02. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 02

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

दूसरा सर्ग – २४ श्लोक ।।

सारांश ।।

सुग्रीव का श्रीरामजी को उत्साह प्रदान करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
इस प्रकार शोक से संतप्त हुए दशरथनन्दन श्रीराम से सुग्रीवजी ने उन के शोक का निवारण करने वाली बात कही- ।।

२.
“वीरवर! आप दूसरे साधारण मनुष्यों की भाँति क्यों संताप कर रहे हैं? आप इस तरह चिन्तित न हों। जैसे कृतघ्न पुरुष सौहार्द को त्याग देता है, उसी तरह आप भी इस संताप को छोड़ दें” ।।

३.
“रघुनन्दन! जब सीताजी का समाचार मिल ही गया और शत्रु के निवास स्थान का पता लग गया, तब मुझे आप के इस दुख और चिन्ता का कोई कारण नहीं दिखायी देता” ।।

४.
“रघुकुलभूषण! आप बुद्धिमान्, शास्त्रों के ज्ञाता, विचारकुशल और पण्डित हैं, अतः कृतात्मा पुरुषों की भाँति इस अर्थदूषक प्राकृत बुद्धि का परित्याग कर दीजिये” ।।

५.
“बड़े-बड़े नागों से भरे हुए समुद्र को लांघ कर हमलोग लङ्का पर चढ़ाई करेंगे और आप के शत्रु को नष्ट कर डालेंगे” ।।

६.
“जो पुरुष उत्साहशून्य, दीन और मन-ही-मन शोक से व्याकुल रहता है, उस के सारे काम बिगड़ जाते हैं और वह बड़ी विपत्ति में पड़ जाता है” ।।

७.
“ये वानर यूथपति सब प्रकार से समर्थ एवम् शूरवीर हैं। आपका प्रिय करने के लिये इन के मन में बड़ा उत्साह है। ये आपके लिये जलती हुइ आग में भी प्रवेश कर सकते हैं। समुद्र को लाँघने और रावण को मारने का प्रसंग चलने पर इनका मुँह प्रसन्नता से खिल जाता है। इनके इस हर्ष और उत्साह से ही मैं इस बात को जानता हूँ तथा इस विषय में मेरा अपना तर्क (निश्चय) भी सुदृढ़ है” ।।

८.
“आप ऐसा कीजिये, जिस से हमलोग पराक्रम-पूर्वक अपने शत्रु पापाचारी रावण का वध करके सीताजी को यहाँ ले आवें” ।।

९.
“रघुनन्दन! आप ऐसा कोइ उपाय कीजिये, जिस से समुद्र पर सेतु बंध सके और हम उस राक्षसराज की लंकापुरी को देख सकें” ।।

१०.
“त्रिकूट पर्वत के शिखर पर बसी हुई लङ्कापुरी एक बार दिख जाय तो आप यह निश्चित समझिये कि युद्ध में रावण दिखायी दिया और मारा गया” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“वरुण के निवासभूत घोर समुद्र पर पुल बांधे बिना तो इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी लङ्का को पददलित नहीं कर सकते” ।।

१२.
“अतः जब लङ्का के निकट तक समुद्र पर पुल बंध जायगा , तब हमारी सारी सेना उस पार चली जायगी। फिर तो आप यही समझिये कि अपनी जीत हो गयी ; क्योंकि इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले ये वानर युद्ध में बड़ी वीरता दिखानेवाले हैं” ।।

१३.
“अतः राजन् ! आप इस व्याकुल बुद्धि का आश्रय न लें – बुद्धि की इस व्याकुलता को त्याग दें ; क्योंकि यह समस्त कार्यों को बिगाड़ देनेवाली है और शोक इस जगत्में पुरुष के शौर्य को नष्ट कर देता है” ।।

१४.
“मनुष्य को जिस का आश्रय लेना चाहिये , उस शौर्य का ही वह अवलम्बन करे ; क्योंकि वह कर्ता को शीघ्र ही अलंकृत कर देता है — उसके अभीष्ट फल की सिद्धि करा देता है” ।।

१५.
“अतः महाप्राज्ञ श्रीराम ! आप इस समय तेज के साथ ही धैर्य का आश्रय लें। कोई वस्तु खो गयी हो या नष्ट हो गयी हो , उसके लिये आप जैसे शूरवीर महात्मा पुरुषों को शोक नहीं करना चाहिये ; क्योंकि शोक सब कार्यों को बिगाड़ देता है” ।।

१६.
“आप बुद्धिमानों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं। अतः हम जैसे मन्त्रियों एवम् सहायकों के साथ रह कर अवश्य ही शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं” ।।

१७.
“रघुनन्दन! मुझे तो तीनों लोकों में ऐसा कोई वीर नहीं दिखायी देता , जो रणभूमि में धनुष लेकर खड़े हुए आप के सामने ठहर सके” ।।

१८.
“वानरों पर जिस का भार रखा गया है , आपका वह कार्य बिगड़ने नहीं पायेगा। आप शीघ्र ही इस अक्षय समुद्र को पार करके सीताजी का दर्शन करेंगे” ।।

१९.
“पृथ्वीनाथ! अपने हृदय में शोक को स्थान देना व्यर्थ है। इस समय तो आप शत्रुओं के प्रति क्रोध धारण कीजिये। जो क्षत्रिय मन्द ( क्रोधशून्य ) होते हैं , उन से कोई चेष्टा नहीं बन पाती ; परंतु जो शत्रु के प्रति आवश्यक रोष से भरा होता है , उस से सब डरते हैं” ।।

२०.
“नदियों के स्वामी घोर समुद्र को पार करने के लिये क्या उपाय किया जाय , इस विषय में आप हमारे साथ बैठ कर विचार कीजिये ; क्योंकि आपकी बुद्धि बड़ी सूक्ष्म है” ।।

श्लोक २१ से २४ ।।

२१.
“यदि हमारे सैनिक समुद्र को लाँघ गये तो यही निश्चय रखिये कि अपनी जीत अवश्य होगी। सारी सेना का समुद्र के उस पार पहुँच जाना ही अपनी विजय समझिये” ।।

२२.
“ये वानर संग्राम में बड़े शूरवीर हैं और इच्छानुसार रूप धारण कर सकते हैं। ये पत्थरों और पेड़ों की वर्षा कर के ही उन शत्रुओं का संहार कर डालेंगे” ।।

२३.
“शत्रुसूदन श्रीराम! यदि किसी प्रकार मैं इस वानर-सेना को समुद्र के उस पार पहुँची देख सकूँ तो मैं रावण को युद्ध में मरा हुआ ही समझता हूँ” ।।

२४.
“बहुत कहने से क्या लाभ! मेरा तो विश्वास है कि आप सर्वथा विजयी होंगे; क्योंकि मुझे ऐसे ही शकुन दिखायी देते हैं और मेरा हृदय भी हर्ष एवम् उत्साह से भरा है” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 02 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.