12. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 12

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

बारहवाँ सर्ग – ४० श्लोक ।।

सारांश ।।

नगर की रक्षा के लिये सैनिकों की नियुक्ति , रावण का सीता के प्रति अपनी आसक्ति बता कर उन के हरण का प्रसंग बताना और भावी कर्तव्य के लिये सभा सदों की सम्मति माँगना , कुम्भकर्ण का पहले तो उसे फटकारना , फिर समस्त शत्रुओं के वध का स्वयं ही भार उठाना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
शत्रुविजयी रावण ने उस सम्पूर्ण सभा की ओर दृष्टिपात कर के सेनापति प्रहस्त को उस समय इस प्रकार आदेश दिया – ।।

२.
“सेनापते! तुम सैनिकों को ऐसी आज्ञा दो , जिस से तुम्हारे अस्त्रविद्या में पारंगत रथी , घुड़सवार , हाथीसवार और पैदल योद्धा नगर की रक्षा में तत्पर रहें” ।।

३.
अपने मन को वश में रखने वाले प्रहस्त ने राजा के आदेश का पालन करने की इच्छा से सारी सेना को नगर के बाहर और भीतर यथायोग्य स्थानों पर नियुक्त कर दिया ।।

४.
नगर की रक्षा के लिये सारी सेना को तैनात कर के प्रहस्त राजा रावण के सामने आ बैठा और इस प्रकार बोला — ।।

५.
“राक्षसराज! आप महाबली महाराज की सेना को मैंने नगर के बाहर और भीतर यथास्थान नियुक्त कर दिया है। अब आप स्वस्थचित्त हो कर शीघ्र ही अपने अभीष्ट कार्य का सम्पादन कीजिये” ।।

६.
राज्य का हित चाहने वाले प्रहस्त की यह बात सुन कर अपने सुख की इच्छा रखने वाले रावण ने सुहृदों के बीच में यह बात कही - ।।

७.
“सभासदो! धर्म , अर्थ और काम विषयक संकट उपस्थित होने पर आपलोग प्रिय - अप्रिय , सुख - दुख , लाभ - हानि और हिताहित का विचार करने में समर्थ हैं” ।।

८.
“आपलोगों ने सदा परस्पर विचार कर के जिन जिन कार्यों का आरम्भ किया है, वे सब - के- सब मेरे लिये कभी निष्फल नहीं हुए हैं” ।।

९.
“जैसे चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों सहित मरुद्गणों से घिरे हुए इन्द्र स्वर्ग की सम्पत्ति का उपभोग करते हैं, उसी भांति आपलोगों से घिरा रह कर मैं भी लङ्का की प्रचुर राजलक्ष्मी का सुख भोगता रहूँ – यही मेरी अभिलाषा है” ।।

१०.
“मैंने जो काम किया है, उसे मैं पहले ही आप सब के सामने रख कर आप के द्वारा उस का समर्थन चाहता था, परंतु उस समय कुम्भकर्ण सोये हुए थे, इस लिये मैंने इस की चर्चा नहीं चलायी” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाबली कुम्भकर्ण छः महीने से सो रहे थे। अभी इन की नींद खुली है” ।।

१२.
“मैं दण्डकारण्य से, जो राक्षसों के विचरने का स्थान है, राम की प्यारी रानी जनकदुलारी सीता को हर लाया हूँ” ।।

१३.
“किंतु वह मन्दगामिनी सीता मेरी शय्या पर आरूढ़ होना नहीं चाहती है। मेरी दृष्टि में तीनों लोकों के भीतर सीता के समान सुन्दरी दूसरी कोइ स्त्री नहीं है” ।।

१४.
“उस के शरीर का मध्यभाग अत्यन्त सूक्ष्म है, कटि के पीछे का भाग स्थूल है, मुख शरत्काल के चन्द्रमा को लज्जित करता है, वह सौम्य रूप और स्वभाववाली सीता सोने की बनी हुइ प्रतिमा-सी जान पड़ती है। ऐसा लगता है, जैसे वह मायासुर की रची हुइ कोई माया हो” ।।

