03. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 03

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

तीसरा सर्ग – ३३ श्लोक ।।

सारांश ।।

हनुमान्जी का लङ्का के दुर्गों, फाटकों, सेना-विभागों और संक्रम आदि का वर्णन करके भगवान् श्रीरामजी से सेना को कूच करने की आज्ञा देने के लिये प्रार्थना करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
सुग्रीव के ये युक्तियुक्त और उत्तम अभिप्राय से पूर्ण वचन सुन कर श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें स्वीकार किया और फिर हनुमान्जी से कहा- ।।

२.
“मैं तपस्या से पुल बांध कर और समुद्र को सुखा कर सब प्रकार से महासागर को लांघ जाने में समर्थ हूँ” ।।

३.
“वानरवीर! तुम मुझे यह तो बताओ कि उस दुर्गम लंकापुरी के कितने दुर्ग हैं। मैं देखे हुए के समान उस का सारा विवरण स्पष्टरूप से जानना चाहता हूँ” ।।

४ से ५.
“तुम ने रावण की सेना का परिमाण, पुरी के दरवाजों को दुर्गम बनाने के साधन, लङ्का की रक्षा के उपाय तथा राक्षसों के भवन-इन सब को सुखपूर्वक यथावत्-रूप से वहाँ देखा है। अतः, इन सब का ठीक-ठीक वर्णन करो; क्योंकि तुम सब प्रकार से कुशल हो” ।।

६.
श्री रघुनाथजी का यह वचन सुन कर वाणी के मर्म को समझनेवाले विद्वानों में श्रेष्ठ पवनकुमार हनुमान्जी ने श्रीरामजी से फिर कहा- ।।

७ से ९.
“भगवन्! सुनिये। मैं सब बातें बता रहा हूँ। लङ्का के दुर्ग किस विधि से बने हैं, किस प्रकार लंकापुरी की रक्षा की व्यवस्था की गयी है, किस तरह वह सेनाओं से सुरक्षित है, रावण के तेज से प्रभावित हो राक्षस उस के प्रति कैसा स्नेह रखते हैं, लंका की समृद्धि कितनी उत्तम है, समुद्र कितना भयंकर है, पैदल सैनिकों का विभाग कर के कहाँ कितने सैनिक रखे गये हैं और वहाँ के वाहनों की कितनी संख्या है-इन सब बातों का मैं वर्णन करूँ गा”, ऐसा कह कर कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी ने वहाँ की बातों को ठीक-ठीक बताना आरम्भ किया ।।

१०.
“प्रभो! लंकापुरी हर्ष और आमोद-प्रमोद से पूर्ण है। वह विशाल पुरी मतवाले हाथियों से व्याप्त तथा असंख्य रथों से भरी हुई है। राक्षसों के समुदाय सदा उस में निवास करते हैं” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“उस पुरी के चार बड़े-बड़े दरवाजे हैं, जो बहुत लंबे-चौड़े हैं। उन में बहुत मजबूत किवाड़ लगे हैं और मोटी-मोटी अर्गलाएँ हैं” ।।

१२.
“उन दरवाजों पर बड़े विशाल और प्रबल यन्त्र लगे हैं, जो तीर और पत्थरों के गोले बरसाते हैं। उन के द्वारा आक्रमण करनेवाली शत्रुसेना को आगे बढ़ने से रोका जाता है” ।।

१३.
“जिन्हें वीर राक्षसगणों ने बनाया है, जो काले लोहे की बनी हुई, भयंकर और तीखी हैं तथा जिन का अच्छी तरह संस्कार किया गया है, ऐसी सैकड़ों शतघ्नियाँ (लोहे के काटों से भरी हुइ चार हाथ लंबी गदाएँ) उन दरवाजों पर सजा कर रखी गयी हैं” ।।

१४.
“उस पुरी के चारों ओर सोने का बना हुआ बहुत ऊँचा परकोटा है, जिस को तोड़ना बहुत ही कठिन है। उस में मणि, मूंगे, नीलम और मोतियों का काम किया गया है” ।।

१५.
“परकोटों के चारों ओर महाभयंकर, शत्रुओं का महान् अमंगल करनेवाली, ठंडे जल से भरी हु०इ और अगाध गहरा इसे युक्त कठइ खाइयाँ बनी हुई हैं, जिन में ग्राह और बड़े-बड़े मत्स्य निवास करते हैं” ।।

१६.
“उक्त चारों दरवाजों के सामने उन खाइयों पर मचानों के रूप में चार संक्रम (लकड़ी के पुल) हैं, जो बहुत ही विस्तृत हैं। उन में बहुत-से बड़े-बड़े यन्त्र लगे हुए हैं और उन के आस-पास परकोटे पर बने हुए भवनो की पंक्तियाँ हैं” ।।

