04. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 04

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

चौथा सर्ग ।।

सारांश ।

श्रीराम को राज्य देने का निश्चय कर के राजा का सुमन्त्र द्वारा पुनः श्रीराम को बुलवा कर उन्हें आवश्यक बातें बताना, श्रीराम का कौसल्या के भवन में जा कर माता को यह समाचार बताना और माता का आशीर्वाद पा कर लक्ष्मण से प्रेम पूर्वक वार्तालाप कर के अपने महल में जाना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१ से २.
राज सभा से पुरवासियों के चले जाने पर कार्य सिद्धि के योग्य देश – काल के नियम को जानने वाले प्रभावशाली नरेश ने पुनः मन्त्रियों के साथ विचार करके यह निश्चय किया कि “कल ही पुष्य नक्षत्र होगा, अतः कल ही मुझे अपने पुत्र कमलनयन श्रीराम का युवराज के पद पर अभिषेक कर देना चाहिये” ।।

३.
तदनन्तर अन्तःपुर में जा कर महाराज दशरथ ने सूत को बुलाया और आज्ञा दी, “जाओ, श्रीराम को एक बार फिर यहाँ बुला लाओ” ।।

४.
उन की आज्ञा शिरोधार्य कर के सुमन्त्र श्रीराम को शीघ्र बुला लाने के लिये पुनः उन के महल में गये ।।

५.
द्वारपालों ने श्रीराम को सुमन्त्र के पुनः आगमन की सूचना दी । उन का आगमन सुनते ही श्रीराम के मन में संदेह हो गया ।।

६.
उन्हें भीतर बुला कर श्रीराम ने उन से बड़ी उतावली के साथ पूछा, “आप को पुनः यहाँ आने की क्या आवश्यकता आ पड़ी?" यह पूर्ण रूप से बताइये” ।।

७.
तब सूत ने उन से कहा, “महाराज आप से मिलना चाहते हैं । मेरी इस बात को सुन कर वहाँ जाने या ना जाने का निर्णय आप स्वयम् करें” ।।

८.
सूत का यह वचन सुन कर श्रीरामचन्द्रजी महाराज दशरथ का पुनः दर्शन करने के लिये तुरंत उन के भवन की ओर चल दिये ।।

९.
श्रीराम को आया हुआ सुन कर राजा दशरथ ने उन से प्रिय तथा उत्तम बात कहने के लिये उन्हें भवन के भीतर बुला लिया ।।

१०.
पिता के भवन में प्रवेश करते ही श्रीमान् रघुनाथजी ने उन्हें देखा और दूर से ही हाथ जोड़ कर वे उन के चरणों में पड़ गये ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
प्रणाम करते हुए श्रीराम को उठा कर महाराज ने छाती से लगा लिया और उन्हें बैठने के लिये आसन दे कर पुनः उन से इस प्रकार कहना आरम्भ किया- ।।

१२.
“श्रीराम! अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। मेरी आयु बहुत अधिक हो गयी है। मैंने बहुत से मनोवाञ्छित भोग भोग लिये, अन्न और बहुत सी दक्षिणाओं से युक्त सैकड़ों यज्ञ भी कर लिये हैं” ।।

१३.
“पुरुषोत्तम! तुम मेरे परम प्रिय अभीष्ट संतान के रूप में प्राप्त हुए हो, जिसकी इस भूमण्डल में कहीं उपमा नहीं है । मैंने दान, यज्ञ और स्वाध्याय भी कर लिये हैं” ।।

१४.
“वीर! मैंने अभीष्ट सुखों का भी अनुभव कर लिया है। मैं देवताओं, ऋषिओं, पितरों और ब्राह्मणों के तथा अपने ऋण से भी उऋण हो गया हूँ” ।।

१५.
“अब तुम्हें युवराज के पद पर अभिषिक्त करने के सिवा और कोई कर्तव्य मेरे लिये शेष नहीं रह गया है, अतः मैं तुम से जो कुछ कहूँ, मेरी उस आज्ञा का तुम्हें पालन करना चाहिये” ।।

