02. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 02

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

दूसरा सर्ग ।।

सारांश ।

राजा दशरथ द्वारा श्रीराम के राज्याभिषेक का प्रस्ताव तथा सभा सदों द्वारा श्रीराम के गुणों का वर्णन करते हुए उक्त प्रस्ताव का सहर्ष युक्तियुक्त समर्थन करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१ से २.
उस समय राजसभा में बैठे हुए सब लोगों को सम्बोधित करके महाराज दशरथ ने मेघ के समान शब्द करते हुए दुन्दुभि की ध्वनि के सदृश अत्यन्त गम्भीर एवम् गूंज्ते हुए उच्च स्वर से सब के आनन्द को बढ़ाने वाली यह हितकारक बात कही, ।।

३.
राजा दशरथ का स्वर राजोचित स्निग्धता और गम्भीरता आदि गुणों से युक्त था, अत्यन्त कमनीय और अनुपम था । वे उस अद्भुत रसमय स्वर से समस्त नरेशों को सम्बोधित करते हुए बोले ।।

४.
“सज्जनो! आप लोगों को यह तो विदित ही है कि मेरे पूर्वज राजा धिराजों ने इस श्रेष्ठ राज्य का (यहाँ की प्रजा का) किस प्रकार पुत्र की भाँति पालन किया था” ।।

५.
“समस्त इक्ष्वाकु वंशी नरेशों ने जिस का प्रतिपालन किया है, उस सुख भोगने के योग्य सम्पूर्ण जगत को अब मैं भी कल्याण का भागी बनाना चाहता हूँ” ।।

६.
“मेरे पूर्वज जिस मार्ग पर चलते आये हैं, उसी का अनुसरण करते हुए मैंने भी सदा जागरूक रह कर समस्त प्रजा जनों की यथाशक्ति रक्षा की है” ।।

७.

“समस्त संसार का हित साधन करते हुए मैंने इस शरीर को श्वेत राज छत्र की छाया में बूढ़ा किया है” ।।

८.
“अनेक सहस्र (साठ हजार) वर्षों की आयु पा कर जीवित रहते हुए अपने इस जराजीर्ण शरीर को अब मैं विश्राम देना चाहता हूँ” ।।

९.
“जगत के धर्म पूर्वक संरक्षण का भारी भार राजाओं के शौर्य आदि प्रभावों से ही उठाना सम्भव है। अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इस बोझ को ढोना अत्यन्त कठिन है । मैं दीर्घकाल से इस भारी भार को वहन करते-करते थक गया हूँ” ।।

१०.

“इस लिये यहाँ पास बैठे हुए इन सम्पूर्ण श्रेष्ठ द्विजों की अनुमति ले कर प्रजा जनों के हित के कार्य में अपने पुत्र श्रीराम को नियुक्त कर के अब मैं राज कार्य से विश्राम लेना चाहता हूँ” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“मेरे पुत्र श्रीराम मेरी अपेक्षा सभी गुणों में श्रेष्ठ हैं । शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले श्रीरामचन्द्र बल पराक्रम में देवराज इन्द्र के समान हैं” ।।

१२.
“पुष्य नक्षत्र से युक्त चन्द्रमा की भाँति समस्त कार्यों के साधन में कुशल तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ उन पुरुष शिरोमणि श्रीरामचन्द्र को मैं कल प्रातः काल पुष्य नक्षत्र में युवराज के पद पर नियुक्त करूँगा” ।।

१३.
“लक्ष्मणके बड़े भाई श्रीमान् राम आपलोगों के लिये योग्य स्वामी सिद्ध होंगे; उन के जैसे स्वामी से सम्पूर्ण त्रिलोकी भी परम सनाथ हो सकती है” ।।

१४.
“ये श्रीराम कल्याण स्वरूप हैं; इनका शीघ्र ही अभिषेक करके मैं इस भूमण्डल को तत्काल कल्याण का भागी बनाऊँगा । अपने पुत्र श्रीराम पर राज्य का भार रख कर मैं सर्वथा क्लेश रहित- निश्चिन्त हो जाऊँगा” ।।

