04. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 04

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

चौथा सर्ग – १२१ श्लोक ।।

सारांश ।।

श्रीराम आदि के साथ वानर सेना का प्रस्थान और समुद्र तट पर उस का पड़ाव डालना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
हनुमान्जी के वचनों को क्रमशः यथावत्रूप से सुन कर सत्यपराक्रमी महातेजस्वी भगवान् श्रीराम ने कहा- ।।

२.
“हनुमान! मैं तुमसे सच कहता हूँ-तुमने उस भयानक राक्षस की जिस लंकापुरी का वर्णन किया है, उसे मैं शीघ्र ही नष्ट कर डालूँगा” ।।

३.
“सुग्रीव! तुम इसी मुहूर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। सूर्यदेव दिन के मध्य भाग में जा पहुँचे हैं। इसलिये इस विजय नामक मुहूर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी” ।।

४.
“रावण सीता को हर कर ले जाय; किंतु वह जीवित बच कर कहाँ जाय गा? सिद्धआदि के मुँह से लङ्का पर मेरी चढ़ाइ का समाचार सुनकर सीता को अपने जीवन की आशा बंध जायगी; ठीक उसी तरह जैसे जीवन का अन्त उपस्थित होने पर यदि रोगी अमृत का (अमृतत्वके साधनभूत दिव्य ओषधि का) स्पर्श कर ले अथवा अमृतोपम द्रवभूत ओषधि को पी ले तो उसे जीने की आशा हो जाती है” ।।

५.
“आज उत्तराफाल्गुनी नामक नक्षत्र है। कल चन्द्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा। इसलिये सुग्रीव! हम लोग आज ही सारी सेनाओं के साथ यात्रा आरम्भ कर दें” ।।

६.
“इस समय जो शकुन प्रकट हो रहे हैं और जिन्हें मैं देख रहा हूँ, उन से यह विश्वास हो रहा है कि मैं अवश्य ही रावण का वध करके जनकनन्दिनी सीता को ले आऊँगा” ।।

७.
“इसके सिवा मेरी दाहिनी आंख का ऊपरी भाग फटक रहा है। वह भी मानो मेरी विजय प्राप्ति और मनोरथ सिद्धि को सूचित कर रहा है” ।।

८.
यह सुनकर वानरराज सुग्रीव तथा लक्ष्मण ने भी उनका बड़ा आदर किया। तत्पश्चात् अर्थ वेत्ता (नीतिनिपुण) धर्मात्मा श्रीराम ने फिर कहा- ।।

९.
“इस सेना के आगे-आगे एक लाख वेगवान् वानरों से घिरे हुए सेनापति नील मार्ग देखने के लिये चलें” ।।

१०.
“सेनापति नील! तुम सारी सेना को ऐसे मार्ग से शीघ्रता पूर्वक ले चलो, जिस में फल-मूल की अधिकता हो, शीतल छाया से युक्त सघन वन हो, ठंडा जल मिल सके और मधु भी उपलब्ध हो सके” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“सम्भव है दुरात्मा राक्षस रास्ते के फल - मूल और जल को विष आदि से दूषित कर दे, अतः मार्ग में सतत सावधान रहकर उनसे इन वस्तुओं की रक्षा करना” ॥

१२.
“वानरों को चाहिये कि जहाँ गड्ढे, दुर्गम वन और साधारण जंगल हों, वहाँ सब ओर कूद- फाँद कर यह देखते रहें कि कहीं शत्रुओं की सेना तो नहीं छिपी है (ऐसा न हो कि हम आगे निकल जायँ और शत्रु अकस्मात् पीछे से आक्रमण कर दे)” ।।

१३.
“जिस सेना में बाल, वृद्ध आदि के कारण दुर्बलता हो, वह यहाँ किष्किन्धा में ही रह जाय; क्योंकि हमारा यह युद्धरूपी कृत्य बड़ा भयंकर है, अतः इसके लिये बल – विक्रम सम्पन्न सेना को ही यात्रा करनी चाहिये” ।।

