11. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 11

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

ग्यारहवाँ सर्ग – ३१ श्लोक ।।

सारांश ।।

रावण और उस के सभासदों का सभा भवन में एकत्र होना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।।

१.
राक्षसों का राजा रावण मिथिलेशकुमारी सीता के प्रति काम से मोहित हो रहा था, उस के हितैषी सुहृद् विभीषण आदि उस का अनादर करने लगे थे-उस के कुकृत्यों की निन्दा करते थे तथा वह सीता हरण रूपी जघन्य पाप-कर्म के कारण पापी घोषित किया गया था-इन सब कारणों से वह अत्यन्त कृश (चिन्ता युक्त एवम् दुर्बल) हो गया था ।।

२.
वह अत्यन्त काम से पीड़ित हो कर बारंबार विदेहकुमारी का चिन्तन करता था, इस लिये युद्ध का अवसर बीत जाने पर भी उस ने उस समय मन्त्रियों और सुहृदों के साथ सलाह कर के युद्ध को ही समयोचित कर्तव्य माना ।।

३.
वह सोने की जाली से आच्छादित तथा मणि एवम् मूँगों से विभूषित एक विशाल रथ पर, जिस में सुशिक्षित घोड़े जुते हुए थे; जा चढ़ा ।।

४.
महान् मेघों की गर्जना के समान घर्घराहट पैदा करने वाले उस उत्तम रथ पर आरूढ़ हो राक्षसशिरोमणि दशग्रीव सभा भवन की ओर प्रस्थित हुआ ।।

५.
उस समय राक्षसराज रावण के आगे-आगे ढाल-तलवार एवम् सब प्रकार के आयुध धारण करने वाले बहुसंख्यक राक्षस योद्धा जा रहे थे ।।

६.
इसी तरह भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित और नाना प्रकार के विकराल वेष वाले अगणित निशाचर उसे दायें-बायें और पीछे की ओर से घेर कर चल रहे थे ।।

७.
रावण के प्रस्थान करते ही बहुत-से अतिरथी वीर रथों, मतवाले गजराजों और खेल-खेल में तरह-तरह की चालें दिखाने वाले घोड़ों पर सवार हो तुरंत उस के पीछे चल दिये ।।

८.
किन्हीं के हाथों में गदा और परिघ शोभा पा रहे थे। कोइ शक्ति और तोमर लिये हुए थे। कुछ लोगों ने फरसे धारण कर रखे थे तथा अन्य राक्षसों के हाथों में शूल चमक रहे थे, फिर तो वहाँ सहस्रों वाद्यों का महान् घोष होने लगा ।।

९.
रावण के सभा भवन की ओर यात्रा करते समय तुमुल शङ्गध्वनि होने लगी। उस का वह विशाल रथ अपने पहियों की घर्घराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करता हुआ सहसा शोभाशाली राजमार्ग पर जा पहुँचा ।।

१०.
उस समय राक्षसराज रावण के ऊपर तना हुआ निर्मल श्वेत छत्र पूर्ण चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
उस के दाहिने और बायें भाग में शुद्ध स्फटिक के डंडे वाले चँवर और व्यजन, जिन में सोने की मञ्जरियाँ बनी हुई थीं, बड़ी शोभा पा रहे थे ।।

१२.
मार्ग में पृथ्वी पर खड़े हुए सभी राक्षस दोनों हाथ जोड़ रथ पर बैठे हुए राक्षसशिरोमणि रावण की सिर झुका कर वन्दना करते थे ।।

१३.
राक्षसों द्वारा की गयी स्तुति, जय-जय कार और आशीर्वाद सुनता हुआ शत्रु दमन महातेजस्वी रावण उस समय विश्वकर्मा द्वारा निर्मित राजसभा में पहुँचा ।।

१४ से १५.
उस सभा के फर्श में सोने-चांदी का काम किया हुआ था तथा बीच-बीच में विशुद्ध स्फटिक भी जड़ा गया था। उस में सोने के काम वाले रेशमी वस्त्रों की चादरें बिछी हुई थीं। वह सभा सदा अपनी प्रभा से उद्भासित होती रहती थी। छः सौ पिशाच उस की रक्षा करते थे। विश्वकर्मा ने उसे बहुत ही सुन्दर बनाया था। अपने शरीर से सुशोभित होने वाले महातेजस्वी रावण ने उस सभा में प्रवेश किया ।।

१६ से १७.
उस सभा भवन में वैदूर्य मणि (नीलम)-का बना हुआ एक विशाल और उत्तम सिंहासन था, जिस पर अत्यन्त मुलायम चमड़े वाले 'प्रियक' नामक मृग का चर्म बिछा था और उस पर मसनँद भी रखा हुआ था। रावण उसी पर बैठ गया। फिर उस ने अपने शीघ्रगामी दूतों को आज्ञा दी- ।।

