13. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 13
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।
तेरहवाँ सर्ग – ३० श्लोक ।।
सारांश ।।
श्रीराम आदि का मार्ग में वृक्षों , विविध जन्तुओं , जलाशयों तथा सप्तजन आश्रम का दूर से दर्शन करते हुए पुनः किष्किन्धापुरी में पहुँचना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १२ ।।
१.
लक्ष्मण के बड़े भाई धर्मात्मा श्रीराम सुग्रीव को साथ ले कर पुनः ऋष्यमूक से उस किष्किन्धापुरी की ओर चले, जो वाली के पराक्रम से सुरक्षित थी। ।।
२.
अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुष को उठा कर और युद्ध में सफलता दिखाने वाले सूर्यतुल्य तेजस्वी बाणों को ले कर श्रीराम वहाँ से प्रस्थित हुए। ।।
३.
महात्मा रघुनाथजी के आगे – आगे सु–गठित ग्रीवा वाले सुग्रीव और महाबली लक्ष्मण चल रहे थे। ।।
४.
और उन के पीछे वीर हनुमान्, नल, पराक्रमी नील तथा वानर- यूथपतियों के भी यूथपति महातेजस्वी तार चल रहे थे। ।।
५ से ६.
वे सब लोग फूलों के भार से झुके हुए वृक्षों, स्वच्छ जल वाली समुद्र गामिनी नदियों, कन्दराओं, पर्वतों, शिला - विवरों, गुफाओं, मुख्य - मुख्य शिखरों और सुन्दर दिखायी देनेवाली गहन गुफाओं को देखते हुए आगे बढ़ने लगे। ।।
७.
उन्हों ने मार्ग में ऐसे सजल सरोवरों को भी देखा, जो वैदूर्य मणि के समान रंग वाले, निर्मल जल तथा कम खिले हुए मुकुलयुक्त कमलों से सुशोभित थे। ।।
८.
कारण्डव, सारस, हंस, वञ्जुल, जलमुर्ग, चक्रवाक तथा अन्य पक्षी उन सरोवरों में चहचहा रहे थे। उन सब की प्रतिध्वनि वहाँ गूंज रही थी। ।।
९.
स्थलों में सब ओर हरी - हरी कोमल घास के अङ्कुरों का आहार करने वाले वनचारी हरिण कहीं निर्भय हो कर चरते थे और कहीं खड़े दिखायी देते थे ( इन सब को देखते हुए श्रीराम आदि किष्किन्धा की ओर जा रहे थे )। ।।
१० से १२.
जो सफेद दाँतों से सुशोभित थे, देखने में भयंकर थे, अकेले विचरते थे और किनारों को खोद कर नष्ट कर देने के कारण सरोवरों के शत्रु समझे जाते थे, ऐसे दो दाँतों वाले मदमत्त जङ्गली हाथी चलते - फिरते पर्वतों के समान जाते दिखायी देते थे। उन्होंने अपने दाँतों से पर्वत के तटप्रान्त को विदीर्ण कर दिया था। कहीं हाथी जैसे विशालकाय वानर दृष्टिगोचर होते थे, जो धरती की धूल से नहा उठे थे। इनके सिवा उस वन में और भी बहुत - से जंगली जीव - जन्तु तथा आकाशचारी पक्षी विचरते देखे जाते थे। इन सब को देखते हुए श्रीराम आदि सब लोग सुग्रीव के वश वर्ती हो तीव्र गति से आगे बढ़ने लगे। ।।
श्लोक १३ से २० ।।
१३.
उन यात्रा करनेवाले लोगों में वहाँ रघुकुलनन्दन श्रीराम ने वृक्ष समूहों से सघन वन को देख कर सुग्रीव से पूछा- ।।
१४.
“वानरराज! आकाश में मेघ की भांति जो यह वृक्षों का समूह प्रकाशित हो रहा है, क्या है? यह इतना विस्तृत है कि मेघों की घटा के समान छा रहा है। इसके किनारे - किनारे केले के वृक्ष लगे हुए हैं, जिन से वह सारा वृक्षसमूह घिर गया है।” ।।
१५.