१४.
“सैकड़ों और हजारों महाबली कपिकेसरी वीर महासागर की जलराशि के समान भयंकर एवम् अपार वानर सेना के अग्रभाग को अपने साथ आगे बढ़ाये चलें” ।।

१५.
“पर्वत के समान विशालकाय गज, महाबली गवय तथा मतवाले साँड़ की भाँति पराक्रमी गवाक्ष सेना के आगे - आगे चलें” ।।

१६.
“उछल – कूद कर चलनेवाले कपियों के पालक वानरशिरोमणि ऋषभ इस वानर सेना के दाहिने भाग की रक्षा करते हुए चलें” ।।

१७.
“गन्धहस्ती के समान दुर्जय और वेगशाली वानर गन्धमादन इस वानर – वाहिनी के वामभाग में रहकर इस की रक्षा करते हुए आगे बढ़ें” ।।

१८.
“जैसे देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होते हैं, उसी प्रकार मैं हनुमान्क के कंधे पर चढ़ कर सेना के बीच में रह कर सारी सेना का हर्ष बढ़ाता हुआ चलूँगा” ।।

१९.
“जैसे धनाध्यक्ष कुबेर सार्वभौम नामक दिग्गज की पीठ पर बैठ कर यात्रा करते हैं, उसी प्रकार काल के समान पराक्रमी लक्ष्मण अंगद पर आरूढ़ हो कर यात्रा करें” ।।

२०.
“महाबाहु ऋक्षराज जाम्बवान्, सुषेण और वानर वेगदर्शी – ये तीनों वानर सेना के पृष्ठभाग की रक्षा करें”

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
रघुनाथजी का यह वचन सुन कर महापराक्रमी वानरशिरोमणि सेनापति सुग्रीव ने उन वानरों को यथोचित आज्ञा दी ।।

२२.
तब वे समस्त महाबली वानरगण अपनी गुफाओं और शिखरों से शीघ्र ही निकल कर उछलते - कूदते हुए चलने लगे ।।

२३.
तत्पश्चात् वानरराज सुग्रीव और लक्ष्मण के सादर अनुरोध करने पर सेना सहित धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुए ।।

२४.
उस समय सैकड़ों , हजारों , लाखों और करोड़ों वानरों से , जो हाथी के समान विशालकाय थे , घिरे हुए श्री रघुनाथजी आगे बढ़ने लगे ।।

२५.
यात्रा करते हुए श्रीराम के पीछे वह विशाल वानरवाहिनी चलने लगी। उस सेना के सभी वीर सुग्रीव से पालित होने के कारण हृष्ट - पुष्ट एवम् प्रसन्न थे ।।

२६.
उन में से कुछ वानर उस सेना की रक्षा के लिये उछलते - कूदते हुए चारों ओर चक्कर लगाते थे , कुछ मार्गशोधन के लिये कूदते- फाँदते आगे बढ़ जाते थे , कुछ वानर मेघों के समान गर्जते , कुछ सिंहों के समान दहाड़ते और कुछ किलकारियाँ भरते हुए दक्षिण दिशा की ओर अग्रसर हो रहे थे ।।

२७.
वे सुगन्धित मधु पीते और मीठे फल खाते हुए मञ्जरी पुञ्ज धारण करनेवाले विशाल वृक्षों को उखाड़ कर कंधों पर लिये चल रहे थे ।।

२८.
कुछ मतवाले वानर विनोद के लिये एक दूसरे को ढो रहे थे। कोई अपने ऊपर चढ़े हुए वानर को झटक कर दूर फेंक देते थे । कोई चलते - चलते ऊपरको उछल पड़ते थे और दूसरे वानर दूसरों – दूसरों को ऊपर से धक्के दे कर नीचे गिरा देते थे ।।

२९.
श्री रघुनाथजी के समीप चलते हुए वानर यह कहते हुए गर्जना करते थे कि “ हमें रावण को मार डालना चाहिये। समस्त निशाचरों का भी संहार कर देना चाहिये” ॥

