05. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 05
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।
पाँचवाँ सर्ग – २३ श्लोक ।।
सारांश ।।
श्रीराम का सीताजी के लिये शोक और विलाप ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
नील ने, जिसकी विधिवत् रक्षा की व्यवस्था की गयी थी, उस परम सावधान वानरसेना को समुद्र के उत्तरि तट पर अच्छे ढंग से ठहराया ।।
२.
मैन्द और द्विविद-ये दो प्रमुख वानरवीर उस सेना की रक्षा के लिये सब ओर विचरते रहते थे ।।
३.
समुद्र के किनारे सेना का पड़ाव पड़ जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने अपने पास बैठे हुए लक्ष्मण की ओर देख कर कहा- ।।
४.
“सुमित्रानन्दन! कहा जाता है कि शोक बीतते हुए समय के साथ स्वयं भी दूर हो जाता है; परंतु मेरा शोक तो अपनी प्राणवल्लभा को न देखने के कारण दिनोंदिन बढ़ रहा है” ।।
५.
“मुझे इस बात का दुख नहीं है कि मेरी प्रिया मुझ से दूर है। उस का अपहरण हुआ – इस का भी दुख नहीं है। मैं तो बारंबार इसीलिये शोक में डूबा रहता हूँ कि उस के जीवित रहने के लिये जो अवधि नियत कर दी गयी है, वह शीघ्रतापूर्वक बीती जा रही है” ।।
६.
“हवा! तुम वहाँ बह, जहाँ मेरी प्राणवल्लभा है। उस का स्पर्श कर के मेरा भी स्पर्श कर। उस दशा में तुझ से जो मेरे अङ्गों का स्पर्श होगा, वह चन्द्रमा से होने वाले दृष्टि संयोग की भाँति मेरे सारे संताप को दूर करने वाला और आह्लादजनक होगा” ।।
७.
“अपहरण होते समय मेरी प्यारी सीता ने जो मुझे “हा नाथ!” कह कर पुकारा था, वह पीये हुए उदर स्थित विष की भाँति मेरे सारे अङ्गों को दग्ध किये देता है” ।।
८.
“प्रियतमा का वियोग ही जिस का इंधन है, उस की चिन्ता ही जिस की दीप्तिमती लपटें हैं, वह प्रेमाग्नि मेरे शरीर को रात-दिन जलाती रहती है” ।।
९.
“सुमित्रानन्दन! तुम यहीं रहो। मैं तुम्हारे बिना अकेला ही समुद्र के भीतर घुस कर सोऊँ गा। इस तरह जल में शयन करने पर यह प्रज्वलित प्रेमाग्नि मुझे दग्ध नहीं कर सकेगी” ।।
१०.
“मैं और वह वामो सीता एक ही भूतल पर सोते हैं। प्रियतमा के संयोग की इच्छा रखने वाले मुझ विरही के लिये इतना ही बहुत है। इतने से भी मैं जीवित रह सकता हूँ” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“जैसे जल से भरी हुइ क्यारी के सम्पर्क से बिना जल की क्यारी का धान भी जीवित रहता है -सूखता नहीं है, उसी प्रकार मैं जो यह सुनता हूँ कि सीता अभी जीवित है, इसी से जी रहा हूँ” ।।
१२.
“कब वह समय आये गा, जब शत्रुओं को परास्त कर के मैं समृद्धिशालिनी राजलक्ष्मी के समान कमलनयनी सुमध्यमा सीता को देखूँ गा” ।।
१३.
“जैसे रोगी रसायन का पान करता है, उसी प्रकार मैं कब सुन्दर दाँतों और बिम्बसदृश मनोहर ओठों से युक्त सीता के प्रफुल्ल कमल-जैसे मुख को कुछ ऊपर उठा कर चूमूँ गा” ।।
१४.
“मेरा आलिङ्गन करती हुई प्रिया सीता के वे परस्पर सटे हुए, तालफल के समान गोल और मोटे दोनों स्तन कब किंचित् कम्पनके साथ मेरा स्पर्श करेंगे” ।।
१५.
“कजरारे नेत्रप्रान्तवाली वह सती-साध्वी सीता, जिस का मैं ही नाथ हूँ, आज अनाथ की भाँति राक्षसों के बीच में पड़ कर निश्चय ही कोइ रक्षक नहीं पा रही होगी”।।
१६.
“राजा जनक की पुत्री, महाराज दशरथ की पुत्रवधू और मेरी प्रियतमा सीता राक्षसियों के बीच में कैसे सोती होगी” ।।
१७.
“वह समय कब आयेगा, जब कि सीता मेरे द्वारा उन दुर्धर्ष राक्षसों का विनाश कर के उसी प्रकार अपना उद्धार करेगी, जैसे शरत्काल में चन्द्रलेखा काले बादलों का निवारण कर के उन के आवरण से मुक्त हो जाती है” ।।
१८.
“स्वभाव से ही दुबले-पतले शरीर वाली सीता विपरीत देशकाल में पड़ जाने के कारण निश्चय ही शोक और उपवास कर के और भी दुर्बल हो गयी होगी” ।।
१९.
“मैं राक्षसराज रावण की छाती में अपने सायकों को धँसा कर अपने मानसिक शोक का निराकरण कर के कब सीता का शोक दूर करूँगा” ।।
२०.
“देवकन्या के समान सुन्दरी मेरी सती-साध्वी सीता कब उत्कण्ठापूर्वक मेरे गले से लग कर अपने नेत्रों से आनन्द के आँसू बहायेगी” ।।
श्लोक २१ से २३ ।।
२१.
“ऐसा समय कब आयेगा, जब मैं मिथिलेशकुमारी के वियोग से होने वाले इस भयंकर शोक को मलिन वस्त्र की भाँति सहसा त्याग दूँगा?'” ।।
२२.
बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजी वहाँ इस प्रकार विलाप कर ही रहे थे कि दिन का अन्त होने के कारण मन्द किरणों वाले सूर्यदेव अस्ताचल को जा पहुँचे ।।
२३.
उस समय लक्ष्मण के धैर्य बंधाने पर शोक से व्याकुल हुए श्रीराम ने कमलनयनी सीता का चिन्तन करते हुए संध्योपासना की। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
Sarg 05 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
