12. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 12
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।
बारहवाँ सर्ग – ३७ श्लोक ।।
सारांश ।
श्रीराम आदि का अगस्त्य के आश्रम में प्रवेश, अतिथि सत्कार तथा मुनि की ओर से उन्हें दिव्य अस्त्र-शस्त्रों की प्राप्ति ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से ११ ।।
१.
श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने आश्रम में प्रवेश कर के अगस्त्यजी के शिष्य से भेंट की और उन से यह बात कही - ।।
२.
“मुने! अयोध्या में जो दशरथ नाम से प्रसिद्ध राजा थे, उन्हीं के ज्येष्ठ पुत्र महाबली श्रीरामचन्द्रजी अपनी पत्नी सीता के साथ महर्षि का दर्शन करने के लिये आये हैं”।
३.
“मैं उन का छोटा भाइ, हितैषी और अनुकूल चलने वाला भक्त हूँ । मेरा नाम लक्ष्मण है । सम्भव है कि यह नाम कभी आप के कानों में पड़ा हो” ।।
४.
“हम सब लोग पिता की आज्ञा से इस अत्यन्त भयंकर वन में आये हैं और भगवान् अगस्त्य मुनि का दर्शन करना चाहते हैं । आप उन से यह समाचार निवेदन कीजिये” ।।
५.
लक्ष्मण की वह बात सुन कर उन तपोधन ने “बहुत अच्छा” कह कर महर्षि को समाचार देने के लिये अग्निशाला में प्रवेश किया ।।
६.
अग्निशाला में प्रवेश कर के अगस्त्य के उस प्रिय शिष्य ने जो अपनी तपस्या के प्रभाव से दूसरों के लिये दुर्जय थे, उन मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य के पास जा हाथ जोड़ लक्ष्मण के कथनानुसार उन्हें श्रीरामचन्द्रजी के आगमन का समाचार शीघ्रता पूर्वक यों सुनाया- ।।
७ से ८.
“महामुने! राजा दशरथ के ये दो पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण आश्रम में पधारे हैं । श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ हैं । वे दोनों शत्रु दमन वीर आप की सेवा के उद्देश्य से आप का दर्शन करने के लिये आये हैं । अब इस विषय में जो कुछ कहना या करना हो, इस के लिये आप मुझे आज्ञा दें” ।।
९.
शिष्य से लक्ष्मण सहित श्रीराम और महाभागा विदेहनन्दिनी सीता के शुभागमन का समाचार सुन कर महर्षि ने इस प्रकार कहा – ।।
१० से ११.
“सौभाग्य की बात है कि आज चिर काल के बाद श्रीरामचन्द्रजी स्वयम् ही मुझ से मिलने के लिये आ गये । मेरे मन में भी बहुत दिनों से यह अभिलाषा थी कि वे एक बार मेरे आश्रम पर पधारते । जाओ, पत्नी सहित श्रीराम और लक्ष्मण को सत्कार पूर्वक आश्रम के भीतर मेरे समीप ले आओ तुम अब तक उन्हें ले क्यों नहीं आये?” ॥
श्लोक १२ से २० ।।
१२.
धर्मज्ञ महात्मा अगस्त्य मुनि के ऐसा कहने पर शिष्य ने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया और कहा— “बहुत अच्छा अभी ले आता हूँ” ।।
१३.
इस के बाद वह शिष्य आश्रम से निकल कर शीघ्रता पूर्वक लक्ष्मण के पास गया और बोला “श्रीरामचन्द्रजी कौन हैं? वे स्वयम् आश्रम में प्रवेश करें और मुनि का दर्शन करने के लिये चलें” ।।
१४.
तब लक्ष्मण ने शिष्य के साथ आश्रम के द्वार पर जा कर उसे श्रीरामचन्द्रजी तथा जनककिशोरी श्रीसीता का दर्शन कराया ।।
१५.
शिष्य ने बड़ी विनय के साथ महर्षि अगस्त्य की कही हुई बात वहाँ दुहरायी और जो सत्कार के योग्य थे, उन श्रीराम का यथोचित रीति से भली भाँति सत्कार कर के वह उन्हें आश्रम में ले गया ।।
१६ से १७.
उस समय श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता के साथ आश्रम में प्रवेश किया । वह आश्रम शान्त भाव से रहने वाले हरिणों से भरा हुआ था । आश्रम की शोभा देखते हुए उन्हों ने वहाँ ब्रह्माजी का स्थान और अग्निदेव का स्थान देखा ।।
१८ से २०.
फिर क्रमशः भगवान् विष्णु, महेन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, भग, कुबेर, धाता, विधाता, वायु, पाशधारी महात्मा वरुण, गायत्री, वसु, नागराज अनन्त, गरुड़, कार्तिकेय तथा धर्मराज के पृथक्- पृथक् स्थान का निरीक्षण किया ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१ से २२.
