03. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 03

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

तीसरा सर्ग ।।

सारांश ।

राजा दशरथ का वसिष्ठ और वामदेव जी को श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी करने के लिये कहना और उन का सेवकों को तदनुरूप आदेश देना; राजा की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम को राजसभा में बुला लाना और राजा का अपने पुत्र श्रीराम को हितकर राजनीति की बातें बताना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
सभा सदों ने कमल पुष्प की-सी आकृति वाली अपनी अञ्जलियों को सिर से लगा कर सब प्रकार से महाराज के प्रस्ताव का समर्थन किया; उनकी वह पद्माञ्जलि स्वीकार कर के राजा दशरथ उन सब से प्रिय और हितकारी वचन बोले - ।।

२.
“अहो! आप लोग जो मेरे परम प्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को युवराज के पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं इस से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है तथा मेरा प्रभाव अनुपम हो गया है” ।।

३.
इस प्रकार की बातों से पुरवासी तथा अन्यान्य सभा सदों का सत्कार कर के राजा ने उनके सुनते हुए ही वामदेव और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणों से इस प्रकार कहा- ।।

४.
“यह चैत्रमास बड़ा सुन्दर और पवित्र है, इस में सारे वन-उपवन खिल उठे हैं; अतः इस समय श्रीराम का युवराज पद पर अभिषेक करने के लिये आप लोग सब सामग्री एकत्र कराइये” ।।

५.
राजा की यह बात समाप्त होने पर सब लोग हर्ष के कारण महान् कोलाहल करने लगे । धीरे-धीरे उस जनरव शान्त होने पर प्रजापालक नरेश दशरथ ने मुनिप्रवर वसिष्ठ से यह बात कही - ।।

६.
“भगवन्! श्रीराम के अभिषेक के लिये जो कर्म आवश्यक हो, उसे साङ्गोपाङ्ग बताइये और आज ही उस सब की तैयारी करने के लिये सेवकों को आज्ञा दीजिये” ।।

७.
महाराज का यह वचन सुन कर मुनिवर वसिष्ठ ने राजा के सामने ही हाथ जोड़ कर खड़े हुए आज्ञा पालन के लिये तैयार रहनेवाले सेवकों से कहा- ।।

८ से १२.
“तुम लोग सुवर्ण आदि रत्न, देव पूजन की सामग्री, सब प्रकार की ओषधियाँ, श्वेत पुष्पों की मालाएँ, खील, अलग-अलग पात्रों में शहद और घी, नये वस्त्र, रथ, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, चतुरङ्गिणी सेना, उत्तम लक्षणों से युक्त हाथी, चमरी गाय की पूँछ के बालों से बने हुए दो व्यजन, ध्वज, श्वेत छत्र, अग्नि के समान देदीप्यमान सोने के सौ कलश, सुवर्ण से मढ़े हुए सींगों वाला एक साँड, समूचा व्याघ्रचर्म तथा और जो कुछ भी वांछनीय वस्तुएँ हैं, उन सब को एकत्र करो और प्रातःकाल महाराज की अग्निशाला में पहुँचा दो” ।।

श्लोक १३ से २०

१३.
“अन्तःपुर तथा समस्त नगर के सभी दरवाजों को चन्दन और मालाओं से सजा दो तथा वहाँ ऐसे धूप सुलगा दो जो अपनी सुगन्ध से लोगों को आकर्षित कर लें” ।।

१४.
“दही, दूध और घी आदि से संयुक्त अत्यन्त उत्तम एवम् गुणकारी अन्न तैयार कराओ, जो एक लाख ब्राह्मणों के भोजन के लिये पर्याप्त हो” ।।

१५.
“कल प्रातः काल श्रेष्ठ ब्राह्मणों का सत्कार कर के उन्हें वह अन्न प्रदान करो; साथ ही घी, दही, खील और पर्याप्त दक्षिणाएँ भी दो” ।।

१६.
“कल सूर्योदय होते ही स्वस्तिवाचन होगा, इसके लिये ब्राह्मणों को निमन्त्रित करो और उनके लिये आसनों का प्रबन्ध कर लो” ।।

१७.
“नगर में सब ओर पताकाएँ फहरायी जायँ तथा राजमार्गों पर छिड़काव कराया जाय । समस्त तालजीवी (संगीतनिपुण) पुरुष और सुन्दर वेषभूषा से विभूषित वाराङ्गनाएँ (नर्तकियाँ) राजमहल की दूसरी कक्षा (ड्यौढ़ी) में पहुँच कर खड़ी रहें” ।।

१८.
“देव-मन्दिरों में तथा चैत्य वृक्षों के नीचे या चौराहों पर जो पूजनीय देवता हैं, उन्हें पृथक्- पृथक् भक्ष्य-भोज्य पदार्थ एवम् दक्षिणा प्रस्तुत करनी चाहिये” ।।

