10. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 10
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।
दसवाँ सर्ग – २९ श्लोक ।।
सारांश ।।
विभीषण का रावण के महल में जाना , उसे अपशकुनों का भय दिखा कर सीता को लौटा देने के लिये प्रार्थना करना और रावण का उन की बात न मान कर उन्हें वहाँ से विदा कर देना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१ से ७.
दूसरे दिन सबेरा होते ही धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले भीमकर्मा महातेजस्वी वीर विभीषण अपने बड़े भाई राक्षसराज रावण के घर गये। वह घर अनेक प्रासादों के कारण पर्वत शिखरों के समूह की भांति शोभा पाता था। उस की ऊँचाई भी पहाड़ की चोटी को लज्जित करती थी। उस में अलग - अलग बड़ी - बड़ी कक्षाएँ ( ड्योढ़ियाँ ) सुन्दर ढंग से बनी हुइ थीं। बहुतेरे श्रेष्ठ पुरुषों का वहाँ आना - जाना लगा रहता था। अनेकानेक बुद्धिमान् महामन्त्री , जो राजा के प्रति अनुराग रखनेवाले थे , उस में बैठे रहते थे। विश्वसनीय , हितैषी तथा कार्यसाधन में कुशल बहुसंख्यक राक्षस सब ओर से उस भवन की रक्षा करते थे। वहाँ की वायु मतवाले हाथियों के निःश्वास से मिश्रित हो बवंडर - सी जान पड़ती थी। शङ्ख – ध्वनि के समान राक्षसों का गम्भीर घोष वहाँ गूंजता रहता था। नाना प्रकार के वाद्यों के मनोरम शब्द उस भवन को निनादित करते रहते थे। रूप और यौवन के मद से मतवाली युवतियों की वहाँ भीड़ - सी लगी रहती थी। वहाँ के बड़े - बड़े मार्ग लोगों के वार्तालाप से मुखरित जान पड़ते थे। उस के फाटक तपाये हुए सुवर्ण के बने हुए थे। उत्तम सजावट की वस्तुओं से वह महल अच्छी तरह सजा हुआ था , अतएव वह गन्धर्वों के आवास और देवताओं के निवास स्थान - सा मनोरम प्रतीत होता था। रत्नराशि से परिपूर्ण होने के कारण वह नाग भवन के समान उद्भासित होता था। जैसे तेज से विस्तृत किरणों वाले सूर्य महान् मेघों की घटा में प्रवेश करते हैं , उसी प्रकार तेजस्वी विभीषण ने रावण के उस भवन में पदार्पण किया ।।
८.
वहाँ पहुँच कर उन महातेजस्वी विभीषण ने अपने भाइ की विजय के उद्देश्य से वेदवेत्ता ब्राह्मणों द्वारा किये गये पुण्याह वाचन के पवित्र घोष सुने ।।
९.
तत्पश्चात्, उन महाबली विभीषण ने वेदमन्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों का दर्शन किया , जिन के हाथों में दही और घी के पात्र थे। फूलों और अक्षतों से उन सब की पूजा की गयी थी ।।
१०.
वहाँ जाने पर राक्षसों ने उन का स्वागत - सत्कार किया। फिर उन महाबाहु विभीषण ने अपने तेज से देदीप्यमान और सिंहासन पर विराजमान कुबेर के छोटे भाई रावण को प्रणाम किया ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
तदनन्तर, शिष्टाचार के ज्ञाता विभीषण “विजयतां महाराजः” (महाराज की जय हो) इत्यादि रूप से राजा के प्रति परम्परा प्राप्त शुभाशंसा सूचक वचन का प्रयोग कर के राजा के द्वारा दृष्टि के संकेत से बताये गये सुवर्ण भूषित सिंहासन पर बैठ गये ।।
१२ से १३.
विभीषण जगत की भली-बुरी बातों को अच्छी तरह जानते थे। उन्हों ने प्रणाम आदि व्यवहार का यथार्थ रूप से निर्वाह कर के सान्त्वना पूर्ण वचनों द्वारा अपने बड़े भाई महामना रावण को प्रसन्न किया और उस से एकान्त में मन्त्रियों के निकट देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप, युक्तियों द्वारा निश्चित तथा अत्यन्त हित कारक बात कही- ।।
१४.
“शत्रुओं को संताप देनेवाले महाराज! जब से विदेहकुमारी सीता यहाँ आयी हैं, तभी से हम लोगों को अनेक प्रकार के अमंगल सूचक अपशकुन दिखायी दे रहे हैं” ।।
१५.