३०.
सब से आगे ऋषभ , नील और वीर कुमुद – ये बहुसंख्यक वानरों के साथ रास्ता ठीक करते जा रहे थे ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
सेना के मध्यभाग में राजा सुग्रीव , श्रीराम और लक्ष्मण – ये तीनों शत्रुसूदन वीर अनेक बलशाली एवम् भयंकर वानरों से घिरे हुए चल रहे थे ।।

३२.
शतबलि नाम का एक वीर वानर दस करोड़ वानरों के साथ अकेला ही सारी सेना को अपने नियन्त्रण में रख कर उस की रक्षा करता था ।।

३३.
सौ करोड़ वानरों से घिरे हुए केसरी और पनस – ये सेना के एक ( दक्षिण ) भाग की तथा बहुत - से वानर सैनिकों को साथ लिये गज और अर्क — ये उस वानर सेना के दूसरे ( वाम ) भाग की रक्षा करते थे ।।

३४.
बहुसंख्यक भालुओं से घिरे हुए सुषेण और जाम्बवान् – ये दोनों सुग्रीव को आगे कर के सेना के पिछले भाग की रक्षा कर रहे थे ।।

३५.
उन सब के सेनापति कपिश्रेष्ठ वानरशिरोमणि वीरवर नील उस सेना की सब ओर से रक्षा एवम् नियन्त्रण कर रहे थे ।।

३६.
दरीमुख , प्रजङ्घ , जम्भ और रभस — ये वीर सब ओर से वानरों को शीघ्र आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए चल रहे थे ।।

३७.
इस प्रकार वे बलोन्मत्त कपि - केसरी वीर बराबर आगे बढ़ते गये। चलते - चलते उन्हों ने पर्वतश्रेष्ठ सह्यगिरि को देखा , जिस के आस - पास और भी सैकड़ों पर्वत थे ।।

३८ से ३९.
रास्ते में उन्हें बहुत - से सुन्दर सरोवर और तालाब दिखायी दिये , जिन में मनोहर कमल खिले थे। श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा थी कि रास्ते में कोई किसी प्रकार का उपद्रव न करे। भयंकर कोपवाले श्रीरामचन्द्रजी के इस आदेश को जान कर समुद्र के जलप्रवाह की भांति अपार एवम् भयंकर दिखायी देनेवाली वह विशाल वानरसेना भयभीत - सी हो कर नगरों के समीपवर्ती स्थानों और जनपदों को दूर से ही छोड़ती चली जा रही थी। विकट गर्जना करने के कारण भयानक शब्दवाले समुद्र की भाँति वह महाघोर जान पड़ती थी ।।

४०.
वे सभी शूरवीर कपिकुञ्जर हाँके गये अच्छे घोड़ों की भाँति उछलते - कूदते हुए तुरंत ही दशरथनन्दन श्रीराम के पास पहुँच जाते थे ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
हनुमान् और अंगद – इन दो वानर वीरों द्वारा ढोये जाते हुए वे नरश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण शुक्र और बृहस्पति- इन दो महाग्रहों से संयुक्त हुए चन्द्रमा और सूर्य के समान शोभा पा रहे थे ।।

४२.
उस समय वानरराज सुग्रीव और लक्ष्मण से सम्मानित हुए धर्मात्मा श्रीराम सेना सहित दक्षिण दिशा की ओर बढ़े जा रहे थे ।।

४३.
लक्ष्मणजी अंगद के कंधे पर बैठे हुए थे। वे शकुनों के द्वारा कार्यसिद्धि की बात अच्छी तरह जान लेते थे। उन्होंने पूर्णकाम भगवान् श्रीराम से मङ्गलमयी वाणी में कहा – ।।

४४ से ४५.
“रघुनन्दन! मुझे पृथ्वी और आकाश में बहुत अच्छे-अच्छे शकुन दिखायी देते हैं। ये सब आप के मनोरथ की सिद्धि को सूचित करते हैं। इनसे निश्चय होता है कि आप शीघ्र ही रावण को मार कर हरी हुई सीताजी को प्राप्त कर लेंगे और सफल मनोरथ हो कर समृद्धिशालिनी अयोध्या को पधारें गे” ।।