१९.
“लंबी तलवार लिये और गोधाचर्मके बने दस्ताने पहने और कमर कस कर तैयार रहनेवाले शूर-वीर योद्धा स्वच्छ वस्त्र धारण किये महाराज के महान् अभ्युदयशाली आँगन में प्रवेश करें” ।।

२०.
सेवकों को इस प्रकार कार्य करने का आदेश दे कर दोनों ब्राह्मण वसिष्ठ और वामदेव ने पुरोहितों द्वारा सम्पादित होने योग्य क्रियाओं को स्वयम् पूर्ण किया । राजा के बताये हुए कार्यों के अतिरिक्त भी जो शेष आवश्यक कर्तव्य थे उसे भी उन दोनों ने राजा से पूछ कर स्वयम् ही सम्पन्न किया ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
तदनन्तर महाराज के पास जा कर प्रसन्नता और हर्ष से भरे हुए वे दोनों श्रेष्ठ द्विज बोले, “राजन्! आप ने जैसा कहा था, उस के अनुसार सब कार्य सम्पन्न हो गये हैं” ।।

२२.
इसके बाद तेजस्वी राजा दशरथ ने सुमन्त्र से कहा, “सखे! पवित्रात्मा श्रीराम को तुम शीघ्र यहाँ बुला लाओ” ।।

२३.
तब “जो आज्ञा” कह कर सुमन्त्र गये तथा राजा के आदेशानुसार रथियों में श्रेष्ठ श्रीराम को रथ पर बिठा कर ले आये ।।

२४ से २५.
उस राजभवन में साथ बैठे हुए पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के भूपालों, म्लेच्छों, आर्यों तथा वनों और पर्वतों में रहनेवाले अन्यान्य मनुष्यों सब-के-सब उस समय राजा दशरथ की उसी प्रकार उपासना कर रहे थे जैसे देवता देवराज इन्द्र की करते हैं ।।

२६ से २७.
उनके बीच अट्टालिका के भीतर बैठे हुए राजा दशरथ मरुद्रणों के मध्य देवराज इन्द्र की भाँति शोभा पा रहे थे; उन्हों ने वहीं से अपने पुत्र श्रीराम को अपने पास आते देखा, जो गन्धर्वराज के समान तेजस्वी थे, उनका पौरुष समस्त संसार में विख्यात था ।।

२८ से २९.
उनकी भुजाएँ बड़ी और बल महान् था । वे मतवाले गजराज के समान बड़ी मस्ती के साथ चल रहे थे । उनका मुख चन्द्रमा से भी अधिक कान्तिमान् था । श्रीराम का दर्शन सब को अत्यन्त प्रिय लगता था । वे अपने रूप और उदारता आदि गुणों से लोगों की दृष्टि और मन आकर्षित कर लेते थे । जैसे धूप में तपे हुए प्राणियों को मेघ आनन्द प्रदान करता है, उसी प्रकार वे समस् प्रजा को परम आह्लाद देते रहते थे ।।

३०.
आते हुए श्रीरामचन्द्र की ओर एक टक देखते हुए राजा दशरथ को तृप्ति नहीं हो रही थी । सुमन्त्र ने उस श्रेष्ठ रथ से श्रीरामचन्द्रजी को उतारा और जब वे पिता के समीप जाने लगे, तब सुमन्त्र भी उनके पीछे-पीछे हाथ जोड़े हुए गये ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
वह राजमहल कैलास शिखर के समान उज्ज्वल और ऊंचा था, रघुकुल को आनन्दित करनेवाले श्रीराम महाराज का दर्शन करने के लिये सुमन्त्र के साथ सहसा उस पर चढ़ गये ।।

३२.
श्रीराम दोनों हाथ जोड़ कर विनीत भाव से पिता के पास गये और अपना नाम सुनाते हुए उन्हों ने उनके दोनों चरणों में प्रणाम किया ।।

३३.
श्रीराम को पास आकर हाथ जोड़ प्रणाम करते देख राजा ने उनके दोनों हाथ पकड़ लिये और अपने प्रिय पुत्र को पास खींच कर छाती से लगा लिया ।।

३४.
उस समय राजा ने उन श्रीरामचन्द्रजी को सुवर्ण से भूषित एक परम सुन्दर सिंहासन पर बैठने की आज्ञा दी, जो पहले से उन्हीं के लिये वहाँ उपस्थित किया गया था ।।

३५.
जैसे निर्मल सूर्य उदयकाल में मेरु पर्वत को अपनी किरणों से उद्भासित कर देते हैं, उसी प्रकार श्री रघुनाथ जी उस श्रेष्ठ आसन को ग्रहण करके अपनी ही प्रभा से उसे प्रकाशित करने लगे ।।