१६.
“बेटा! अब सारी प्रजा तुम्हें अपना राजा बनाना चाहती है, अतः मैं तुम्हें युवराज के पद पर अभिषिक्त करूँगा” ।।

१७.
“रघुकुलनन्दन श्रीराम! आज कल मुझे बड़े बुरे सपने दिखायी देते हैं । दिन में वज्रपात के साथ साथ बड़ा भयंकर शब्द करने वाली उल्काएँ भी गिर रही हैं” ।।

१८.
“श्रीराम! ज्योतिषियों का कहना है कि मेरे जन्म नक्षत्र को सूर्य, मङ्गल और राहु नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रान्त कर लिया है” ।।

१९.
“ऐसे अशुभ लक्षणों का प्राकट्य होने पर प्रायः राजा घोर आपत्ति में पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा उस की मृत्यु भी हो जाती है” ।।

२०.
“अतः रघुनन्दन! जब तक मेरे चित्त में मोह नहीं छा जाता, तब तक ही तुम युवराज के पद पर अपना अभिषेक करा लो; क्योंकि प्राणियों की बुद्धि चञ्चल होती है” ॥

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“आज चन्द्रमा पुष्य से एक नक्षत्र पहले पुनर्वसुपर विराजमान हैं, अतः निश्चय ही कल वे पुष्य नक्षत्र पर रहें गे ऐसा ज्योतिषी कहते हैं” ।।

२२.
“इस लिये उस पुष्य नक्षत्र में ही तुम अपना अभिषेक करा लो । शत्रुओं को संताप देनेवाले वीर! मेरा मन इस कार्य में बहुत शीघ्रता करने को कहता है । इस कारण कल अवश्य ही मैं तुम्हारा युवराजपद पर अभिषेक कर दूँगा” ।।

२३.
“अतः तुम इस समय से लेकर सारी रात इन्द्रिय संयम पूर्वक रहते हुए वधू सीता के साथ उपवास करो और कुशा की शय्या पर सोओ” ।।

२४.
“आज तुम्हारे सुहृद् सावधान रह कर सब ओर से तुम्हारी रक्षा करें; क्योंकि इस प्रकार के शुभ कार्यों में बहुत से विघ्न आने की सम्भावना रहती है” ।।

२५.
“जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहाँ निवास करते हैं, तब तक ही तुम्हारा अभिषेक हो जाना मुझे उचित प्रतीत होता है” ।।

२६ से २७.
“इस में संदेह नहीं कि तुम्हारे भाई भरत सत्पुरुषों के आचार-व्यवहार में स्थित हैं, अपने बड़े भाइ का अनुसरण करने वाले, धर्मात्मा, दयालु और जितेन्द्रिय हैं तथापि मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता – ऐसा मेरा मत है । रघुनन्दन! धर्मपरायण सत्पुरुषों का मन भी विभिन्न कारणों से राग-द्वेषादि से संयुक्त हो जाता है” ।।

२८.
राजा के इस प्रकार कहने और कल होने वाले राज्याभिषेक के निमित्त व्रत पालन के लिये जाने की आज्ञा देने पर श्रीरामचन्द्रजी पिता को प्रणाम कर के अपने महल में चले गये ।।

२९.
राजा ने राज्याभिषेक के लिये व्रत पालन के निमित्त जो आज्ञा दी थी, उसे सीता को बताने के लिये अपने महल के भीतर प्रवेश कर के जब श्रीराम ने वहाँ सीता को नहीं देखा, तब वे तत्काल ही वहाँ से निकल कर माता के अन्तःपुर में चले गये ।।