४६ से ४८.
“देखिये सेना के पीछे शीतल, मन्द, हितकर और सुखमय समीर चल रहा है। ये पशु और पक्षी पूर्ण मधुर स्वर में अपनी-अपनी बोली बोल रहे हैं। सब दिशाएँ प्रसन्न हैं। सूर्यदेव निर्मल दिखायी दे रहे हैं। भृगुनन्दन शुक्र भी अपनी उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित हो आप के पीछे की दिशा में प्रकाशित हो रहे हैं। जहाँ सप्तर्षियों का समुदाय शोभा पाता है, वह ध्रुवतारा भी निर्मल दिखायी देता है। शुद्ध और प्रकाशमान समस्त सप्तर्षिगण ध्रुव को अपने दाहिने रख कर उनकी परिक्रमा करते हैं” ।।

४९.
“हमारे साथ ही महामना इक्ष्वाकुवंशियों के पितामह राजर्षि त्रिशंकु अपने पुरोहित वसिष्ठजी के साथ हमलोगों के सामने ही निर्मल कान्ति से प्रकाशित हो रहे हैं” ।।

५०.
“हम महामनस्वी इक्ष्वाकुवंशियों के लिये जो सब से उत्तम है, वह विशाखा नामक युगल नक्षत्र निर्मल एवम् उपद्रवशून्य (मंगल आदि दुष्ट ग्रहों की आक्रान्ति से रहित) हो कर प्रकाशित हो रहा है” ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
“राक्षसों का नक्षत्र मूल, जिस के देवता निर्ॠरुति हैं, अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। उस मूल के नियामक धूमकेतु से आक्रान्त हो कर वह संताप का भागी हो रहा है” ।।

५२.
“यह सब कुछ राक्षसों के विनाश के लिये ही उपस्थित हुआ है; क्योंकि जो लोग कालपाश में बंधे होते हैं, उन्हीं का नक्षत्र समयानुसार ग्रहों से पीड़ित होता है” ।

५३.
“जल स्वच्छ और उत्तम रस से पूर्ण दिखायी देता है, जंगलों में पर्याप्त फल उपलब्ध हो रहे हैं, सुगन्धित वायु अधिक तीव्र गति से नहीं बह रही है और वृक्षों में ऋतुओं के अनुसार फूल लगे हुए हैं” ।।

५४.
“प्रभो! व्यूहबद्ध वानरी सेना बड़ी शोभासम्पन्न जान पड़ती है। तारकामय संग्राम के अवसर पर देवताओं की सेनाएँ जिस तरह उत्साह से सम्पन्न थीं, उसी प्रकार आज ये वानर-सेनाएँ भी हैं। आर्य! ऐसे शुभ लक्षण देख कर आप को प्रसन्न होना चाहिये” ।।

५५.
अपने भाइ श्रीराम को आश्वासन देते हुए हर्ष से भरे सुमित्राकुमार लक्ष्मण जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय वानरों की सेना वहाँ की सारी भूमि को घेर कर आगे बढ़ने लगी ।।

५६.
उस सेना में कुछ रीछ थे और कुछ सिंह के समान पराक्रमी वानर। नख और दाँत ही उन के शस्त्र थे। वे सभी वानर सैनिक हाथों और पैरों की अंगुलियों से बड़ी धूल उड़ा रहे थे ।।

५७.
उन की उड़ायी हुई उस भयंकर धूल ने सूर्य की प्रभा को ढक कर सम्पूर्ण जगत्को छिपा-सा दिया। वह भयानक वानर सेना पर्वत, वन और आकाश सहित दक्षिण दिशा को आच्छादित-सी करती हुई उसी तरह आगे बढ़ रही थी, जैसे मेघों की घटा आकाश को ढक कर अग्रसर होती है ।।

५८.
वह वानरी सेना जब किसी नदी को पार करती थी, उस समय लगातार कई योजनों तक उस की समस्त धाराएँ उलटी बहने लगती थीं ।।

