11. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 11

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।

ग्यारहवाँ सर्ग – ४८ श्लोक ।।

सारांश ।।

“वह सीताजी नहीं हैं” - ऐसा निश्चय होने पर हनुमान्जी का पुनः अन्तःपुर में और उस की पानभूमि में सीताजी का पता लगाना, उनके मन में धर्म लोप की आशंका और स्वतः उस का निवारण होना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
फिर उस समय इस विचार को छोड़ कर महाकपि हनुमान्जी अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित हुए और वे सीताजी के विषय में दूसरे प्रकार की चिन्ता करने लगे ।।

२.
उन्होंने सोचा - “भामिनी सीता श्री रामचन्द्रजी से बिछुड़ गयी हैं। इस दशा में वे ना तो सो सकती हैं, ना भोजन ही कर सकती हैं, ना श्रृंगार एवम् अलंकार ही धारण कर सकती हैं, फिर मदिरापान का सेवन तो किसी प्रकार भी नहीं कर सकतीं” ।।

३.
“वे किसी दूसरे पुरुष के पास, वह देवताओं का भी इश्वर क्यों ना हो, नहीं जा सकतीं। देवताओं में भी कोई ऐसा नहीं है जो श्रीरामचन्द्रजी की समानता कर सके” ।।

४.
“अतः, अवश्य ही यह सीताजी नहीं, कोई दूसरी स्त्री है।” ऐसा निश्चय करके वे कपिश्रेष्ठ सीताजी के दर्शन के लिये उत्सुक हो पुनः वहाँ की मधुशाला में विचरने लगे ।।

५.
वहाँ कोइ स्त्रियां क्रीड़ा करने से थकी हुइ थीं तो कोई गीत गाने से। दूसरी नृत्य करके थक गयी थीं और कितनी ही स्त्रियां अधिक मद्यपान करके अचेत हो रही थीं ।।

६.
बहुत-सी स्त्रियां ढोल, मृदंग और चेलिका नामक वाद्यों पर अपने अंगों को टेक कर सो गयी थीं तथा दूसरी महिलाएँ अच्छे-अच्छे बिछौनों पर सोयी हुई थीं ।।

७ से ८.
वानर यूथपति हनुमान्जी ने उस पानभूमि को ऐसी सहस्रों रमणियों से संयुक्त देखा, जो भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित, रूप- लावण्यकी चर्चा करनेवाली, गीत के समुचित अभिप्रायको अपनी वाणी द्वारा प्रकट करनेवाली, देश और काल को समझनेवाली, उचित बात बोलनेवाली और रति-क्रीड़ा में अधिक भाग लेनेवाली थीं ।।

९.
दूसरे स्थान पर भी उन्होंने ऐसी सहस्रों सुन्दर युवतियों को सोते हुए देखा, जो आपस में रूप- सौन्दर्य की चर्चा करती हुइ लेट रही थीं ।।

१०.
वानर यूथपति पवनकुमार ने ऐसी बहुत सी स्त्रियों को देखा, जो देश-काल को जानने वाली, उचित बात कहने वाली तथा रतिक्रीड़ाके पश्चात् गाढ़ी निद्रा में सोयी हुई थीं ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
उन सब के बीच महाबाहु राक्षसराज रावण, विशाल गोशाला में श्रेष्ठ गौओं के बीच सोये हुए साँड की भाँति, शोभा पा रहा था ।।

१२.
जैसे वन में हाथियों से घिरा हुआ कोई महान् गजराज सो रहा हो, उसी प्रकार उस भवन में सुन्दरियों से घिरा हुआ स्वयम् राक्षसराज रावण सुशोभित हो रहा था ।।

१३ से १४.
उस महाकाय राक्षसराज के भवन में कपिश्रेष्ठ हनुमानजी ने वह पानभूमि देखी, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगों से सम्पन्न थी। उस मधुशाला में अलग-अलग मृगों, भैंसों और सूअरों के मांस रखे गये थे, जिन्हें हनुमानजी ने देखा ।।

१५ से १६.
वानरसिंह हनुमानजी ने वहाँ सोने के बड़े-बड़े पात्रों में मोर, मुर्गे, सूअर, गेंडा, साही, हिरण तथा मयूरों के मांस देखे, जो दही और नमक मिलाकर रखे गये थे। वे अभी खाये नहीं गये थे ।।

