12. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 12

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।

बारहवाँ सर्ग – ४२ श्लोक ।।

सारांश ।।

श्रीराम के द्वारा साल के सात वृक्षों का भेदन , श्रीराम की आज्ञा से सुग्रीव का किष्किन्धा में आकर वाली को ललकारना और युद्ध में उस से पराजित होकर मतंग वन में भाग जाना, वहाँ श्रीराम का उन्हें आश्वासन देना और गले में पहचान के लिये गजपुष्पी लता डालकर उन्हें पुनः युद्ध के लिये भेजना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
सुग्रीव के सुन्दर ढंग से कहे हुए इस वचन को सुन कर महातेजस्वी श्रीराम ने उन्हें विश्वास दिलाने के लिये धनुष हाथ में लिया। ।।

२.
दूसरों को मान देनेवाले श्री रघुनाथजी ने वह भयंकर धनुष और एक बाण ले कर धनुष की टंकार से सम्पूर्ण दिशाओं को गुंजाते हुए उस बाण को साल वृक्ष की ओर छोड़ दिया। ।।

३.
उन बलवान् वीरशिरोमणि के द्वारा छोड़ा गया वह सुवर्णभूषित बाण उन सातों साल वृक्षों को एक ही साथ बींध कर पर्वत तथा पृथ्वी के सातों तलों को छेदता हुआ पाताल में चला गया। ।।

४.
इस प्रकार एक ही मुहूर्त में उन सब का भेदन कर के वह महान् वेगशाली बाण पुनः वहाँ से निकल कर उन के तरकस में ही प्रविष्ट हो गया। ।।

५.
श्रीराम के बाण के वेग से उन सातों साल वृक्षों को विदीर्ण हुआ देख वानरशिरोमणि सुग्रीव को बड़ा विस्मय हुआ। ।।

६.
साथ ही उन्हें मन - ही - मन बड़ी प्रसन्नता हुई। सुग्रीव ने हाथ जोड़ कर धरती पर माथा टेक दिया और श्री रघुनाथजी को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। प्रणाम के लिये झुकते समय उन के कण्ठ हार आदि भूषण लटकते हुए दिखायी देते थे। ।।

७.
श्रीराम के उस महान् कर्म से अत्यन्त प्रसन्न हो उन्हों ने सामने खड़े हुए सम्पूर्ण अस्त्र- वेत्ताओं में श्रेष्ठ धर्मज्ञ , शूरवीर श्रीरामचन्द्रजी से इस प्रकार कहा- ।।

८.
“पुरुषप्रवर! भगवन्! आप तो अपने बाणों से समराङ्गण में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं का वध भी करने में समर्थ हैं। फिर वाली को मारना आप के लिये कौन सी बड़ी बात है?” ।।

९.
“काकुत्स्थ! जिन्हों ने सात बड़े - बड़े सालवृक्ष, पर्वत और पृथ्वी को भी एक ही बाण से विदीर्ण कर डाला, उन्हीं आप के समक्ष युद्ध के मुहाने पर कौन ठहर सकता है?” ।।

१०.
“महेन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी आप को सुहृद्वे रूप में पा कर आज मेरा सारा शोक दूर हो गया। आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“ककुत्स्थकुलभूषण! मैं हाथ जोड़ता हूँ। आप आज ही मेरा प्रिय करने के लिये उस वाली का, जो भाइ के रूप में मेरा शत्रु है, वध कर डालिये।” ।।

१२.
सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी को लक्ष्मण के समान प्रिय हो गये थे। उन की बात सुनकर महाप्राज्ञ श्रीराम ने अपने उस प्रिय सुहृद को हृदय से लगा लिया और इस प्रकार उत्तर दिया – ।।

१३.
“सुग्रीव! हमलोग शीघ्र ही इस स्थान से किष्किन्धा को चलते हैं। तुम आगे जाओ और जा कर व्यर्थ ही भाई कहलानेवाले वाली को युद्ध के लिये ललकारो।” ।।

१४.
तदनन्तर वे सबलोग वाली की राजधानी किष्किन्धापुरी में गये और वहाँ गहन वन के भीतर वृक्षों की आड़ में अपने को छिपा कर खड़े हो गये। ।।

१५.
सुग्रीव ने लंगोट से अपनी कमर खूब कस ली और वाली को बुलाने के लिये भयंकर गर्जना की। वेगपूर्वक किये हुए उस सिंहनाद से मानो वे आकाश को फाड़े डालते थे।” ।।

१६.
भाइ का सिंहनाद सुनकर महाबली वाली को बड़ा क्रोध हुआ। वह अमर्ष में भर कर अस्ताचल से नीचे जानेवाले सूर्य के समान बड़े वेग से घर से निकला। ।।

१७.
फिर तो वाली और सुग्रीव में बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया, मानो आकाश में बुध और मंगल इन दोनों ग्रहों में घोर संग्राम हो रहा हो। ।।

१८.
वे दोनों भाई क्रोध से मूर्च्छित हो एक – दूसरे पर वज्र और अशनि के समान तमाचों और घूँसों का प्रहार करने लगे। ।।

१९.
उसी समय श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष हाथ में लिया और उन दोनों की ओर देखा। वे दोनों वीर अश्विनी कुमारों की भांति परस्पर मिलते - जुलते दिखायी दिये। ।।

२०.
श्रीरामचन्द्रजी को यह पता न चला कि इन में कौन सुग्रीव है और कौन वाली; इसलिये उन्हों ने अपना वह प्राणान्तकारी बाण छोड़ने का विचार स्थगित कर दिया। ॥