५९ से ६०.
वह विशाल सेना निर्मल जल वाले सरोवर, वृक्षों से ढके हुए पर्वत, भूमि के समतल प्रदेश और फलों से भरे हुए वन-इन सभी स्थानों के मध्य में, इधर-उधर तथा ऊपर-नीचे सब ओर की सारी भूमि को घेर कर चल रही थी ।।

श्लोक ६१ से ७० ।।

६१.
उस सेना के सभी वानर प्रसन्नमुख तथा वायु के समान वेग वाले थे। रघुनाथजी की कार्यसिद्धि के लिये उन का पराक्रम उबला पड़ता था ।।

६२.
वे योवन के जोश और अभिमान जनित दर्प के कारण रास्ते में एक-दूसरे को उत्साह, पराक्रम तथा नाना प्रकार के बल-सम्बन्धी उत्कर्ष दिखा रहे थे ।।

६३ से ६४.
उन में से कोइ तो बड़ी तेजी से भूतल पर चलते थे और दूसरे उछल कर आकाश में उड़ जाते थे। कितने ही वनवासी वानर किलकारियाँ भरते, पृथ्वी पर अपनी पूँछ फटकारते और पैर पटकते थे ।।

६५.
कितने ही अपनी बाँहें फैला कर पर्वत-शिखरों और वृक्षों को तोड़ डालते थे तथा पर्वतों पर विचरने वाले बहुतेरे वानर पहाड़ों की चोटियों पर चढ़ जाते थे ।।

६६.
कोई बड़े जोर से गर्जते और कोइ सिंहनाद करते थे। कितने ही अपनी जांघों के वेग से अनेकानेक लता-समूहों को मसल डालते थे ।।

६७.
वे सभी वानर बड़े पराक्रमी थे। अँगड़ाई लेते हुए पत्थर की चट्टानों और बड़े-बड़े वृक्षों से खेल करते थे। उन सहस्त्रों, लाखों और करोड़ों वानरों से घिरी हुई सारी पृथ्वी बड़ी शोभा पा रही थी ।।

६८ से ६९.
इस प्रकार वह विशाल वानरसेना दिन - रात चलती रही। सुग्रीव से सुरक्षित सभी वानर हृष्ट- और प्रसन्न थे। सभी बड़ी उतावली के साथ चल रहे थे। सभी युद्ध का अभिनन्दन करने वाले थे और सभी सीताजी को रावण की कैद से छुड़ाना चाहते थे। इस लिये उन्होंने रास्ते में कहीं दो घड़ी भी विश्राम नहीं लिया ॥

७०.
चलते - चलते घने वृक्षों से व्याप्त और अनेकानेक काननों से संयुक्त सह्य पर्वत के पास पहुँच कर वे सब वानर उस के ऊपर चढ़ गये ।।

श्लोक ७१ से ८१ ।।

७१.
श्रीरामचन्द्रजी सह्य और मलय के विचित्र काननों , नदियों तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहे थे ॥

७२.
वे वानर मार्ग में मिले हुए चम्पा , तिलक , आम , अशोक , सिन्दुवार , तिनिश और करवीर आदि वृक्षों को तोड़ देते थे ।।

७३.
उछल – उछल कर चलने वाले वे वानरसैनिक रास्ते के अंकोल , करंज , पाकड़ , बरगद , जामुन , आँवले और नीप आदि वृक्षों को भी तोड़ डालते थे ।।

७४.
रमणीय पत्थरों पर उगे हुए नाना प्रकार के जंगली वृक्ष वायु के झोंके से झूम – झूम कर उन वानरों पर फूलों की वर्षा कर रहे थे ।।

७५.
मधु से सुगन्धित वनों में गुनगुनाते हुए भौंरों के साथ चन्दन के समान शीतल , मन्द , सुगन्ध वायु चल रही थी ।।