१७ से १८.
कृकल नामक पक्षी, भाँति-भाँति के बकरे, खरगोश, आधे खाये हुए भैंसे, एकशल्य नामक मत्स्य और भेड़ें- ये सब के सब राँध पकाकर रखे हुए थे। इन के साथ अनेक प्रकार की चटनियाँ भी थीं। भाँति-भाँति के पेय तथा भक्ष्य पदार्थ भी विद्यमान थे। जीभ की शिथिलता दूर करने के लिये खटाई और नमक के साथ भाँति-भाँति के राग और खाण्डव भी रखे गये थे ।।

१९.
बहुमूल्य बड़े-बड़े नूपुर और बाजूबंद जहाँ-तहाँ पड़े हुए थे। मद्यपान के पात्र इधर-उधर लुढ़काये हुए थे। भाँति-भाँति के फल भी बिखरे पड़े थे। इन सब से उपलक्षित होने वाली वह पानभूमि, जिसे फूलों से सजाया गया था, अधिक शोभा का पोषण एवम् संवर्धन कर रही थी ।।

२०.
यत्र-तत्र रखी हुई सुदृढ़ शय्याओं और सुन्दर स्वर्णमय सिंहासनों से सुशोभित होने वाली वह मधुशाला ऐसी जगमगा रही थी कि बिना आग के ही जलती हुइ सी दिखायी देती थी ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१ से २३.
अच्छी छौंक-बघार से तैयार किये गये नाना प्रकार के विविध मांस चतुर रसोइयों द्वारा बनाये गये थे और उस पानभूमि में पृथक्-पृथक् सजाकर रखे गये थे। उनके साथ ही स्वच्छ दिव्य सुराएँ (जो कदम्ब आदि वृक्षों से स्वतः उत्पन्न हुई थीं) और कृत्रिम सुराएँ (जिन्हें शराब बनाने वाले लोग तैयार करते हैं) भी वहाँ रखी गयी थीं। उनमें शर्करासव, माध्वीक, ३ पुष्पासव* और फलासव' भी थे। इन सबको नाना प्रकार के सुगन्धित चूर्णों से पृथक्-पृथक् वासित किया गया था ।।

२४.
वहाँ अनेक स्थानों पर रखे हुए नाना प्रकार के फूलों, सुवर्णमय कलशों, स्फटिक मणि के पात्रों तथा जाम्बून्द के बने हुए अन्यान्य कमण्डलुओं से व्याप्त हुई वह पानभूमि बड़ी शोभा पा रही थी ।।

२५.
चांदी और सोने के घड़ों में, जहाँ श्रेष्ठ पेय पदार्थ रखे थे, उस पानभूमि को कपिवर हनुमानजी ने वहाँ अच्छी तरह घूम-घूम कर देखा ।।

२६.
महाकपि पवनकुमार ने देखा, वहाँ मदिरा से भरे हुए सोने और मणियों के भिन्न-भिन्न पात्र रखे गये हैं ।।

२७.
किसी घड़े में आधी मदिरा शेष थी तो किसी घड़े की सारी की सारी पी ली गयी थी तथा किन्हीं-किन्हीं घड़ों में रखे हुए मद्य सर्वथा पीये नहीं गये थे । हनुमान्जी ने उन सब को देखा ।।

२८.
कहीं नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थ और कहीं पीने की वस्तुएँ अलग-अलग रखी गयी थीं और कहीं उनमें आधी-आधी सामग्री ही बची थी। उन सबको देखते हुए वे वहाँ सर्वत्र विचरने लगे ।।

२९.
उस अन्तःपुर में स्त्रियों की बहुत-सी शय्याएँ सूनी पड़ी थीं और कितनी ही सुन्दरियाँ एक ही जगह एक-दूसरी का आलिंगन किये हुए सो रही थीं ।।

३०.
निद्रा के बल से पराजित हुई कोई अबला दूसरी स्त्री का वस्त्र उतार कर उसे धारण किये उस के पास जा उसी का आलिंगन कर के सो गयी थी ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
उनकी साँस की हवा से उन के शरीर के विविध प्रकार के वस्त्र और पुष्पमाला आदि वस्तुएँ उसी तरह धीरे-धीरे हिल रही थीं, जैसे धीमी-धीमी वायु के चलने से हिला करती हैं ।।