३६.
उनसे प्रकाशित हुइ वह सभा भी बड़ी शोभा पा रही थी । ठीक उसी तरह जैसे निर्मल ग्रहों और नक्षत्रों से भरा हुआ शरत काल का आकाश चन्द्रमा से उद्भासित हो उठता है ।।

३७.
जैसे सुन्दर वेश-भूषा से अलंकृत हुए अपने ही प्रतिबिम्ब को दर्पण में देख कर मनुष्य को बड़ा संतोष प्राप्त होता है, उसी प्रकार अपने शोभाशाली प्रिय पुत्र उन श्रीराम को देख कर राजा बड़े प्रसन्न हुए ।।

३९ से ४०.
जैसे कश्यप, देवराज इन्द्र को पुकारते हैं, उसी प्रकार पुत्रवानों में श्रेष्ठ राजा दशरथ सिंहासन पर बैठे हुए अपने पुत्र श्रीराम को सम्बोधित करके उनसे इस प्रकार बोले, “बेटा! तुम्हारा जन्म मेरी बड़ी महारानी कौसल्या के गर्भ से हुआ है । तुम अपनी माता के अनुरूप ही उत्पन्न हुए हो । श्रीराम ! तुम गुणों में मुझ से भी बढ़कर हो, अतः मेरे परम प्रिय पुत्र हो; तुम ने अपने गुणों से इन समस्त प्रजाओं को प्रसन्न कर लिया है, इस लिये कल पुष्य नक्षत्र के योग में युवराज का पद ग्रहण करो” ।।

श्लोक ४१ से ४९ ।।

४१ से ४२.
“बेटा! यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो और तुम्हारे विषय में यही सब का निर्णय है । तथापि मैं स्नेह वश सद्गुण सम्पन्न होने पर भी तुम्हें कुछ हित की बातें बताता हूँ । तुम और भी अधिक विनय का आश्रय ले कर सदा जितेन्द्रिय बने रहो” ।।

४३.
“काम और क्रोध से उत्पन्न होनेवाले दुर्व्यसनों का सर्वथा त्याग कर दो, परोक्ष वृत्ति से (अर्थात् गुप्तचरों द्वारा यथार्थ बातों का पता लगा कर) तथा प्रत्यक्ष वृत्ति से (अर्थात् दरबार में सामने आकर कहनेवाली जनता के मुख से उस के वृत्तान्तों को प्रत्यक्ष देख-सुन कर) ठीक-ठीक न्याय विचार में तत्पर रहो” ।।

४४ से ४५.
“मन्त्रियों, सेना पतियों आदि समस्त अधिकारियों तथा प्रजाजनों को सदा प्रसन्न रखना। जो राजा कोष्ठागार (भण्डारगृह) तथा शस्त्रागार आदि के द्वारा उपयोगी वस्तुओं का बहुत बड़ा संग्रह करके मन्त्रियों, सेना पतियों और प्रजा आदि समस्त प्रकृतियों को प्रिय मान कर उन्हें अपने प्रति अनुरक्त एवम् प्रसन्न रखते हुए पृथ्वी का पालन करता है, उसके मित्र उसी प्रकार आनन्दित होते हैं, जैसे अमृत को पा कर देवता प्रसन्न हुए थे” ।।

४६.
“इसलिये बेटा! तुम अपने चित्त को वश में रख कर इस प्रकार के उत्तम आचरणों का पालन करते रहो“ राजा की ये बातें सुन कर श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करनेवाले सुहृदों ने तुरंत माता कौसल्या के पास जा कर उन्हें यह शुभ समाचार निवेदन किया ।।

४७.
नारियों में श्रेष्ठ, माता कौसल्या ने वह प्रिय संवाद सुनाने वाले उन सुहृदों को तरह-तरह के रत्न, सुवर्ण और गौएँ पुरस्कार रूप में दीं ।।

४८.
इस के बाद श्रीरामचन्द्रजी, राजा को प्रणाम कर के, रथ पर बैठे और प्रजा जनों से सम्मानित होते हुए वे अपने शोभा शाली भवन में चले गये ।।

४९.
नगर निवासी मनुष्यों ने राजा की बातें सुन कर मन-ही-मन यह अनुभव किया कि हमें शीघ्र ही अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी, फिर भी महाराज की आज्ञा ले कर अपने घरों को चले गये और अत्यन्त हर्ष से भर कर अभीष्ट-सिद्धि के उपलक्ष्य में देवताओं की पूजा करने लगे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ ।।

वालमिकि द्वारा निर्मित आदिकाव्य रामायण का हिन्दी अनुवाद करने में मुझे अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है । आशा है कि आप को भी कुछ ऐसा ही अनुभव हो रहा होगा । आपका अपना - Dr T K Bansal.