७६.
वह पर्वतराज गैरिक आदि धातुओं से विभूषित हो बड़ी शोभा पा रहा था। उन धातुओं से फैली हुई धूल वायु के वेग से उड़ कर उस विशाल वानरसेना को सब ओर से आच्छादित कर देती थी ।।

७७ से ७८.
रमणीय पर्वत शिखरों पर सब ओर खिली हुई केतकी , सिन्दुवार और वासन्ती लताएँ बड़ी मनोरम जान पड़ती थीं। प्रफुल्ल माधवी लताएँ सुगन्ध से भरी थीं और कुन्द की झाड़ियाँ भी फूलों से लदी हुइ थीं ।।

७९.
चिरिबिल्व , मधूक ( महुआ ) , वञ्जुल , बकुल , रंजक , तिलक और नागकेसर के वृक्ष भी वहाँ खिले हुए थे ॥

८० से ८१.
आम , पाडर और कोविदार भी फूलों से लदे थे। मुचुलिन्द , अर्जुन , शिंशपा , कुटज , हिंताल , तिनिश , चूर्णक , कदम्ब , नीलाशोक , सरल , अंकोल और पद्मक भी सुन्दर फूलों से सुशोभित थे ।।

श्लोक ८२ से ९० ।।

८२ से ८३
प्रसन्नता से भरे हुए वानरों ने उन सब वृक्षों को घेर लिया था। उस पर्वत पर बहुत-सी रमणीय बावड़ियाँ तथा छोटे-छोटे जलाशय थे, जहाँ चकवे विचरते और जल कुक्कुट निवास करते थे। जलकाक और क्रौञ्च भरे हुए थे तथा सूअर और हरिन उन में पानी पीते थे।।

८४.
रीछ, तरक्षु (लकड़बग्घे), सिंह, भयंकर बाघ तथा बहुसंख्यक दुष्ट हाथी, जो बड़े भीषण थे, सब ओर से आ-आ कर उन जलाशयों का सेवन करते थे ।।

८५.
खिले हुए सुगन्धित कमल, कुमुद, उत्पल तथा जल में होने वाले भाँति-भाँति के अन्य पुष्पों से वहाँ के जलाशय बड़े रमणीय दिखायी देते थे ।।

८६.
उस पर्वत के शिखरों पर नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे। वानर उन जलाशयों में नहाते, पानी पीते और जल में क्रीड़ा करते थे ।।

८७ से ८८.
वे आपस में एक-दूसरे पर पानी भी उछालते थे। कुछ वानर पर्वत पर चढ़ कर वहाँ के वृक्षों के अमृततुल्य मीठे फलों, मूलों और फूलों को तोड़ते थे। मधु के समान वर्णवाले कितने ही मदमत्त वानर वृक्षों में लटके और एक-एक द्रोण शहद से भरे हुए मधु के छत्तों को तोड़ कर उन का मधु पी लेते और स्वस्थ (संतुष्ट) हो कर चलते थे ।।

८९.
पेड़ों को तोड़ते, लताओं को खींचते और बड़े-बड़े पर्वतों को प्रतिध्वनित करते हुए वे श्रेष्ठ वानर तीव्र गति से आगे बढ़ रहे थे ।।

९०.
दूसरे वानर दर्प में भर कर वृक्षों से मधु के छत्ते उतार लेते और जोर-जोर से गर्जना करते थे। कुछ वानर वृक्षों पर चढ़ जाते और कुछ मधु पीने लगते थे ।।

श्लोक ९१ से १०० ।।

९१.
उन वानरशिरोमणियों से भरी हुई वहाँ की भूमि पके हुए बाल वाले कलमी धानों की क्यारियों से ढकी हुई धरती के समान सुशोभित हो रही थी ।।

९२.
कमलनयन महाबाहु श्रीरामचन्द्रजी महेन्द्र पर्वत के पास पहुँच कर भाँति-भाँति के वृक्षों से सुशोभित उस के शिखर पर चढ़ गये ।।

९३.
महेन्द्र पर्वत के शिखर पर आरूढ़ हो दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम ने कछुओं और मत्स्यों से भरे हुए समुद्र को देखा ।।