“मन्त्रों द्वारा विधि पूर्वक धधकाने पर भी आग अच्छी तरह प्रज्वलित नहीं हो रही है। उस से चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। उस की लपट के साथ धुआँ उठने लगता है और मन्थन काल में जब अग्नि प्रकट होती है, उस समय भी वह धूएँ से मलिन ही रहती है” ।।
१६.
“रसोइ घरों में, अग्नि शालाओं में तथा वेदाध्ययन के स्थानों में भी सांप देखे जाते हैं और हवन-सामग्रियों में चीटियाँ पड़ी दिखायी देती हैं” ।।
१७.
“गायों का दूध सूख गया है, बड़े-बड़े गजराज मद रहित हो गये हैं, घोड़े नये ग्रास से आनन्दित (भोजन से संतुष्ट) होने पर भी दीनता पूर्ण स्वर में हिनहिनाते हैं” ।।
१८.
“राजन्! गधों, ऊँटों और खच्चरों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन के नेत्रों से आँसू गिरने लगते हैं। विधि पूर्वक चिकित्सा की जाने पर भी वे पूर्णतः स्वस्थ हो नहीं पाते हैं” ।।
१९.
“क्रूर कौए झुंड-के-झुंड एकत्र हो कर कर्कश स्वर में काँव-काँव करने लगते हैं तथा वे सतमहले मकानों पर समूह-के-समूह इकट्ठे हुए देखे जाते हैं” ।।
२०.
“लंकापुरी के ऊपर झुंड-के-झुंड गीध उस का स्पर्श करते हुए-से मड़राते रहते हैं। दोनों संध्याओं के समय सियारिनें नगर के समीप आ कर अमंगल सूचक शब्द करती हैं” ।।
श्लोक २१ से २९ ।।
२१.
“नगर के सभी फाटकों पर समूह-के-समूह एकत्र हुए मांस भक्षी पशुओं के जोर-जोर से किये जाने वाले चीत्कार बिजली की गड़गड़ाहट के समान सुनायी पड़ते हैं” ।।
२२.
“वीरवर! ऐसी परिस्थिति में मुझे तो यही प्रायश्चित अच्छा जान पड़ता है कि विदेहकुमारी सीता श्रीरामचन्द्रजी को लौटा दी जायँ” ।।
२३.
“महाराज ! यदि यह बात मैंने मोह या लोभ से भी कही हो तो भी आप को मुझ में दोष दृष्टि नहीं करनी चाहिये” ॥
२४.
“सीता का अपहरण तथा इस से होने वाला अपशकुन रूपी दोष यहाँ की सारी जनता , राक्षस- राक्षसी तथा नगर और अन्तःपुर – सभी के लिये उपलक्षित होता है” ।।
२५.
“यह बात आप के कानों तक पहुँचाने में प्रायः सभी मन्त्री संकोच करते हैं ; परंतु जो बात मैंने देखी या सुनी है वह मुझे तो आप के आगे अवश्य निवेदन कर देनी चाहिये ; अतः उस पर यथोचित विचार कर के आप जैसा उचित समझें , वैसा करें” ।।
२६.
इस प्रकार भाई विभीषण ने अपने मन्त्रियों के बीच में बड़े भाई राक्षसराज रावण से ये हितकारी वचन कहे ।।
२७ से २८.
विभीषण की ये हितकर , महान् अर्थ की साधक , कोमल , युक्ति संगत तथा भूत , भविष्य और वर्तमान काल में भी कार्य साधन में समर्थ बातें सुन कर रावण को बुखार चढ़ आया। श्रीराम के साथ वैर बढ़ाने में उस की आसक्ति हो गयी थी। इस लिये उस ने इस प्रकार उत्तर दिया, “ विभीषण ! मैं तो कहीं से भी कोई भय नहीं देखता। राम मिथिलेशकुमारी सीता को कभी नहीं पा सकते। इन्द्र सहित देवताओं की सहायता प्राप्त कर लेने पर भी लक्ष्मण के बड़े भाई राम मेरे सामने संग्राम में कैसे टिक सकेंगे?” ।।
२९.
ऐसा कह कर देव सेना के नाशक और समराङ्गण में प्रचण्ड पराक्रम प्रकट करने वाले महाबली दशानन ने अपने यथार्थवादी भाई विभीषण को तत्काल विदा कर दिया ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में दसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 10 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
