15. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 15
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।
पंद्रहवाँ सर्ग – ३१ श्लोक ।।
सारांश ।।
सुग्रीव की गर्जना सुन कर वाली का युद्ध के लिये निकलना और तारा का उसे रोक कर सुग्रीव और श्रीराम के साथ मैत्री कर लेने के लिये समझाना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
उस समय अमर्षशील वाली अपने अन्तःपुरमें था। उसने अपने भाई महामना सुग्रीव का वह सिंहनाद वहीं से सुना।॥ ।।
२.
समस्त प्राणियों को कम्पित कर देनेवाली उन की वह गर्जना सुन कर उस का सारा मद सहसा उतर गया और उसे महान् क्रोध उत्पन्न हुआ॥ ।।
३.
फिर तो सुवर्ण के समान पीले रंग वाले वाली का सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। वह राहु ग्रस्त सूर्य के समान तत्काल श्रीहीन दिखायी देने लगा॥ ।।
४.
वाली की दाढ़ें विकराल थीं, नेत्र क्रोध के कारण प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रहे थे। वह उस तालाब के समान श्रीहीन दिखायी देता था, जिस में कमल पुष्पों की शोभा तो नष्ट हो गयी हो और केवल मृणाल रह गये हों॥ ।।
५.
वह दुःसह शब्द सुन कर वाली अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को विदीर्ण-सी करता हुआ बड़े वेग से निकला॥ ।।
६.
उस समय वाली की पत्नी तारा भयभीत हो घबरा उठी। उसने वाली को अपनी दोनों भुजाओं में भर लिया और स्नेह से सौहार्द का परिचय देते हुए परिणाम में हित करने वाली यह बात कही- ।।
७.
“वीर! मेरी अच्छी बात सुनिये और सहसा आये हुए नदी के वेग की भाँति इस बढ़े हुए क्रोध को त्याग दीजिये। जैसे प्रातःकाल शय्या से उठा हुआ पुरुष रात को उपभोग में लायी गयी पुष्पमाला का त्याग कर देता है; उसी प्रकार इस क्रोध का परित्याग कीजिये।”
८ से ९.
“वानरवीर! कल प्रातःकाल सुग्रीव के साथ युद्ध कीजियेगा (इस समय रुक जाइये) यद्यपि युद्ध में कोई शत्रु आप से बढ़कर नहीं है और आप किसी से छोटे नहीं हैं। तथापि इस समय सहसा आप का घर से बाहर निकलना मुझे अच्छा नहीं लगता है, आप को रोकने का एक विशेष कारण और भी है। उसे बताती हूँ, सुनिये।” ।।
१०.
“सुग्रीव पहले भी यहाँ आये थे और क्रोध पूर्वक उन्होंने आप को युद्ध के लिये ललकारा था। उस समय आप ने नगर से निकल कर उन्हें परास्त किया और वे आप की मार खा कर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भागते हुए मतङ्ग वन में चले गये थे।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“इस प्रकार आप के द्वारा पराजित और विशेष पीड़ित होने पर भी वे पुनः यहाँ आ कर आप को युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। उनका यह पुनरागमन मेरे मन में शङ्का-सी उत्पन्न कर रहा है।” ।।
१२.
“इस समय गर्जते हुए सुग्रीव का दर्प और उद्योग जैसा दिखायी देता है तथा उनकी गर्जना में जो उत्तेजना जान पड़ती है, इस का कोई छोटा-मोटा कारण नहीं होना चाहिये।” ।।
१३.
“मैं समझती हूँ कि सुग्रीव किसी प्रबल सहायक के बिना अब की बार यहाँ नहीं आये हैं। किसी सबल सहायक को साथ ले कर ही आये हैं, जिस के बल पर ये इस तरह गरज रहे हैं।” ।।
१४.
“वानर सुग्रीव स्वभाव से ही कार्यकुशल और बुद्धिमान् हैं। वे किसी ऐसे पुरुष के साथ मैत्री नहीं करें गे, जिस के बल और पराक्रम को अच्छी तरह परख न लिया हो।” ।।
१५.
“वीर! मैंने पहले ही कुमार अङ्गद के मुँह से यह बात सुन ली है। इसलिये आज मैं आप के हित की बात बताती हूँ।” ।।
१६.
“एक दिन कुमार अङ्गद वन में गये थे। वहाँ गुप्तचरों ने उन्हें एक समाचार बताया, जो उन्हों ने यहाँ आ कर मुझ से भी कहा था।” ।।
१७.
