12. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 12
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
बारहवाँ सर्ग – २५ श्लोक ।।
सारांश ।।
सीताजी के मरणे की आशंका से हनुमान्जी का शिथिल होना, फिर उत्साह का आश्रय लेकर अन्य स्थानों में उनकी खोज करना और कहीं भी पता न लगने से पुनः उनका चिन्तित होना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
उस राजभवन के भीतर स्थित हुए हनुमान्जी, सीताजी के दर्शन के लिये उत्सुक हो क्रमशः, लतामण्डपों में, चित्रशालाओं में तथा रात्रिकालिक विश्रामगृहों में गये; परंतु वहाँ भी उन्हें परम सुन्दरी सीताजी का दर्शन नहीं हुआ ।।
२.
रघुनन्दन श्रीरामजी की प्रियतमा सीताजी जब वहाँ भी दिखायी नहीं दीं, तब वे महाकपि हनुमान् इस प्रकार चिन्ता करने लगे- “निश्चय ही अब मिथिलेशकुमारी सीताजी जीवित नहीं हैं; इसी लिये बहुत खोजने पर भी वे मेरे दृष्टिपथ में नहीं आ रही हैं” ।।
३.
“सतीसाध्वी सीताजी उत्तम आर्यमार्ग पर स्थित रहने वाली थीं। वे अपने शील और सदाचार की रक्षा में तत्पर रही हैं; इस लिये निश्चय ही इस दुराचारी राक्षसराज ने उन्हें मार डाला होगा” ।।
४.
“राक्षसराज रावण के यहाँ जो दास्यकर्म करनेवाली राक्षसियाँ हैं, उनके रूप बड़े बेडौल हैं। वे बड़ी विकट और विकराल हैं। उनकी कान्ति भी भयंकर है। उनके मुँह विशाल और आँखें भी बड़ी-बड़ी एवम् भयानक हैं। उन सब को देख कर जनकराजनन्दिनी ने भय के कारण प्राण त्याग दिये होंगे” ।।
५.
“सीताजी का दर्शन नहीं होने से मुझे अपने पुरुषार्थ का फल नहीं प्राप्त हो सका। इधर वानरों के साथ सुदीर्घ काल तक इधर-उधर भ्रमण करके मैंने लौटने की अवधि भी बिता दी है; अतः अब मेरा सुग्रीव के पास जाने का भी मार्ग बंद हो गया; क्योंकि वह वानर बड़ा बलवान् और अत्यन्त कठोर दण्ड देने वाला है” ।।
६.
मैंने रावण का सारा अन्तःपुर छान डाला, एक-एक करके रावण की समस्त स्त्रियों को भी देख लिया; किंतु अभी तक साध्वी सीताजी का दर्शन नहीं हुआ; अतः मेरा समुद्र लङ्घन का सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया” ।।
७.
“जब मैं लौट कर जाऊँगा, तब सारे वानर मिल कर मुझ से क्या कहें गे; वे पूछें गे, वीर! वहाँ जाकर तुमने क्या किया है - यह हमें बताओ” ।।
८.
“किंतु जनकनन्दिनी सीताजी को न देख कर मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा। सुग्रीव के निश्चित किये हुए समय का उल्लङ्घन कर देने पर अब मैं निश्चय ही आमर्ण उपवास करूँगा” ।।
९.
“बड़े-बूढ़े जाम्बवान् और युवराज अंगद मुझसे क्या कहें गे? समुद्र के पार जाने पर अन्य वानर भी जब मुझसे मिलें गे, तब वे क्या कहें गे?” ।।
१०.
(इस प्रकार थोड़ी देर तक हताश से हो कर वे फिर सोचने लगे) – “हताश ना होकर उत्साह को बनाये रखना ही सम्पत्ति का मूल कारण है। उत्साह ही परम सुख का हेतु है; अतः, मैं पुनः उन स्थानों में सीताजी की खोज करूँगा, जहाँ अब तक अनुसन्धान नहीं किया गया है” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“उत्साह ही प्राणियों को सर्वदा सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त करता है और वही उन्हें वे जो कुछ करते हैं उस कार्य में सफलता प्रदान करता है” ।।
१२.
