01. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 01

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

पहला सर्ग – १९ श्लोक ।।

सारांश ।।

हनुमान्जी की प्रशंसा करके श्रीराम का उन्हें हृदय से लगाना और समुद्रको पार करने के लिये चिन्तित होना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
हनुमान्जी के द्वारा यथावतरुप से कहे हुए इन वचनों को सुन कर भगवान् श्रीरामजी बड़े प्रसन्न हुए, और इस प्रकार उत्तम वचन बोले- ।।

२.
“हनुमानजी ने बड़ा भारी कार्य किया है। भूतल पर ऐसा कार्य होना कठिन है। इस भूमण्डल में दूसरा कोइ तो ऐसा कार्य करने की बात मन के द्वारा सोच भी नहीं सकता” ।।

३.
“गरुड़, वायु और हनुमानजी को छोड़ कर दूसरे किसी को मैं ऐसा नहीं देखता, जो महासागर को लांघ सके” ।।

४.
“देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षस- इन में से किसी के लिये भी जिस पर आक्रमण करना असम्भव है, तथा जो रावण के द्वारा भलीभाँति सुरक्षित है, उस लंकापुरी में अपने बल के भरोसे प्रवेश करके कौन वहाँ से जीवित निकल सकता है?” ।।

५.
“जो हनुमानजी के समान बल-पराक्रम से सम्पन्न न हो, ऐसा कौन पुरुष राक्षसों द्वारा सुरक्षित अत्यन्त दुर्जय लंका में प्रवेश कर सकता है” ।।

६.
“हनुमान्जी ने समुद्र-लङ्गन आदि कार्यों के द्वारा अपने पराक्रम के अनुरूप बल प्रकट करके एक सच्चे सेवक के योग्य सुग्रीव का बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न किया है” ।।

७.
“जो सेवक स्वामी के द्वारा किसी दुष्कर कार्य में नियुक्त होने पर उसे पूरा करके तदनुरूप दूसरे कार्य को भी (यदि वह मुख्य कार्य का विरोधी न हो) सम्पन्न करता है, वह सेवकों में उत्तम कहा गया है” ।।

८.
“जो एक कार्य में नियुक्त होकर योग्यता और सामर्थ्य होने पर भी स्वामी के दूसरे प्रिय कार्य को नहीं करता (स्वामी ने जितना कहा था, उतना ही करके लौट आता है) वह मध्यम श्रेणी का सेवक बताया गया है” ।।

९.
“जो सेवक मालिक के किसी कार्य में नियुक्त होकर अपने में योग्यता और सामर्थ्य के होते हुए भी उसे सावधानी से पूरा नहीं करता, वह अधम कोटि का कहा गया है” ।।

१०.
“हनुमान्जी ने स्वामी के एक कार्य में नियुक्त होकर उस के साथ ही दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों को भी पूरा किया है, साथ ही अपने गौरव में भी कमी नहीं आने दी-अपने-आप को दूसरों की दृष्टि में छोटा नहीं बनने दिया और सुग्रीव को भी पूर्णतः संतुष्ट कर दिया” ।।

श्लोक ११ से १९ ।।

११.
“आज हनुमान्ने विदेहनन्दिनी सीता का पता लगा कर-उन्हें अपनी आँखों से देख कर धर्म के अनुसार मेरी, समस्त रघुवंश की और महाबली लक्ष्मण की भी रक्षा की है” ।।

१२.
“आज मेरे पास पुरस्कार देने योग्य वस्तु का अभाव है, यह बात मेरे मन में बड़ी कसक पैदा कर रही है कि यहाँ जिसने मुझे ऐसा प्रिय संवाद सुनाया है, उसका मैं कोइ वैसा ही प्रिय कार्य नहीं कर पा रहा हूँ” ।।

१३.
“इस समय इन महात्मा हनुमान्को मैं केवल अपना प्रगाढ़ आलिङ्गन ही प्रदान करता हूँ, क्योंकि यही मेरा सर्वस्व है” ।।

१४.
ऐसा कहते-कहते रघुनाथजी के अङ्ग-प्रत्यङ्ग प्रेम से पुलकित हो गये और उन्होंने अपनी आज्ञा के पालन में सफलता पाकर लौटे हुए पवित्रात्मा हनुमान्जी को हृदय से लगा लिया ।।

१५.
फिर थोड़ी देर तक विचार करके रघुवंशशिरोमणि श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव को सुना कर यह बात कही- ।।

१६.
“बन्धुओ! सीता की खोज का काम तो सुचारुरूप से सम्पन्न हो गया है; किंतु समुद्र तक की दुस्तरता का विचार करके मेरे मन का उत्साह फिर नष्ट हो गया है” ।।

१७.
“महान् जलराशि से परिपूर्ण समुद्र को पार करना तो बड़ा ही कठिन कार्य है। यहाँ एकत्रित हुए ये वानर समुद्र के दक्षिण तट पर कैसे पहुँचेंगे” ।।

१८.
“मेरी सीता ने भी यही संदेह उठाया था, जिसका वृत्तान्त अभी-अभी मुझ से कहा गया है। इन वानरों के समुद्र के पार जाने के विषय में जो प्रश्न खड़ा हुआ है, उस का वास्तविक उत्तर क्या है?” ।।

१९.
हनुमान्जी से ऐसा कह कर शत्रुसूदन महाबाहु श्रीराम शोकाकुल होकर बड़ी चिन्ता में पड़ गये ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ।।

Sarg 01 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.