१५.
“यदि मेरा यह प्रस्ताव आप लोगों को अनुकूल जान पड़े और यदि मैंने यह अच्छी बात सोची हो तो आप लोग इस के लिये मुझे सहर्ष अनुमति दें अथवा यह बतावें कि मैं किस प्रकार से कार्य करूँ” ।।

१६.
“यद्यपि यह श्रीराम के राज्याभिषेक का विचार मेरे लिये अधिक प्रसन्नता का विषय है तथापि यदि इस के अतिरिक्त भी कोई सब के लिये हितकर बात हो तो आप लोग उसे सोचें; क्योंकि मध्यस्थ पुरुषों का विचार एकपक्षीय पुरुष की अपेक्षा विलक्षण होता है, कारण कि वह पूर्वपक्ष और अपरपक्ष को लक्ष्य कर के किया गया होने के कारण अधिक अभ्युदय करने वाला होता है” ।।

१७.
राजा दशरथ जब ऐसी बात कह रहे थे, उस समय वहाँ उपस्थित नरेशों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन महाराज का उसी प्रकार अभिनन्दन किया, जैसे मयूर मधुर के कारव फैलाते हुए वर्षा करने वाले महामेघ का अभिनन्दन करते हैं ।।

१८.
तत्पश्चात् समस्त जन समुदाय की स्नेहमयी हर्ष ध्वनि सुनायी पड़ी । वह इतनी प्रबल थी कि समस्त पृथ्वी को कँपाती हुइ-सी जान पड़ी ।।

१९ से २०.
धर्म और अर्थ के ज्ञाता महाराज दशरथ के अभिप्राय को पूर्ण रूप से जान कर सम्पूर्ण ब्राह्मण और सेनापति नगर और जनपद के प्रधान प्रधान व्यक्तियों के साथ मिल कर परस्पर विचार करने के लिये बैठे और मन से सब कुछ समझ कर जब वे एक निश्चय पर पहुँच गये, तब बूढ़े राजा दशरथ से इस प्रकार बोले - ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“पृथ्वी नाथ! आपकी अवस्था कई हजार वर्षों की हो गयी । आप बूढ़े हो गये। अतः पृथ्वी के पालन में समर्थ अपने पुत्र श्रीराम का अवश्य ही युवराज के पद पर अभिषेक कीजिये” ।।

२२.
“रघुकुल के वीर महाबलवान् महाबाहु श्रीराम महान् गजराज पर बैठ कर यात्रा करते हों और उन के ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ हो - इस रूप में हम उन की झांकी करना चाहते हैं” ।।

२३.
उनकी यह बात राजा दशरथ के मन को प्रिय लगने वाली थी इसे सुन कर राजा दशरथ अनजान से बन कर उन सब के मनोभाव को जानने की इच्छा से इस प्रकार बोले - ।।

२४.
“राजागण! मेरी यह बात सुन कर जो आप लोगों ने श्रीराम को राजा बनाने की इच्छा प्रकट की है, इस में मुझे यह संशय हो रहा है जिसे आप के समक्ष उपस्थित करता हूँ। आप इसे सुन कर इस का यथार्थ उत्तर दें” ।।

२५.
“मैं धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का निरन्तर पालन कर रहा हूँ, फिर मेरे रहते हुए आपलोग महाबली श्रीराम को युवराज के रूप में क्यों देखना चाहते हैं?" ।।

२६.
यह सुनकर वे महात्मा नरेश नगर और जनपद के लोगों के साथ राजा दशरथ से इस प्रकार बोले— “महाराज! आप के पुत्र श्रीराम में बहुतसे कल्याणकारी सद्गुण हैं” ।।

२७.