१५.
“उस के चरणों के तलवे लाल रंग के हैं। दोनों पैर सुन्दर, चिकने और सुडौल हैं तथा उन के नख तांबे-जैसे लाल हैं। सीता के उन चरणों को देख कर मेरी कामाग्नि प्रज्वलित हो उठती है” ।।

१६.
“जिस में घी की आहुति डाली गयी हो, उस अग्नि की लपट और सूर्य की प्रभा के समान इस तेजस्विनी सीता को देख कर तथा ऊँची नाक और विशाल नेत्रों से सुशोभित उस के निर्मल एवम् मनोहर मुख का अवलोकन कर के मैं अपने वश में नहीं रह गया हूँ। काम ने मुझे अपने अधीन कर लिया है” ।।

१७.
“जो क्रोध और हर्ष दोनों अवस्थाओं में समान रूप से बना रहता है, शरीर की कान्ति को फीकी कर देता है और शोक तथा संताप के समय भी कभी मन से दूर नहीं होता, उस काम ने मेरे हृदय को कलुषित (व्याकुल) कर दिया है” ।।

१८ से १९.
“विशाल नेत्रों वाली माननीय सीता ने मुझ से एक वर्ष का समय मांगा है। इस बीच में वह अपने पति श्रीराम की प्रतीक्षा करे गी। मैंने मनोहर नेत्रों वाली सीता के उस सुन्दर वचन को सुन कर उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली है?” ।।

२०.
“जैसे बड़े मार्ग में चलते-चलते घोड़ा थक जाता है, उसी प्रकार मैं भी काम पीड़ा से थकावट का अनुभव कर रहा हूँ। वैसे तो मुझे शत्रुओं की ओर से कोई डर नहीं है; क्यों कि वे वनवासी वानर अथवा वे दोनों दशरथकुमार श्रीराम और लक्ष्मण असंख्य जल-जन्तुओं तथा मत्स्यों से भरे हुए अलङ्घ्य महासागर को कैसे पार कर सकेंगे?” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१ से २२.
“अथवा एक ही वानर ने आ कर हमारे यहाँ महान् संहार मचा दिया था। इस लिये कार्य सिद्धि के उपायों को समझ लेना अत्यन्त कठिन है। अतः जिस को अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा उचित जान पड़े, वह वैसा ही बतावे। तुम सब लोग अपने विचार अवश्य व्यक्त करो। यद्यपि हमें मनुष्य से कोई भय नहीं है, तथापि तुम्हें विजय के उपाय पर विचार तो करना ही चाहिये” ।।

२३ से २४.
“उन दिनों जब देवताओं और असुरों का युद्ध चल रहा था, उस में आप सब लोगों की सहायता से ही मैंने विजय प्राप्त की थी। आज भी आप मेरे उसी प्रकार सहायक हैं। वे दोनों राजकुमार सीता का पता पा कर सुग्रीव आदि वानरों को साथ लिये समुद्र के उस तट तक पहुँच चुके हैं” ।।

२५.
“अब आपलोग आपस में विचार कीजिये और कोइ ऐसी सुन्दर नीति बताइये, जिस से सीता को लौटाना न पड़े तथा वे दोनों दशरथकुमार मारे जायँ” ।।

२६.
“वानरों के साथ समुद्र को पार कर के यहाँ तक आने की शक्ति जगत में राम के सिवा और किसी में नहीं देखता हूँ (किंतु राम और वानर यहाँ आ कर भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते), अतः यह निश्चय है कि जीत मेरी ही होगी” ।।

२७.
कामातुर रावण का यह खेद पूर्ण प्रलाप सुन कर कुम्भकर्ण को क्रोध आ गया और उस ने इस प्रकार कहा- ।।

२८.
“जब तुम लक्ष्मण सहित श्रीराम के आश्रम से एक बार स्वयम् ही मनमाना विचार कर के सीता को यहाँ बलपूर्वक हर लाये थे, उसी समय तुम्हारे चित्त को हमलोगों के साथ इस विषय में सुनिश्चित विचार कर लेना चाहिये था। ठीक उसी तरह जैसे यमुना जब पृथ्वी पर उतरने को उद्यत हुई, तभी उन्हों ने यमुनोत्री पर्वत के कुण्डविशेष को अपने जल से पूर्ण किया था (पृथ्वी पर उतर जाने के बाद उन का वेग जब समुद्र में जा कर शान्त हो गया, तब वे पुनः उस कुण्ड को नहीं भर सकतीं, उसी प्रकार तुम ने भी जब विचार करने का अवसर था, तब तो हमारे साथ बैठ कर विचार किया नहीं। अब अवसर बिता कर सारा काम बिगड़ जाने के बाद तुम विचार करने चले हो)” ।।