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
इसी बीच में वाली ने सुग्रीव के पांव उखाड़ दिये। वे अपने रक्षक श्रीरघुनाथजी को न देख कर ऋष्यमूक पर्वत की ओर भागे। ।।

२२.
वे बहुत थक गये थे। उनका सारा शरीर लहूलुहान और प्रहारों से जर्जर हो रहा था। इतने पर भी वाली ने क्रोधपूर्वक उन का पीछा किया। किंतु वे मतंगमुनि के महान् वन में घुस गये। ।।

२३.
सुग्रीव को उस वन में प्रविष्ट हुआ देख महाबली वाली शाप के भय से वहाँ नहीं गया और “जाओ तुम बच गये।” ऐसा कह कर वहाँ से लौट आया। ।।

२४.
इधर श्री रघुनाथजी भी अपने भाई लक्ष्मण तथा श्री हनुमान्जी के साथ उसी समय वन में आ गये, जहाँ वानर सुग्रीव विद्यमान थे। ।।

२५.
लक्ष्मण सहित श्रीराम को आया देख सुग्रीव को बड़ी लज्जा हुइ और वे पृथ्वी की ओर देखते हुए दीन वाणी में उन से बोले- ।।

२६ से २७.
“रघुनन्दन! आप ने अपना पराक्रम दिखाया और मुझे यह कह कर भेज दिया कि जाओ, वाली को युद्ध के लिये ललकारो, यह सब हो जाने पर आप ने शत्रु से पिटवाया और स्वयम् छिप गये। बताइये, इस समय आप ने ऐसा क्यों किया? आपको उसी समय सच-सच बता देना चाहिये था कि मैं वाली को नहीं मारूँगा। ऐसी दशा में मैं यहाँ से उस के पास जाता ही नहीं।” ।।

२८.
महामना सुग्रीव जब दीन वाणी द्वारा इस प्रकार करुणा जनक बात कहने लगे, तब श्रीराम फिर उन से बोले- ।।

२९.
“तात सुग्रीव! मेरी बात सुनो, क्रोध को अपने मन से निकाल दो। मैंने क्यों नहीं बाण चलाया, इस का कारण बतलाता हूँ।” ।।

३०.
“सुग्रीव! वेशभूषा, कद और चाल-ढाल में तुम और वाली दोनों एक-दूसरे से मिलते-जुलते हो।” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
“स्वर, कान्ति, दृष्टि, पराक्रम और बोलचाल के द्वारा भी मुझे तुम दोनों में कोइ अन्तर दिखायी नहीं देता।” ।।

३२.
“वानरश्रेष्ठ! तुम दोनों के रूप की इतनी समानता देख कर मैं मोह में पड़ गया -तुम्हें पहचान न सका; इसीलिये मैंने अपना महान् वेगशाली शत्रुसंहारक बाण नहीं छोड़ा।” ।।

३३.
“मेरा वह भयंकर बाण शत्रु के प्राण लेनेवाला था, इसलिये तुम दोनों की समानता से संदेह में पड़ कर मैंने उस बाण को नहीं छोड़ा। सोचा, कहीं ऐसा न हो कि हम दोनों के मूल उद्देश्य का ही विनाश हो जाय।” ।।

३४.
“वीर! वानरराज! यदि अनजाने में या जल्दबाजी के कारण मेरे बाण से तुम्हीं मारे जाते तो मेरी बालोचित चपलता और मूढ़ता ही सिद्ध होती।” ।।

३५ से ३६.
“जिस को अभय दान दे दिया गया हो, उस का वध करने से बड़ा भारी पाप होता है; यह एक अद्भुत पातक है। इस समय मैं, लक्ष्मण और सुन्दर सीता सब तुम्हारे अधीन हैं। इस वन में तुम्हीं हमलोगों के आश्रय हो; इसलिये वानरराज! शङ्का न करो ; पुनः चल कर युद्ध प्रारम्भ करो।” ।।

३७.
“तुम इसी मुहूर्त में वाली को मेरे एक ही बाण का निशाना बन कर धरती पर लोटता देखो गे।” ॥

३८.
“वानरेश्वर! अपनी पहचान के लिये तुम कोई चिह्न धारण कर लो, जिस से द्वन्द्वयुद्ध में प्रवृत्त होने पर मैं तुम्हें पहचान सकूँ।” ।।

३९.
(सुग्रीव से ऐसा कह कर, श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण से बोले –) “लक्ष्मण! यह उत्तम लक्षणों से युक्त गजपुष्पी लता फूल रही है। इसे उखाड़ कर तुम महामना सुग्रीव के गले में पहना दो।” ।।

४०.
यह आज्ञा पा कर लक्ष्मण ने पर्वत के किनारे उत्पन्न हुई फूलों से भरी वह गजपुष्पी लता उखाड़ कर सुग्रीव के गले में डाल दिया। ।।

श्लोक ४१ से ४२ ।।

४१.
गले में पड़ी हुई उस लता से श्रीमान् सुग्रीव वकपंक्ति से अलंकृत संध्याकाल के मेघ की भांति शोभा पाने लगे। ।।

४२.
श्रीराम के वचन से आश्वासन पा कर अपने सुन्दर शरीर से शोभा पाने वाले सुग्रीव श्री रघुनाथजी के साथ फिर किष्किन्धापुरी में जा पहुँचे। ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 12 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.