों के समान तीव्र गति से भागने लगे और पक्षी जिन के पुण्य नष्ट हो गये हैं, ऐसे ग्रहों के समान आकाश से पृथ्वी पर गिरने लगे। ।।
२२.
तदनन्तर जिन का सिंहनाद मेघ की गर्जना के समान गम्भीर था और शौर्य के द्वारा जिन का तेज बढ़ा हुआ था , वे सुविख्यात सूर्यकुमार सुग्रीव बढी उतावली के साथ बारंबार गर्जना करने लगे , मानो वायु के वेग से चञ्चल हुइ उत्ताल तरङ्ग – मालाओं से सुशोभित सरिताओं का स्वामी समुद्र कोलाहल कर रहा हो। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 14 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