९४.
इस प्रकार वे सह्य तथा मलय को लांघ कर क्रमशः महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहुँचे, जहाँ बड़ा भयंकर शब्द हो रहा था ।।

९५.
उस पर्वत से उतर कर भक्तों के मन को रमाने वालों में श्रेष्ठ भगवान् श्रीराम सुग्रीव और लक्ष्मण के साथ शीघ्र ही सागर-तटवर्ती परम उत्तम वन में जा पहुँचे ।।

९६.
जहाँ सहसा उठी हुई जल की तरङ्गों से प्रस्तर की शिलाएँ धुल गयी थीं, उस विस्तृत सिन्धु तट पर पहुँच कर श्रीराम ने कहा- ।।

९७.
“सुग्रीव! लो, हम सब लोग समुद्र के किनारे तो आ गये। अब यहाँ मन में फिर वही चिन्ता उत्पन्न हो गयी, जो हमारे सामने पहले उपस्थित हुई थी” ।।

९८.
“इस से आगे तो यह सरिताओं का स्वामी महासागर ही विद्यमान है, जिस का कहीं पार नहीं दिखायी देता। अब बिना किसी समुचित उपाय के सागर को पार करना असम्भव है ।।

९९.
“इस लिये यहीं सेना का पड़ाव पड़ जाय और हम लोग यहाँ बैठ कर यह विचार आरम्भ करें कि किस प्रकार यह वानर-सेना समुद्र के उस पारतक पहुँच सकती है” ।।

१००.
इस प्रकार सीता हरण के शोक से दुर्बल हुए महाबाहु श्रीराम ने समुद्र के किनारे पहुँच कर उस समय सारी सेना को वहाँ ठहरने की आज्ञा दी ।।

श्लोक १०१ से १११ ।।

१०१.
वे बोले- “कपिश्रेष्ठ! समस्त सेनाओं को समुद्र के तट पर ठहराया जाय। अब यहाँ हमारे लिये समुद्र-लंघन के उपाय पर विचार करने का अवसर प्राप्त हुआ है” ।।

१०२.
“इस समय कोइ भी सेनापति किसी भी कारण से अपनी-अपनी सेना को छोड़ कर कहीं अन्यत्र न जाय। समस्त शूरवीर वानर-सेना की रक्षा के लिये यथास्थान चले जायँ। सब को यह जान लेना चाहिये कि हम लोगों पर राक्षसों की माया से गुप्त भय आ सकता है” ।।

१०३.
रामचन्द्रजी का यह वचन सुन कर लक्ष्मण सहित सुग्रीव ने वृक्षावलियों से सुशोभित सागर- तट पर सेना को ठहरा दिया ।।

१०४.
समुद्र के पास ठहरी हुई वह विशाल वानर-सेना मधु के समान पिङ्गल वर्ण के जल से भरे हुए दूसरे सागर की-सी शोभा धारण कर रही थी ।।

१०५.
सागर के तटवर्ती वन में पहुँच कर वे सभी श्रेष्ठ वानर समुद्र के उस पार जाने की अभिलाषा मन में लिये वहीं ठहर गये ।।

१०६.
वहाँ डेरा डालते हुए उन श्रीराम आदि की सेनाओं के संचरण से जो महान् कोलाहल हुआ, वह महासागर की गम्भीर गर्जना को भी दबा कर सुनायी देने लगा ।।

१०७.
सुग्रीव द्वारा सुरक्षित वह वानरों की विशाल सेना श्रीरामचन्द्रजी के कार्य-साधन में तत्पर हो रीछ, लंगूर और वानरों के भेद से तीन भागों में विभक्त हो कर ठहर गयी ।।

१०८.
महासागर के तट पर पहुँच कर वह वानर-सेना वायु के वेग से कम्पित हुए समुद्र की शोभा देखती हुई बड़े हर्ष का अनुभव कर रही थी ।।