२९.
“महाराज! तुम ने जो यह छलपूर्वक छिप कर पर स्त्री-हरण आदि कार्य किया है, यह सब तुम्हारे लिये बहुत अनुचित है। इस पाप कर्म को करने से पहले ही आप को हमारे साथ परामर्श कर लेना चाहिये था” ।।

३०.
“दशानन! जो राजा सब राजकार्य न्यायपूर्वक करता है, उस की बुद्धि निश्चय पूर्ण होने के कारण उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता है” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
“जो कर्म उचित उपाय का अवलम्बन किये बिना ही किये जाते हैं तथा जो लोक और शास्त्र के विपरीत होते हैं, वे पाप कर्म उसी तरह दोष की प्राप्ति कराते हैं, जैसे अपवित्र आभिचारिक यज्ञों में होमे गये हविष्य” ।।

३२.
“जो पहले करनेयोग्य कार्यों को पीछे करना चाहता है और पीछे करनेयोग्य काम पहले ही कर डालता है, वह नीति और अनीति को नहीं जानता” ।।

३३.
“शत्रु लोग अपने विपक्षी के बल को अपने से अधिक देख कर भी यदि वह हर काम में चपल (जल्दबाज) है तो उस का दमन करने के लिये उसी तरह उस के छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं, जैसे पक्षी दुर्लङ्घ्य क्रौञ्च पर्वत को लाँघ कर आगे बढ़ने के लिये उस के (उस) छिद्र का? आश्रय लेते हैं (जिसे कुमार कार्तिकेय ने अपनी शक्ति का प्रहार कर के बनाया था)” ।।

३४.
“महाराज! तुम ने भावी परिणाम का विचार किये बिना ही यह बहुत बड़ा दुष्कर्म आरम्भ किया है। जैसे विषमिश्रित भोजन खाने वाले के प्राण हर लेता है, उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारा वध कर डालेंगे। उन्हों ने अभी तक तुम्हें मार नहीं डाला, इसे अपने लिये सौभाग्य की बात समझो” ।।

३५.
“अनघ! यद्यपि तुम ने शत्रुओं के साथ अनुचित कर्म आरम्भ किया है, तथापि मैं तुम्हारे शत्रुओं का संहार कर के सब को ठीक कर दूँगा” ।।

३६.
“निशाचर! तुम्हारे शत्रु यदि इन्द्र, सूर्य, अग्नि, वायु, कुबेर और वरुण भी हों तो मैं उन के साथ युद्ध करूँ गा और तुम्हारे सभी शत्रुओं को उखाड़ फेंकूँगा” ।।

३७.
“मैं पर्वत के समान विशाल एवम् तीखी दाढ़ों से युक्त शरीर धारण कर के महान् परिघ हाथ में ले समरभूमि में जूझता हुआ जब गर्जना करूँगा, उस समय देवराज इन्द्र भी भयभीत हो जायँगे” ।।

३८.
“राम मुझे एक बाण से मार कर दूसरे बाण से मारने लगें गे, उसी बीच में मैं उन का खून पी लूँगा। इस लिये तुम पूर्णतः निश्चिन्त हो जाओ” ।।

३९.
“मैं दशरथनन्दन श्रीराम का वध कर के तुम्हारे लिये सुखदायिनी विजय सुलभ कराने का प्रयत्न करूँ गा। लक्ष्मण सहित राम को मार कर समस्त वानर यूथपतियों को खा जाऊँ गा” ।।

४०.
“तुम मौज से विहार करो। उत्तम वारुणी का पान करो और निश्चिन्त हो कर अपने लिये हित कर कार्य करते रहो। मेरे द्वारा राम के यमलोक भेज दिये जाने पर सीता चिर काल के लिये तुम्हारे अधीन हो जायगी” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।

Sarg 12 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.