05. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 05
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।
पाँचवाँ सर्ग ।।
सारांश ।
राजा दशरथ के अनुरोध से वसिष्ठजी का सीता सहित श्रीराम को उपवास व्रत की दीक्षा देकर आना और राजा को इस समाचार से अवगत कराना; राजा का अन्तःपुर में प्रवेश ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
उधर महाराज दशरथ जब श्रीरामचन्द्रजी को दूसरे दिन होने वाले अभिषेक के विषय में आवश्यक संदेश दे चुके, तब अपने पुरोहित वसिष्ठजी को बुला कर बोले - ।
२.
“नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले तपोधन! आप जाइये और विघ्न निवारण रूप कल्याण की सिद्धि तथा राज्य की प्राप्ति के लिये बहू सहित श्रीराम से उपवास व्रत का पालन कराइये” ।।
३ से ४.
तब राजा से “तथास्तु” कह कर वेद वेत्ता विद्वानों में श्रेष्ठ तथा उत्तम व्रत धारी स्वयम् भगवान् वसिष्ठ मन्त्र वेत्ता वीर श्रीराम को उपवास व्रत की दीक्षा देने के लिये ब्राह्मण के चढ़ने योग्य जुते - जुता श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो श्रीराम के महल की ओर चल दिये ।।
५.
श्रीराम का भवन श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल था, उस के पास पहुँच कर मुनिवर वसिष्ठ ने उस की तीन ड्योढ़ियों में रथ के द्वारा ही प्रवेश किया ।।
६.
वहाँ पधारे हुए उन सम्माननीय महर्षि का सम्मान करने के लिये श्रीरामचन्द्रजी बड़ी उतावली के साथ वेग पूर्वक घर से बाहर निकले ।।
७.
उन मनीषी महर्षि के रथ के समीप शीघ्रता पूर्वक जा कर श्रीराम ने स्वयम् उनका हाथ पकड़ कर उन्हें रथ से नीचे उतारा ।।
८.
श्रीराम प्रिय वचन सुनने के योग्य थे। उन्हें इतना विनीत देख कर पुरोहितजी ने “वत्स!” कह कर पुकारा और उन्हें प्रसन्न कर के उन का हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार कहा- ।।
९.
“श्रीराम! तुम्हारे पिता तुम पर बहुत प्रसन्न हैं, क्योंकि तुम्हें उन से राज्य प्राप्त होगा; अतः आज की रात तुम वधू सीता के साथ उपवास करो” ।।
१०.
“रघुनन्दन! जैसे नहुष ने ययाति का अभिषेक किया था, उसी प्रकार तुम्हारे पिता महाराज दशरथ कल प्रातःकाल बड़े प्रेम से तुम्हारा युवराज- पद पर अभिषेक करें गे” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
ऐसा कह कर उन व्रतधारी एवम् पवित्र महर्षि ने मन्त्रोच्चारण पूर्वक सीता सहित श्रीराम को उस समय उपवास- व्रत की दीक्षा दी ।।
१२.
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी ने महाराज के भी गुरु वसिष्ठ का यथावत् पूजन किया; फिर, वे मुनि श्रीराम की अनुमति ले उनके महल से बाहर निकले ।।
१३.
श्रीराम भी वहाँ प्रियवचन बोलनेवाले सुहृदों के साथ कुछ देर तक बैठे रहे; फिर उन से सम्मानित हो उन सब की अनुमति ले पुनः अपने मह लके भीतर चले गये ।।
१४.
उस समय श्रीराम का भवन हर्षोत्फुल्ल नरनारियों से भरा हुआ था और मतवाले पक्षियों के कलरवों से युक्त खिले हुए कमल वाले तालाब के समान शोभा पा रहा था ।।
१५.
राजभवनों में श्रेष्ठ श्रीराम के महल से बाहर आ कर वसिष्ठजी ने सारे मार्ग मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए देखे ।।
१६.
अयोध्या की सड़कों पर सब ओर झुंड के झुंड मनुष्य, जो श्रीराम का राज्याभिषेक देखने के लिये उत्सुक थे, खचाखच भरे हुए थे; सारे राजमार्ग उन से घिरे हुए थे ।।
१७.
जन समुदाय रूपी लहरों के परस्पर टकराने से उस समय जो हर्ष ध्वनि प्रकट होती थी, उससे व्याप्त हुआ राजमार्ग का कोलाहल समुद्र की गर्जना की भाँति सुनायी देता था ।।
१८.
उस दिन वनो और उपवनों की पंक्तियों से सुशोभित हुइ अयोध्या पुरी के घर-घर में ऊँची- ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही थीं; वहाँ की सभी गलियों और सड़कों को झाड़ बुहार कर वहाँ छिड़काव किया गया था ।।
१९.
स्त्रियों और बालकों सहित अयोध्या वासी जनसमुदाय श्रीराम के राज्याभिषेक को देखने की इच्छा उस समय शीघ्र सूर्योदय होने की कामना कर रहा था ।।
२०.
अयोध्या का वह महान् उत्सव प्रजाओं के लिये अलंकार रूप और सब लोगों के आनन्द को बढ़ाने वाला था; वहाँ के सभी मनुष्य उसे देखने के लिये उत्कण्ठित हो रहे थे ।।
श्लोक २१ से २६ ।।
२१.
इस प्रकार मनुष्यों की भीड़ से भरे हुए राज मार्ग पर पहुँच कर पुरोहितजी उस जनसमूह को एक ओर करते हुए-से धीरे-धीरे राजमहल की ओर गये ।।
२२.
श्वेत जलद खण्ड के समान सुशोभित होने वाले महल के ऊपर चढ़ कर वसिष्ठजी राजा दशरथ से उसी प्रकार मिले, जैसे बृहस्पति देवराज इन्द्र से मिल रहे हों ।।
२३.
उन्हें आया देख राजा सिंहासन छोड़ कर खड़े हो गये और पूछने लगे- “मुने! क्या आप ने मेरा अभिप्राय सिद्ध किया?” वसिष्ठजी ने उत्तर दिया, “हाँ! कर दिया” ।।
२४.
उन के साथ ही उस समय वहाँ बैठे हुए अन्य सभासद भी पुरोहित का समादर करते अपने-अपने आसनों से उठ कर खड़े हो गये ।।
२५.
तदनन्तर गुरुजी की आज्ञा ले राजा दशरथ ने उस जनसमुदाय को विदा कर के पर्वत की कन्दरा में घुसने वाले सिंह के समान अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया ।।
२६.
सुन्दर वेश-भूषा धारण करने वाली सुन्दरियों से भरे हुए इन्द्रसदन के समान उस मनोहर राजभवन को अपनी शोभा से प्रकाशित करते हुए राजा दशरथ ने उस के भीतर उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे चन्द्रमा ताराओं से भरे हुए आकाश में पदार्पण करते हैं ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५॥
Sarg 5 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.