“देव! देवताओं के तुल्य बुद्धिमान् और गुणवान् श्रीरामचन्द्रजी के सारे गुण सब को प्रिय लगने वाले और आनन्ददायक हैं, हम इस समय उन का यत्किं रुचित् वर्णन कर रहे हैं, आप उन्हें सुनिये” ।।

२८.
“प्रजानाथ! सत्यपराक्रमी श्रीराम देवराज इन्द्र के समान दिव्य गुणों से सम्पन्न हैं । इक्ष्वाकु कुल में भी ये सब से श्रेष्ठ हैं” ।।

२९.
“श्रीराम संसार में सत्यवादी, सत्यपरायण और सत्पुरुष हैं। साक्षात् श्रीराम ने ही अर्थ के साथ धर्म को भी प्रतिष्ठित किया है” ।।

३०.
“ये प्रजा को सुख देने में चन्द्रमा की और क्षमारूपी गुण में पृथ्वी की समानता करते हैं । बुद्धि में बृहस्पति और बल-पराक्रममें साक्षात् शचीपति इन्द्र के समान हैं” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१ से ३२.
“श्रीराम धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, शीलवान्, अदोषदर्शी, शान्त, दीन-दुखियों को सान्त्वना प्रदान करनेवाले, मृदुभाषी, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, कोमल स्वभाववाले, स्थिरबुद्धि, सदा कल्याणकारी, असूयारहित, समस्त प्राणियों के प्रति प्रिय वचन बोलनेवाले और सत्यवादी हैं” ।।

३३.
“वे बहुश्रुत विद्वानों, बड़े-बूढ़ों तथा ब्राह्मणों के उपासक हैं । सदा ही उनका संग किया करते हैं, इसलिये इस जगत्में श्रीराम की अनुपम कीर्ति, यश और तेज का विस्तार हो रहा है” ।।

३४.
“देवता, असुर और मनुष्यों के सम्पूर्ण अस्त्रों का उन्हें विशेष रूप से ज्ञान है । वे साङ्ग वेद के यथार्थ विद्वान् और सम्पूर्ण विद्याओं में भलीभाँति निष्णात हैं” ।।

३५.
“भरतके बड़े भाई श्रीराम गान्धर्ववेद (संगीतशास्त्र) में भी इस भू तल पर सब से श्रेष्ठ हैं । कल्याण की तो वे जन्मभूमि हैं । उनका स्वभाव साधु पुरुषों के समान है, हृदय उदार और बुद्धि विशाल है” ।।

३६.
“धर्म और अर्थके प्रतिपादनमें कुशल श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने उन्हें उत्तम शिक्षा दी है । वे ग्राम अथवा नगर की रक्षा के लिये लक्ष्मण के साथ जब संग्राम भूमि में जाते हैं, उस समय वहाँ जाकर विजय प्राप्त किये बिना पीछे नहीं लौटते हैं” ।।

३७ से ३८.
“संग्रामभूमिसे हाथी अथवा रथ के द्वारा पुनः अयोध्या लौटने पर वे पुरवासियों से स्वजनों की भाँति प्रतिदिन उनके पुत्रों, अग्निहोत्र की अग्नियों, स्त्रियों, सेवकों और शिष्यों का कुशल- समाचार पूछते रहते हैं” ।।

३९.
" जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का कुशल- मङ्गल पूछते हैं, उसी प्रकार वे समस्त पुरवासियों से क्रमशः उनका सारा समाचार पूछा करते हैं । पुरुषसिंह श्रीराम ब्राह्मणों से सदा पूछते रहते हैं कि आप के शिष्य आपलोगों की सेवा करते हैं न?” क्षत्रियों से यह जिज्ञासा करते हैं कि क्या आप के सेवक कवच आदिसे सुसज्जित हो आप की सेवा में तत्पर रहते हैं न?” ।।

४०.
“नगर के मनुष्यों पर संकट आने पर वे बहुत दुखी हो जाते हैं और उन सब के घरों में सब प्रकार के उत्सव होने पर उन्हें पिता की भाँति प्रसन्नता होती है” ।।

श्लोक ४१ से ५१ ।।

४१ से ४२.
“वे सत्यवादी, महान् धनुर्धर, वृद्ध पुरुषों के सेवक और जितेन्द्रिय हैं । श्रीराम पहले मुसकरा कर वार्तालाप आरम्भ करते हैं । उन्होंने सम्पूर्ण हृदय से धर्म का आश्रय ले रखा है । वे कल्याण का सम्यक् आयोजन करनेवाले हैं, निन्दनीय बातों की चर्चा में उन की कभी रुचि नहीं होती है” ।।