३०.
वहाँ जा कर उन्हों ने देखा कि माता कौसल्या रेशमी वस्त्र पहने मौन हो देव मन्दिर में बैठ कर देवता की आराधना में लगी हैं और पुत्र के लिये राज लक्ष्मी की याचना कर रही हैं ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
श्रीराम के राज्याभिषेक का प्रिय समाचार सुन कर माता सुमित्रा और लक्ष्मण वहाँ पहले से ही आ गये थे तथा बाद में सीता को भी वहीं बुला लिया गया था ।।

३२.
श्रीरामचन्द्रजी जब वहाँ पहुँचे, उस समय भी कौसल्या नेत्र बंद किये ध्यान लगाये बैठी थीं और सुमित्रा, सीता तथा लक्ष्मण उन की सेवा में खड़े थे ।।

३३.
पुष्य नक्षत्र के योग में पुत्र के युवराजपद पर अभिषिक्त होने की बात सुन कर वे उस की मङ्गल कामना से प्राणायाम के द्वारा परमपुरुष नारायण का ध्यान कर रही थीं ।।

३४.
इस प्रकार नियम में लगी हुई माता के निकट उसी अवस्था में जा कर श्रीराम ने उन को प्रणाम किया और उन्हें हर्ष प्रदान करते हुए यह श्रेष्ठ बात कही - ।।

३५ से ३६.
“माँ! पिताजी ने मुझे प्रजापालन के कर्म में नियुक्त किया है। कल मेरा अभिषेक होगा। जैसा कि मेरे लिये पिताजी का आदेश है, उस के अनुसार सीता को भी मेरे साथ इस रात में उपवास करना होगा। उपाध्यायों ने ऐसी ही बात बतायी है, जिसे पिताजी ने मुझ से कहा है” ।

३७.
“अतः कल होने वाले अभिषेक के निमित्त से आज मेरे और सीता के लिये जो-जो मङ्गलकार्य आवश्यक हों, वे सब करवाइए” ।।

३८.
चिर काल से माता के हृदय में जिस बात की अभिलाषा थी, उस की पूर्ति को सूचित करने वाली यह बात सुन कर माता कौसल्या ने आनन्द के आँसू बहाते हुए गद्गद कण्ठ से इस प्रकार कहा- ।।

३९.
“बेटा श्रीराम! चिरञ्जीवी होओ। तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु नष्ट हो जायँ । तुम राज लक्ष्मी से युक्त हो कर मेरे और सुमित्रा के बन्धु बान्धवों को आनन्दित करो” ।।

४०.
“बेटा! तुम मेरे द्वारा किसी मङ्गलमय नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे, जिससे तुम ने अपने गुणों द्वारा पिता दशरथ को प्रसन्न कर लिया है” ।।

श्लोक ४१ से ४५ ।।

४१.
“बड़े हर्ष की बात है कि मैंने कमलनयन भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये जो व्रत और उपवास आदि किये थे, वह आज सफल हो गये । बेटा! उसी के फल से यह इक्ष्वाकु कुल की राजलक्ष्मी तुम्हें प्राप्त होनेवाली है” ।।

४२.
माता के ऐसा कहने पर श्रीराम ने विनीत भाव से हाथ जोड़ कर खड़े हुए अपने भाइ लक्ष्मण की ओर देख कर मुसकराते हुए से कहा- ।।

४३.
“लक्ष्मण! तुम मेरे साथ इस पृथ्वी के राज्य का शासन (पालन) करो । तुम मेरे द्वितीय अन्तरात्मा हो । यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है” ।।

४४.
“सुमित्रानन्दन! तुम अभीष्ट भोगों और राज्य के श्रेष्ठ फलों का उपभोग करो । तुम्हारे लिये ही मैं इस जीवन तथा राज्य की अभिलाषा करता हूँ” ।।

४५.
लक्ष्मण से ऐसा कह कर श्रीराम ने दोनों माताओं को प्रणाम किया और सीता को भी साथ चलने की आज्ञा दिला कर वे उन को लिये हुए अपने महल में चले गये ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ ॥ ॥

Sarg 4 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.