इतने ही में मुनिवर अगस्त्य भी शिष्यों से घिरे हुए अग्निशाला से बाहर निकले । वीर श्रीराम ने मुनियों के आगे-आगे आते हुए उद्दीप्त तेजस्वी अगस्त्यजी का दर्शन किया और अपनी शोभा विस्तार करने वाले लक्ष्मण से इस प्रकार कहा- ।।
२३.
“लक्ष्मण! भगवान् अगस्त्य मुनि आश्रम से बाहर निकल रहे हैं । ये तपस्या के निधि हैं । इन के विशिष्ट तेज के आधिक्य से ही मुझे पता चलता है कि ये अगस्त्यजी हैं” ।।
२४.
सूर्यतुल्य तेजस्वी महर्षि अगस्त्य के विषय में ऐसा कह कर महाबाहु रघुनन्दन ने सामने से आते हुए उन मुनीश्वर के दोनों चरण पकड़ लिये ।।
२५.
जिन में योगियों का मन रमण करता है अथवा जो भक्तों को आनन्द प्रदान करने वाले हैं, वे धर्मात्मा श्रीराम उस समय विदेहकुमारी सीता और लक्ष्मण के साथ महर्षि के चरणों में प्रणाम कर के हाथ जोड़ कर खड़े हो गये ।।
२६.
महर्षि ने भगवान् श्रीराम को हृदय से लगाया और आसन तथा जल (पाद्य, अर्घ्यं आदि) दे कर उन का आतिथ्य सत्कार किया । फिर कुशल- समाचार पूछ कर उन्हें बैठने को कहा ।।
२७.
अगस्त्यजी ने पहले अग्नि में आहुति दी, फिर वानप्रस्थ धर्म के अनुसार अर्घ्य दे अतिथियों का भलीभाँति पूजन कर के उन के लिये भोजन दिया ।।
२८ से २९.
धर्म के ज्ञाता मुनिवर अगस्त्यजी पहले स्वयम् बैठे, फिर धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्रजी हाथ जोड़कर आसनपर विराजमान हुए। इस के बाद महर्षि ने उन से कहा – “काकुत्स्थ! वानप्रस्थ को चाहिये कि वह पहले अग्नि को आहुति दे । तदनन्तर अर्घ्य दे कर अतिथि का पूजन करे। जो तपस्वी इसके विपरीत आचरण करता है, उसे झूठी गवाही देने वाले की भाँति परलोक में अपने ही शरीर का मांस खाना पड़ता है” ।।
३०.
“आप सम्पूर्ण लोकों के राजा, महारथी और धर्म का आचरण करने वाले हैं तथा मेरे प्रिय अतिथि के रूप में इस आश्रम पर पधारे हैं, अतएव आप हम लोगों के माननीय एवम् पूजनीय हैं” ।।
श्लोक ३१ से ३७ ।।
३१.
ऐसा कह कर महर्षि अगस्त्य ने फल, मूल, फूल तथा अन्य उपकरणों से इच्छानुसार भगवान् श्रीराम का पूजन किया। तत्पश्चात् अगस्त्यजी उन से इस प्रकार बोले - ।।
३२ से ३४.
“पुरुषसिंह! यह महान् दिव्य धनुष विश्वकर्माजी ने बनाया है। इस में सुवर्ण और हीरे जड़े हैं । यह भगवान् विष्णु का दिया हुआ है तथा यह जो सूर्य के समान देदीप्यमान अमोघ उत्तम बाण है, ब्रह्माजी का दिया हुआ है। इन के सिवा इन्द्र ने ये दो तरकस दिये हैं, जो तीखे तथा प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाणों से सदा भरे रहते हैं । कभी खाली नहीं होते। साथ ही यह तलवार भी है जिस की मूठ में सोना जड़ा हुआ है। इस की म्यान भी सोने की ही बनी हुई है” ।।
३५ से ३६.
“श्रीराम! पूर्व काल में भगवान् विष्णु ने इसी धनुष से युद्ध में बड़े-बड़े असुरों का संहार कर के देवताओं की उद्दीप्त लक्ष्मी को उन के अधिकार से लौटाया था। मानद! आप यह धनुष, ये दोनों तरकस, ये बाण और यह तलवार (राक्षसों पर) विजय पाने के लिये ग्रहण कीजिये। ठीक उसी तरह, जैसे वज्रधारी इन्द्र वज्र ग्रहण करते हैं” ।।
३७.
ऐसा कह कर महान् तेजस्वी अगस्त्य ने वे सभी श्रेष्ठ आयुध श्रीरामचन्द्रजी को सौंप दिये। तत्पश्चात् वे फिर बोले ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥
Sarg 12 - Aranya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