१७.
“जब शत्रु की सेना आती है, तब यन्त्रों के द्वारा उन संक्रमों की रक्षा की जाती है तथा उन यन्त्रों के द्वारा ही उन्हें सब ओर खाइयों में गिरा दिया जाता है और वहाँ पहुँची हुइ शत्रु- सेनाओं को भी सब ओर फेंक दिया जाता है” ।।

१८.
“उनमें से एक संक्रम तो बड़ा ही सुदृढ़ और अभेद्य है। वहाँ बहुत बड़ी सेना रहती है और वह सोने के अनेक खंभों तथा चबूतरों से सुशोभित है” ।।

१९.
“रघुनाथजी! रावण युद्ध के लिये उत्सुक होता हुआ स्वयम् कभी क्षुब्ध नहीं होता-स्वस्थ एवम् धीर बना रहता है। वह सेनाओं के बारंबार निरीक्षण के लिये सदा सावधान एवम् उद्यत रहता है” ।।

२०.
“लङ्का पर चढ़ाई करने के लिये कोइ अवलम्ब नहीं है। वह पुरी देवताओं के लिये भी दुर्गम और बड़ी भयावनी है। उस के चारों ओर नदी, पर्वत, वन और कृत्रिम (खाइ, परकोटा आदि)-ये चार प्रकार के दुर्ग हैं” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“रघुनन्दन! वह बहुत दूर तक फैले हुए समुद्र के दक्षिण किनारे पर बसी हुई है। वहाँ जाने के लिये नाव का भी मार्ग नहीं है; क्योंकि उस में लक्ष्य का भी किसी प्रकार पता रहना सम्भव नहीं है” ।।

२२.
“वह दुर्गम पुरी पर्वत के शिखर पर बसायी गयी है और देवपुरी के समान सुन्दर दिखायी देती है, हाथियों और घोड़ों से भरी हुइ वह लङ्का अत्यन्त दुर्जय है” ।।

२३.
“खाइयां, शतघ्नियां और तरह-तरह के यन्त्र दुरात्मा रावण की उस लंका नगरी की शोभा बढ़ाते हैं” ।।

२४.
“लङ्का के पूर्व द्वार पर दस हजार राक्षस रहते हैं, जो सब-के-सब हाथों में शूल धारण करते हैं। वे अत्यन्त दुर्जय और युद्ध के मुहाने पर तलवारों से जूझनेवाले हैं” ।।

२५.
“लंका के दक्षिण द्वार पर चतुरंगिणी सेना के साथ एक लाख राक्षस योद्धा डटे रहते हैं। वहाँ के सैनिक भी बड़े बहादुर हैं” ।।

२६.
“पुरी के पश्चिम द्वार पर दस लाख राक्षस निवास करते हैं। वे सब-के-सब ढाल और तलवार धारण करते हैं तथा सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञान में निपुण हैं” ।।

२७.
“उस पुरी के उत्तर द्वार पर एक अर्बुद (दस करोड़) राक्षस रहते हैं। जिन में से कुछ तो रथी हैं और कुछ घुड़सवार। वे सभी उत्तम कुल में उत्पन्न और अपनी वीरता के लिये प्रशंसित हैं” ।।

२८.
“लङ्का के मध्यभाग की छावनी में सैकड़ों सहस्त्र दुर्जय राक्षस रहते हैं, जिन की संख्या एक करोड़ से भी अधिक है” ।।

२९.
“किंतु मैंने उन सब संक्रमों को तोड़ डाला है, खाइयाँ पाट दी हैं, लंकापुरी को जला दिया है और उस के परकोटों को भी धराशायी कर दिया है। इतना ही नहीं, वहाँ के विशालकाय राक्षसों की सेना का एक चौथाई भाग नष्ट कर डाला है” ।।

३०.
“हमलोग किसी-न-किसी मार्ग या उपाय से एक बार समुद्र को पार कर लें; फिर तो लंका को वानरों के द्वारा नष्ट हुआ ही समझिये” ।।

श्लोक ३१ से ३३ ।।

३१.
“अङ्गद, द्विविद, मैन्द, जाम्बवान्, पनस, नल और सेनापति नील-इतने ही वानर लंका विजय करने के लिये पर्याप्त हैं। बाकी सेना लेकर आप को क्या करना है?” ।।

३२.
“रघुनन्दन! ये अङ्गद आदि वीर आकाश में उछलते-कूदते हुए रावण की महापुरी लंका में पहुँच कर उसे पर्वत, वन, खाइ, दरवाजे, परकोटे और मकानों सहित नष्ट कर के सीताजी को यहाँ ले आयेंगे” ।।

३३.
“ऐसा समझ कर आप शीघ्र ही समस्त सैनिकों को सम्पूर्ण आवश्यक वस्तुओं का संग्रह कर के कूच करने की आज्ञा दीजिये और उचित मुहूर्त से प्रस्थान की इच्छा कीजिये” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 03 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.