“सखे! यह कौन - सा वन है? यह मैं जानना चाहता हूँ। इस के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे द्वारा मेरे इस कौतूहल का निवारण हो।” ।।
१६.
महात्मा रघुनाथजी की यह बात सुन कर सुग्रीव ने चलते - चलते ही उस विशाल वन के विषय में बताना आरम्भ किया। ।।
१७.
“रघुनन्दन! यह एक विस्तृत आश्रम है, जो सब के श्रम का निवारण करने वाला है। यह उद्यानों और उपवनों से युक्त है। यहाँ स्वादिष्ट फल- मूल और जल सुलभ होते हैं।” ।।
१८.
“इस आश्रम में सप्तजन नाम से प्रसिद्ध सात ही मुनि रहते थे, जो कठोर व्रत के पालन में तत्पर थे। वे नीचे सिर कर के तपस्या करते थे। नियम पूर्वक रह कर जल में शयन करने वाले थे।” ।।
१९.
“सात दिन और सात रात व्यतीत कर के वे केवल वायु का आहार करते थे तथा एक स्थान पर निश्चल भाव से रहते थे। इस प्रकार सात-सौ वर्षों तक तपस्या कर के वे सशरीर स्वर्ग लोक को चले गये।” ।।
२०.
“उन्हीं के प्रभाव से सघन वृक्षों की चारदीवारी से घिरा हुआ यह आश्रम इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं और असुरों के लिये भी अत्यन्त दुर्धर्ष बना हुआ है।” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“पक्षी तथा दूसरे वनचर जीव इसे दूर से ही त्याग देते हैं। जो मोह वश इस के भीतर प्रवेश करते हैं, वे फिर कभी नहीं लौटते हैं।” ।।
२२.
“रघुनन्दन! यहाँ मधुर अक्षर वाली वाणी के साथ - साथ आभूषणों की झनकारें भी सुनी जाती हैं। वाद्यों और गीतों की मधुर ध्वनियां भी कानों में पड़ती हैं और दिव्य सुगन्ध का भी अनुभव होता है।” ।।
२३.
“यहाँ आहवनीय आदि त्रिविध अग्नियाँ भी प्रज्वलित होती हैं। यह कबूतर के अंगों की भाँति धूसर रंग वाला घना धूम उठता दिखायी देता है, जो वृक्षों की शिखाओं को आवेष्टित - सा कर रहा है।” ।।
२४.
“जिन के शिखाओं पर होम - धूम छा रहे हैं, वे ये वृक्ष मेघ समूहों से आच्छादित हुए नीलम के पर्वतों की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं।” ।।
२५.
“धर्मात्मा रघुनन्दन! आप मन को एकाग्र करके दोनों हाथ जोड़ कर भाई लक्ष्मण के साथ उन मुनियों के उद्देश्य से प्रणाम कीजिये।” ।।
२६.
“श्रीराम! जो उन पवित्र अन्तःकरण वाले ऋषियों को प्रणाम करते हैं, उनके शरीर में किंचिन्मात्र भी अशुभ नहीं रह जाता है।” ।।
२७.
तब भाई लक्ष्मण सहित श्रीराम ने हाथ जोड़ कर उन महात्मा ऋषियों के उद्देश्य से प्रणाम किया। ।।
२८.
धर्मात्मा श्रीराम, उनके छोटे भाई लक्ष्मण, सुग्रीव तथा अन्य सभी वानर उन ऋषियों को प्रणाम कर के प्रसन्नचित्त हो आगे बढ़े। ।।
२९.
उस सप्तजन आश्रम से दूर तक का मार्ग तय कर लेने के पश्चात् उन सब ने वाली द्वारा सुरक्षित किष्किन्धापुरी को देखा। ।।
३०.
तदनन्तर श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण, श्रीराम तथा वानर, जिन का उग्रतेज उदित हुआ था, हाथों में अस्त्र - शस्त्र ले कर इन्द्रकुमार वाली के पराक्रम से पालित किष्किन्धापुरी में शत्रुवध के निमित्त पुनः आ पहुँचे। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 13 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