“इसलिये अब मैं और भी उत्तम एवम् उत्साह पूर्वक प्रयत्न के लिये चेष्टा करूँगा। रावण के द्वारा सुरक्षित जिन स्थानों को अब तक नहीं देखा है, उन में भी पता लगाऊँ गा” ।।
१३ से १४.
“आपानशाला, पुष्पगृह, चित्रशाला, क्रीड़ागृह, गृहोद्यान की गलियां और पुष्पक आदि विमान – इन सब का तो मैंने चप्पा-चप्पा देख डाला ( अब अन्यत्र खोज करूँगा।)” यह सोच कर उन्हों ने पुनः खोजना आरम्भ किया ।।
१५.
वे भूमि के भीतर बने हुए घरों (तहखानों) में, चौराहों पर बने हुए मण्डपों में, तथा घरों को लांघ कर उन से थोड़ी ही दूरी पर बने हुए विलास - भवनों में सीताजी की खोज करने लगे। वे किसी घर के ऊपर चढ़ जाते, किसी से नीचे कूद पड़ते, कहीं ठहर जाते और किसी को चलते-चलते ही देख लेते थे ।।
१६.
घरों के दरवाजों को खोल देते, कहीं किवाड़ बंद कर देते, किसी के भीतर घुस कर देखते और फिर निकल आते थे। वे नीचे कूदते और ऊपर उछल्ते हुए-से सर्वत्र खोज करने लगे ।।
१७.
उन महाकपि ने वहाँ के सभी स्थानों में विचरण किया। रावण के अन्तःपुर में कोई चार अंगुल का भी ऐसा स्थान नहीं रह गया, जहाँ कपिवर हनुमान्जी न पहुँचे हों ।।
१८.
उन्हों ने परकोटे के भीतर की गलियां, चौराहे के वृक्षों के नीचे बनी हुई वेदियाँ, गड्ढे और पोखरियाँ सब को छान डाला ।।
१९.
हनुमानजी ने जगह-जगह नाना प्रकार के आकार वाली, कुरूप और विकट राक्षसियाँ देखीं; किंतु वहाँ उन्हें जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ ।।
२०.
संसार में जिनके रूप-सौन्दर्य की कहीं तुलना नहीं थी ऐसी बहुत-सी विद्याधरियाँ भी हनुमान्जी की दृष्टि में आयीं; परंतु वहाँ उन्हें श्री रघुनाथजी को आनन्द प्रदान करने वाली सीताजी नहीं दिखायी दीं ।।
श्लोक २१ से २५ ।।
२१.
हनुमान्जी ने सुन्दर नितम्ब और पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाली बहुत-सी नाग कन्याएँ भी वहाँ देखीं; किंतु जनककिशोरी का उन्हें दर्शन नहीं हुआ ।।
२२.
राक्षसराज के द्वारा नागसेना को मथकर बलात् हर कर लायी हुई नाग कन्याओं को तो पवनकुमार ने वहाँ देखा; किंतु जानकीजी उन्हें दृष्टिगोचर नहीं हुई ।।
२३.
महाबाहु पवनकुमार हनुमानजी को दूसरी बहुत-सी सुन्दरियाँ दिखायी दीं; परंतु सीताजी उनके देखने में नहीं आयीं। इसलिये वे बहुत दुखी हो गये ।।
२४.
उन वानर शिरोमणि वीरों के उद्योग और अपने द्वारा किये गये समुद्र लंघन को व्यर्थ होते देख कर पवनपुत्र हनुमान् वहाँ पुनः बड़ी भारी चिन्ता में पड़ गये ।।
२५.
उस समय वायुनन्दन हनुमान् विमान से नीचे उतर आये और बड़ी चिन्ता करने लगे। शोक से उन की चेतना शक्तिशिथिल हो गयी थी ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 12 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.