३२ से ३३.
उस समय पुष्पक विमान में शीतल चन्दन, मद्य, मधुरस, विविध प्रकार की मालाएं, भांति- भांति के पुष्प, स्नान-सामग्री, चन्दन और धूप की अनेक प्रकार की गन्ध का भार वहन करती हुई सुगन्धित वायु सब ओर प्रवाहित हो रही थी ।।

३४.
उस राक्षसराज के भवन में कोई साँवली, कोई गोरी, कोई काली और कोई सुवर्ण के समान कान्ति वाली सुन्दर युवतियाँ सो रही थीं ।।

३५.
निद्रा के वश में होने के कारण उनका काममोहित रूप हुँदै हुए मुख वाले कमल पुष्पों के समान जान पड़ता था ।।

३६.
इस प्रकार महातेजस्वी कपिवर हनुमानजी ने रावण का सारा अन्तःपुर छान डाला तो भी वहाँ उन्हें जनकनन्दिनी सीताजी का दर्शन नहीं हुआ ।।

३७.
उन सोती हुई स्त्रियों को देखते-देखते महाकपि हनुमान्जी धर्म के भय से शंकित हो उठे। उनके हृदय में बड़ा भारी संदेह उपस्थित हो गया ।।

३८.
वे सोचने लगे कि, “इस तरह गाढ़ी निद्रा में सोयी हुई परायी स्त्रियों को देखना अच्छा नहीं है। यह तो मेरे धर्म का अत्यन्त विनाश कर डाले गा” ।।

३९.
“मेरी दृष्टि अबतक कभी परायी स्त्रियों पर नहीं पड़ी थी। यहीं आने पर मुझे परायी स्त्रियों का अपहरण करने वाले इस पापी रावण का भी दर्शन हुआ है (ऐसे पापी को देखना भी धर्म का लोप करने वाला होता है)” ।।

४०.
तदनन्तर, मनस्वी हनुमान्जी के मन में एक दूसरि विचारधारा उत्पन्न हुई। उनका चित्त अपने लक्ष्य में सुस्थिर था; अतः यह नयी विचारधारा उन्हें अपने कर्तव्य का ही निश्चय कराने वाली थी ।।

श्लोक ४१ से ४८ ।।

४१.
(वे सोचने लगे) – “इसमें संदेह नहीं कि रावण की स्त्रियाँ निःशंक सो रही थीं और उसी अवस्था में मैंने उन सब को अच्छी तरह देखा है, तथापि मेरे मन में कोई विकार नहीं उत्पन्न हुआ है” ।।

४२.
“सम्पूर्ण इन्द्रियों को शुभ और अशुभ अवस्थाओं में लगने की प्रेरणा देने में मन ही कारण है; किंतु मेरा वह मन पूर्णतः स्थिर है ( उसका कहीं राग या द्वेष नहीं है; इस लिये मेरा यह पर स्त्री- दर्शन धर्म का लोप करने वाला नहीं हो सकता )” ।।

४३.
“विदेहनन्दिनी सीताजी को दूसरी जगह मैं ढूँढ़ भी तो नहीं सकता था; क्योंकि स्त्रिय को ढूँढ़ते समय उन्हें स्त्रियों के ही बीचमें देखा जाता है” ।।

४४.
“जिस जीव की जो जाति होती है, उसी में उसे खोजा जा सकता है। खोयी हुई युवती स्त्री को हरिनियों के बीच नहीं ढूँढ़ा जा सकता है” ।।

४५.
“अतः मैंने रावण के इस सारे अन्तःपुर में शुद्ध हृदय से ही अन्वेषण किया है; किंतु यहाँ जानकीजी नहीं दिखायी देती हैं” ।।

४६.
अन्तःपुर का निरीक्षण करते हुए पराक्रमी हनुमान्जी ने देवताओं, गन्धर्वों और नागों की कन्याओं को वहाँ देखा, किंतु जनकनन्दिनी सीताजी को नहीं देखा ।।

४७.
दूसरी सुन्दरियों को देखते हुए वीर वानर हनुमान्जी ने जब वहाँ सीताजी को नहीं देखा, तब वे वहाँ से हट कर अन्यत्र जाने को उद्यत हुए ।।

४८.
फिर तो श्रीमान् पवनकुमार ने उस पानभूमि को छोड़ कर अन्य सब स्थानों में उन्हें बड़े यत्न का आश्रय लेकर खोजना आरम्भ किया ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥

Sarg 11 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.