४३.
“उत्तरोत्तर उत्तम युक्ति देते हुए वार्तालाप करने में वे साक्षात् बृहस्पति के समान हैं । उनकी भौंहें सुन्दर हैं, आँखें विशाल और कुछ लालिमा लिये हुए हैं । वे साक्षात् विष्णु की भाँति शोभा पाते हैं” ।।

४४.
“सम्पूर्ण लोकों को आनन्दित करनेवाले ये श्रीराम शूरता, वीरता और पराक्रम आदि के द्वारा सदा प्रजा का पालन करने में लगे रहते हैं । उनकी इन्द्रियाँ राग आदि दोषों से दूषित नहीं होती हैं” ।।

४५.

“इस पृथ्वी की तो बात ही क्या है, वे सम्पूर्ण त्रिलोकी की भी रक्षा कर सकते हैं । उनका क्रोध और प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं होता है” ।।

४६.

“जो शास्त्र के अनुसार प्राणदण्ड पाने के अधिकारी हैं, उन का ये नियम पूर्वक वध कर डालते हैं तथा जो शास्त्र दृष्टि से अवध्य हैं, उन पर ये कदापि कुपित नहीं होते हैं । जिसपर ये संतुष्ट होते हैं, उसे हर्ष में भर कर धन से परिपूर्ण कर देते हैं” ।।

४७.
“समस्त प्रजाओं के लिये कमनीय तथा मनुष्यों का आनन्द बढ़ानेवाले मन और इन्द्रियों के संयम आदि सद्गुणों द्वारा श्रीराम वैसे ही शोभा पाते हैं, जैसे तेजस्वी सूर्य अपनी किरणों से सुशोभित होते हैं” ।।

४८.
“ऐसे सर्व गुण सम्पन्न, लोकपालों के समान प्रभावशाली एवम् सत्यपराक्रमी श्रीराम को इस पृथ्वी की जनता अपना स्वामी बनाना चाहती है” ।।

४९.
“हमारे सौभाग्य से आप के वे पुत्र श्री रघुनाथ जी प्रजा का कल्याण करने में समर्थ हो गये हैं तथा आप के सौभाग्य से वे मरीचिनन्दन कश्यप की भाँति पुत्रोचित गुणों से सम्पन्न हैं” ।।

५० से ५१.
“देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गन्धवों और नागों में से प्रत्येक वर्ग के लोग तथा इस राज्य और राजधानी में भी बाहर-भीतर आने-जाने वाले नगर और जनपदों के सभी लोग सुविख्यात शील स्वभाव वाले श्रीरामचन्द्रजी के लिये सदा ही बल, आरोग्य और आयु की शुभ कामना करते हैं” ।।

श्लोक ५२ से ५४ ।।

५२.
“इस नगर की बूढ़ी और युवती - सब तरह की स्त्रियाँ सबेरे और सायंकाल में एकाग्रचित्त हो कर परम उदार श्रीरामचन्द्रजी के युवराज होने के लिये देवताओं से नमस्कार पूर्वक प्रार्थना किया करती हैं । देव! उन की वह प्रार्थना आप के कृपा प्रसाद से अब पूर्ण होनी चाहिये” ।।

५३.
“नृपश्रेष्ठ! जो नीलकमल के समान श्यामकान्ति से सुशोभित तथा समस्त शत्रुओं का संहार करने में समर्थ हैं, आप के उन ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को हम युवराज – पद पर विराजमान देखना चाहते हैं” ।।

५४.
“अतः वरदायक महाराज! आप देवाधिदेव श्रीविष्णु के समान पराक्रमी, सम्पूर्ण लोकों के हित में संलग्न रहनेवाले और महापुरुषों द्वारा सेवित अपने पुत्र श्रीरामचन्द्रजी का जितना शीघ्र हो सके प्रसन्नतापूर्वक राज्याभिषेक कीजिये, इसी में हम लोगों का हित है” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ ।।

मुझे आशा है कि आपको वालमिकी द्वारा निर्मित रामायण का यह हिंदी अनुवाद अच्छा लग रहा होगा । अगले सर्ग में फिर मिलने की आशा के साथ, आपका Dr T K Bansal.