१०९.
जिस का दूसरा तट बहुत दूर था और बीच में कोइ आश्रय नहीं था तथा जिस में राक्षसों के समुदाय निवास करते थे, उस वरुणालय समुद्र को देखते हुए वे वानर यूथपति उस के तट पर बैठे रहे ।।

११० से १११.
क्रोध में भरे हुए नाकों के कारण समुद्र बड़ा भयंकर दिखायी देता था। दिन के अन्त और रात के आरम्भ में-प्रदोष के समय चन्द्रोदय होने पर उस में ज्वार आ गया था। उस समय वह फेन- समूहों के कारण हँसता और उत्ताल तरङ्गों के कारण नाचता-सा प्रतीत होता था। चन्द्रमा के प्रतिविम्बों से भरा-सा जान पड़ता था। प्रचण्ड वायु के समान वेगशाली बड़े-बड़े ग्राहों से और तिमि नामक महामत्स्यों को भी निगल जानेवाले महाभयंकर जल-जन्तुओं से व्याप्त दिखायी देता था ।।

श्लोक ११२ से १२१ ।।

११२.
वह वरुणालय प्रदीप्त फणों वाले सर्पों, विशालकाय जलचरों और नाना पर्वतों से व्याप्त जान पड़ता था ।।

११३.
राक्षसों का निवासभूत वह अगाध महासागर अत्यन्त दुर्गम था। उसे पार करने का कोई मार्ग या साधन दुर्लभ था। उस में वायु की प्रेरणा से उठी हुइ चञ्चल तरंगे, जो मगरों और विशालकाय सर्पों से व्याप्त थीं, बड़े उल्लास से ऊपर को उठती और नीचे को उतर आती थीं ।।

११४ से ११५.
समुद्र के जल-कण बड़े चमकीले दिखायी देते थे। उन्हें देख कर ऐसा जान पड़ता था मानो सागर में आग की चिनगारियाँ बिखेर दी गयी हों। (फैले हुए नक्षत्रों के कारण आकाश भी वैसा ही दिखायी देता था।) समुद्र में बड़े-बड़े सर्प थे (आकाश में भी राहु आदि सर्पाकार ही देखे जाते थे)। समुद्र देवद्रोही दैत्यों और राक्षसों का आवास-स्थान था (आकाश भी वैसा ही था; क्यों कि वहाँ भी उन का संचरण देखा जाता था)। दोनों ही देखने में भयंकर और पाताल के समान गम्भीर थे। इस प्रकार समुद्र आकाश के समान और आकाश समुद्र के समान जान पड़ता था। समुद्र और आकाश में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था ।।

११६.
जल आकाश से मिला हुआ था और आकाश जल से , आकाश में तारे छिटके हुए थे और समुद्र में मोती। इसलिये दोनों एक - से दिखायी देते थे ।।

११७.
आकाश में मेघों की घटा घिर आयी थी और समुद्र तरङ्गमालाओं से व्याप्त हो रहा था। अतः, समुद्र और आकाश दोनों में कोई अन्तर नहीं रह गया था ।।

११८.
परस्पर टकरा कर और सट कर सिन्धुराज की लहरें आकाश में बजने वाली देवताओं की बड़ी - बड़ी भेरियों के समान भयानक शब्द करती थीं ।।

११९.
वायु से प्रेरित हो रत्नों को उछालने वाली जल की तरङ्गों के कलकल नाद से युक्त और जल- जन्तुओं से भरा हुआ समुद्र इस प्रकार ऊपर को उछल रहा था , मानो रोष से भरा हुआ हो ।।

१२०.
उन महामनस्वी वानरवीरों ने देखा , समुद्र वायु के थपेड़े खा कर पवन की प्रेरणा से आकाश में ऊँचे उठ कर उत्ताल तरङ्गों के द्वारा नृत्य - सा कर रहा था ।।

१२१.
तदनन्तर वहाँ खड़े हुए वानरों ने यह भी देखा कि चक्कर काटते हुए तरङ्ग – समूहों के कल- कल नाद से युक्त महासागर अत्यन्त चञ्चल - सा हो गया है। यह देख कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 04 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.