१८.
“तुमलोग शीघ्र ही यहाँ बैठने वाले सुविख्यात राक्षसों को मेरे पास बुला ले आओ; क्यों कि शत्रुओं के साथ करने योग्य महान् कार्य मुझ पर आ पड़ा है। इस बात को मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ (अतः इस पर विचार करने के लिये सब सभासदों का यहाँ आना अत्यन्त आवश्यक है)” ।।

१९.
रावण का यह आदेश सुन कर वे राक्षस लङ्का में सब ओर चक्कर लगाने लगे। वे एक-एक घर, विहार स्थान, शयना गार और उद्यान में जा-जा कर बड़ी निर्भयता से उन सब राक्षसों को राजसभा में चलने के लिये प्रेरित करने लगे ।।

२०.
तब उन राक्षसों में से कोइ रथ पर चढ़ कर चले, कोई मतवाले हाथियों पर और कोइ मजबूत घोड़ों पर सवार हो कर अपने-अपने स्थान से प्रस्थित हुए। बहुत-से राक्षस पैदल ही चल दिये ।।

श्लोक २१ से ३१ ।।

२१.
उस समय दौड़ते हुए रथों , हाथियों और घोड़ों से व्याप्त हुई वह पुरी बहुसंख्यक गरुड़ों से आच्छादित हुए आकाश की भाँति शोभा पा रही थी ।।

२२.
गन्तव्य स्थान तक पहुँच कर अपने - अपने वाहनों और नाना प्रकार की सवारियों को बाहर ही रख कर वे सब सभा सद् पैदल ही उस सभा भवन में प्रविष्ट हुए , मानो बहुत - से सिंह किसी पर्वत की कन्दरा में घुस रहे हों ।।

२३.
वहाँ पहुँच कर उन सब ने राजा के पाँव पकड़े तथा राजा ने भी उन का सत्कार किया । तत्पश्चात् कुछ लोग सोने के सिंहासनों पर , कुछ लोग कुश की चटाइयों पर और कुछ लोग साधारण बिछौनों से ढकी हुई भूमि पर ही बैठ गये ।।

२४.
राजा की आज्ञा से उस सभा में एकत्र हो कर वे सब राक्षस राक्षसराज रावण के आसपास यथायोग्य आसनों पर बैठ गये ।।

२५ से २६.
यथायोग्य भिन्न - भिन्न विषयों के लिये उचित सम्मति देने वाले मुख्य - मुख्य मन्त्री , कर्तव्य- निश्चय में पाण्डित्य का परिचय देनेवाले सचिव , बुद्धिदर्शी , सर्वज्ञ , सद्गुण सम्पन्न उपमन्त्री तथा और भी बहुत - से शूरवीर सम्पूर्ण अर्थों के निश्चय के लिये और सुख प्राप्ति के उपाय पर विचार करने के लिये उस सुनहरी कान्ति वाली सभा के भीतर सैकड़ों की संख्या में उपस्थित थे ।।

२७.
तत्पश्चात् यशस्वी महात्मा विभीषण भी एक सुवर्णजटित , सुन्दर अश्वों से युक्त , विशाल , श्रेष्ठ एवम् शुभकारक रथ पर आरूढ़ हो अपने बड़े भाइ की सभा में आ पहुँचे ।।

२८.
छोटे भाई विभीषण ने पहले अपना नाम बताया , फिर बड़े भाइ के चरणों में मस्तक झुकाया। इसी तरह शुक और प्रहस्त ने भी किया। तब रावण ने उन सब को यथायोग्य पृथक्- पृथक् आसन दिये ।।

२९.
सुवर्ण एवम् नाना प्रकार की मणियों के आभूषणों से विभूषित उन सुन्दर वस्त्रधारी राक्षसों की उस सभा में सब ओर बहुमूल्य अगुरु , चन्दन तथा पुष्पहारों की सुगन्ध छा रही थी ।।

३०.
उस समय उस सभा का कोई भी सदस्य असत्य नहीं बोलता था। वे सभी सभा सद् न तो चिल्लाते थे और न जोर – जोर से बातें ही करते थे। वे सब - के - सब सफल मनोरथ एवम् भयंकर पराक्रमी थे और सभी अपने स्वामी रावण के मुँह की ओर देख रहे थे ।।

३१.
उस सभा में शस्त्रधारी महाबली मनस्वी वीरों का समागम होने पर उन के बीच में बैठा हुआ मनस्वी रावण अपनी प्रभा से उसी प्रकार प्रकाशित हो रहा था , जैसे वसुओं के बीच में वज्रधारी इन्द्र देदीप्यमान होते हैं ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 11 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.