“वह समाचार इस प्रकार है-अयोध्यानरेश के दो शूरवीर पुत्र, जिन्हें युद्ध में जीतना अत्यन्त कठिन है, जिन का जन्म इक्ष्वाकुकुल में हुआ है तथा जो श्रीराम और लक्ष्मण के नाम से प्रसिद्ध हैं, यहाँ वन में आये हुए हैं।” ।।
१८ से १९.
“वे दोनों दुर्जय वीर सुग्रीव का प्रिय करने के लिये उन के पास पहुँच गये हैं। उन दोनों में से जो आप के भाई के युद्ध-कर्म में सहायक बताये गये हैं, वे श्रीराम शत्रु सेना का संहार करनेवाले तथा प्रलय काल में प्रज्वलित हुई अग्नि के समान तेजस्वी हैं। वे साधु पुरुषों के आश्रय दाता कल्पवृक्ष हैं और संकट में पड़े हुए प्राणियों के लिये सब से बड़ा सहारा हैं।” ।।
२०.
“आर्त पुरुषों के आश्रय, यश के एकमात्र भाजन, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तथा पिता की आज्ञा में स्थित रहनेवाले हैं।” ।।
श्लोक २१ से ३१ ।।
२१.
“जैसे गिरिराज हिमालय नाना धातुओं की खान है, उसी प्रकार श्रीराम उत्तम गुणों के बहुत बड़े भंडार हैं। अतः उन महात्मा राम के साथ आप का विरोध करना कदापि उचित नहीं है। क्योंकि वे युद्ध की कला में अपना सानी नहीं रखते हैं। उन पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है।” ।।
२२.
“शूरवीर! मैं आप के गुणों में दोष देखना नहीं चाहती। अतः आप से कुछ कहती हूँ। आप के लिये जो हितकर है, वही बता रही हूँ। आप उसे सुनिये और वैसा ही कीजिये।” ।।
२३.
“अच्छा यही होगा कि आप सुग्रीव का शीघ्र ही युवराज के पद पर अभिषेक कर दीजिये। वीर वानरराज! सुग्रीव आप के छोटे भाई हैं, उन के साथ युद्ध न कीजिये।” ।।
२४.
“मैं आप के लिये यही उचित समझती हूँ कि आप वैर भाव को दूर हटा कर श्रीराम के साथ सौहार्द और सुग्रीव के साथ प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कीजिये।” ।।
२५ से २६.
“वानर सुग्रीव आप के छोटे भाई हैं। अतः आप का लाड़-प्यार पाने के योग्य हैं। वे ऋष्यमूक पर रहें या किष्किन्धा में-सर्वथा आप के बन्धु ही हैं। मैं इस भू तल पर उन के समान बन्धु और किसी को नहीं देखती हूँ।” ।।
२७.
“आप दान-मान आदि सत्कारों के द्वारा उन्हें अपना अत्यन्त अन्तरङ्ग बना लीजिये, जिस से वे इस वैर भाव को छोड़ कर आप के पास रह सकें।” ।।
२८.
“पुष्ट ग्रीवा वाले सुग्रीव आप के अत्यन्त प्रेमी बन्धु हैं, ऐसा मेरा मत है। इस समय भ्रातृ प्रेम का सहारा लेने के सिवा आप के लिये यहाँ दूसरी कोई गति नहीं है।” ।।
२९.
“यदि आप को मेरा प्रिय करना हो तथा आप मुझे अपनी हितकारिणी समझते हों तो मैं प्रेमपूर्वक याचना करती हूँ, आप मेरी यह नेक सलाह मान लीजिये।” ।।
३०.
“स्वामि! आप प्रसन्न होइये। मैं आप के हित की बात कहती हूँ। आप इसे ध्यान दे कर सुनिये। केवल रोष का ही अनुसरण न कीजिये। कोसल राजकुमार श्रीराम इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। उन के साथ वैर बाँधना या युद्ध छेड़ना आप के लिये कदापि उचित नहीं है।” ।।
३१.
उस समय तारा ने वाली से उस के हित की ही बात कही थी और यह लाभदायक भी थी। किंतु उस की बात उसे नहीं रुची। क्योंकि उसके विनाश का समय निकट था और वह काल के पाश में बंध चुका था॥ ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 15 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
