13. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 13

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।

तेरहवाँ सर्ग – २५ श्लोक ।।

सारांश ।

महर्षि अगस्त्य का श्रीराम के प्रति अपनी प्रसन्नता प्रकट करके सीता की प्रशंसा करना, श्रीराम के पूछने पर उन्हें पञ्चवटी में आश्रम बनाकर रहने का आदेश देना तथा श्रीराम आदि का प्रस्थान ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
“श्रीराम! आपका कल्याण हो! मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ। लक्ष्मण! मैं तुम पर भी बहुत संतुष्ट हूँ। आप दोनों भाई मुझे प्रणाम करने के लिये जो सीता के साथ यहाँ तक आये हो, इस से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है” ।।

२.
“रास्ता चलने के परिश्रम से आप लोगों को बहुत थकावट हुई है। इसके कारण जो कष्ट हुआ है, वह आप दोनों को पीड़ा दे रहा होगा। मिथिलेशकुमारी जानकी भी अपनी थकावट दूर करने के लिये अधिक उत्कण्ठित है, यह बात स्पष्ट ही जान पड़ती है” ।।

३.
“यह सुकुमारी है और इस से पहले इसे ऐसे दुखों का सामना भी नहीं करना पड़ा है। वनमें अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं, फिर भी यह पति प्रेम से प्रेरित हो कर यहाँ आयी है” ।।

४.
“श्रीराम! जिस प्रकार सीता का यहाँ मन लगे - जैसे भी यह प्रसन्न रहे, वही कार्य आप करें। वन में आप के साथ आकर इसने दुष्कर कार्य किया है” ।।

५.
“रघुनन्दन! सृष्टि काल से ले कर अब तक स्त्रियों का प्रायः यही स्वभाव रहता आया है कि यदि पति सम अवस्था में है अर्थात् धनधान्य से सम्पन्न, स्वस्थ एवम् सुखी है, तब तो वे उस में अनुराग रखती हैं, परंतु यदि वह विषम अवस्था में पड़ जाता है - दरिद्र एवम् रोगी हो जाता है, तब उसे त्याग देती हैं” ।।

६.
“स्त्रियाँ विद्युत की चपलता, शस्त्रों की तीक्ष्णता तथा गरुड एवम् वायु की तीव्र गति का अनुसरण करती हैं” ।

७.
“आपकी यह धर्मपत्नी सीता इन सब दोषों से रहित है। स्पृहणीय एवम् पतिव्रताओं में उसी तरह अग्रगण्य है, जैसे देवियों में अरुन्धती” ।।

८.
“शत्रुदमन श्रीराम! आज से इस देश की शोभा बढ़ गयी, जहाँ सुमित्राकुमार लक्ष्मण और विदेहनन्दिनी सीता के साथ आप निवास करेंगे” ।।

९.
मुनि के ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्रजी ने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी उन महर्षि से दोनों हाथ जोड़ कर यह विनययुक्त बात कही - ।।

१०.
“भाइ और पत्नी सहित जिस के अर्थात् मेरे गुणों से हमारे गुरुदेव मुनिवर अगस्त्यजी यदि संतुष्ट हो रहे हैं, तब तो मैं धन्य हूँ, मुझ पर मुनीश्वर का महान् अनुग्रह है “।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“परंतु मुने! अब आप मुझे ऐसा कोई स्थान बताइये जहाँ बहुत से वन हों, जल की भी सुविधा हो तथा जहाँ आश्रम बना कर मैं सुखपूर्वक सानन्द निवास कर सकूँ” ।।

१२.
श्रीराम का यह कथन सुन कर मुनिश्रेष्ठ धर्मात्मा अगस्त्य ने दो घड़ी तक कुछ सोच विचार किया। तदनन्तर वे यह शुभ वचन बोले - ।।

१३.
“तात! यहाँ से दो योजन की दूरी पर पञ्चवटी नाम से विख्यात एक बहुत ही सुन्दर स्थान है, जहाँ बहुत-से मृग रहते हैं तथा फल- मूल और जल की अधिक सुविधा है” ॥

१४.
“वहीं जा कर लक्ष्मण के साथ आप आश्रम बनाइये और पिता की यथोक्त आज्ञा का पालन करते हुए वहाँ सुख पूर्वक निवास कीजिये” ।।

१५.
“अनघ! आपका और राजा दशरथ का यह सारा वृत्तान्त मुझे अपनी तपस्या के प्रभाव से तथा आपके प्रति स्नेह होने के कारण अच्छी तरह विदित है” ।।

१६.
“आप ने तपोवन में मेरे साथ रहने की और वनवास का शेष समय यहीं बिताने की अभिलाषा प्रकट कर के भी जो यहाँ से अन्यत्र रहने योग्य स्थान के विषय में मुझ से पूछा है, इस में आप का हार्दिक अभिप्राय क्या है? यह मैंने अपने तपो बल से जान लिया है (आप ने ऋषियों की रक्षा के लिये राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञा का निर्वाह अन्यत्र रहने से ही हो सकता है; क्योंकि यहाँ राक्षसों का आना-जाना नहीं होता)” ।।

१७.
“इसी लिये मैं आप से कहता हूँ कि पञ्चवटी में जाइये। वहाँ की वनस्थली बड़ी ही रमणीय है। वहाँ मिथिलेशकुमारी सीता आनन्दपूर्वक सब ओर विचरेंगी” ।।

१८.
“रघुनन्दन! वह स्पृहणीय स्थान यहाँ से अधिक दूर नहीं है। गोदावरी के पास ( उसी के तट पर) है, अतः मैथिली का मन वहाँ खूब लगेगा” ।।

१९.
“महाबाहो! वह स्थान प्रचुर फल- मूलों से सम्पन्न, भाँति-भाँति के विहङ्गमों से सेवित, एकान्त, पवित्र और रमणीय है” ।।

२०.
“श्रीराम! आप भी सदाचारी और ऋषियों की रक्षा करने में समर्थ हैं। अतः वहाँ रह कर तपस्वी मुनियों का पालन कीजियेगा” ।।

श्लोक २१ से २५ ।।

२१ से २२.
“वीर! यह जो महुओं का विशाल वन दिखायी देता है, इस के उत्तर से हो कर जाना चाहिये। उस मार्ग से जाते हुए आप को आगे एक बरगद का वृक्ष मिले गा। उस से आगे कुछ दूर तक ऊँचा मैदान है, उसे पार करने के बाद एक पर्वत दिखायी देगा। उस पर्वत से थोड़ी ही दूरी पर पञ्चवटी नाम से प्रसिद्ध सुन्दर वन है, जो सदा फूलों से सुशोभित रहता है” ।।

२३.
महर्षि अगस्त्य के ऐसा कहने पर लक्ष्मण सहित श्रीराम ने उन का सत्कार कर के उन सत्यवादी महर्षि से वहाँ जाने की आज्ञा माँगी ।।

२४.
उन की आज्ञा पा कर उन दोनों भाइयों ने उन के चरणों की वन्दना की और सीता के साथ वे पञ्चवटी नामक आश्रम की ओर चले ।।

२५.
राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण ने पीठ पर तरकस बाँध हाथ में धनुष ले लिये। वे दोनों भाई समराङ्गणों में कातरता दिखानेवाले नहीं थे। वे दोनों बन्धु महर्षि के बताये हुए मार्ग से बड़ी सावधानी के साथ पञ्चवटी की ओर प्रस्थित हुए ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥

Sarg 13 - Aranya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.