01. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 01

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

पहला सर्ग ।।

सारांश ।

श्रीराम के सद्गुणों का वर्णन, राजा दशरथ का श्रीराम को युवराज बनाने का विचार तथा विभिन्न नरेशों और नगर एवम् जनपदों के लोगों को मन्त्रणा के लिये अपने दरबार में बुलाना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
(पहले यह बताया जा चुका है कि) भरत अपने मामा के यहाँ जाते समय काम आदि शत्रुओं को सदा के लिये नष्ट कर देने वाले निष्पाप शत्रुघ्न को भी प्रेम वश अपने साथ ले गये थे ।।

२.
वहाँ भाइ सहित उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ और वे वहाँ सुख पूर्वक रहने लगे। उनके मामा युधाजित्, जो अश्वयूथ के अधिपति थे, उन दोनों पर पुत्र से भी अधिक स्नेह रखते और बड़ा लाड़-प्यार करते थे ।।

३.
यद्यपि, मामा के यहाँ उन दोनों वीर भाइयों की सभी इच्छाएँ पूर्ण कर के उन्हें पूर्णतः तृप्त किया जाता था, तथापि, वहाँ रहते हुए भी उन्हें अपने वृद्ध पिता महाराज दशरथ की याद कभी नहीं भूलती थी ।।

४.
महातेजस्वी राजा दशरथ भी परदेश में गये हुए महेन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी अपने उन दोनों पुत्रों भरत और शत्रुघ्न का सदा स्मरण किया करते थे ।।

५.
अपने शरीर से प्रकट हुई चारों भुजाओं के समान वे सब चारों ही पुरुष शिरोमणि पुत्र महाराज को बहुत ही प्रिय थे ।।

६.
परंतु उनमें भी महातेजस्वी श्रीराम सब की अपेक्षा अधिक गुणवान् होने के कारण समस्त प्राणियों के लिये ब्रह्माजी की भाँति पिता के लिये विशेष प्रीति वर्धक थे ।।

७.
इसका एक कारण और भी था – वे साक्षात् सनातन विष्णु थे और परम प्रचण्ड रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले देवताओं की प्रार्थना पर मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे ।।

८.
उन अमित तेजस्वी पुत्र श्रीरामचन्द्रजी से महारानी कौसल्या की वैसी ही शोभा होती थी, जैसे वज्रधारी देवराज इन्द्र से देवमाता अदिति सुशोभित होती हैं ।।

९.
श्रीराम बड़े ही रूपवान् और पराक्रमी थे। वे किसी के भी दोष नहीं देखते थे । भूमण्डल में उनकी समता करनेवाला कोई नहीं था। वे अपने गुणों से पिता दशरथ के समान एवम् योग्य पुत्र थे ।।

१०.
वे सदा शान्त चित्त रहते और सान्त्वना पूर्वक मीठे वचन बोलते थे; यदि उनसे कोई कठोर बात भी कह देता तो भी वे उसका उत्तर नहीं देते थे ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
कभी कोई एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकार से सदा संतुष्ट रहते थे और मन को वश में रखने के कारण किसी के सैकड़ों अपराध करने पर भी उस के अपराधों को याद नहीं रखते थे ।।

१२.
अस्त्र-शस्त्रों के अभ्यास के लिये उपयुक्त समय में भी बीच-बीच में अवसर निकाल कर वे उत्तम चरित्र में, ज्ञान में तथा अवस्था में बढ़े - चढ़े सत्पुरुषों के साथ ही सदा बातचीत करते (और उनसे शिक्षा लेते थे) ।।

१३.
वह बड़े बुद्धिमान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आये हुए मनुष्यों से पहले स्वयम् ही बात करते और ऐसी बातें मुँह से निकालते जो उन्हें प्रिय लगे; बल और पराक्रम से सम्पन्न होने पर भी अपने महान् पराक्रम के कारण उन्हें कभी गर्व नहीं होता था ।।

१४.
झूठी बात तो उनके मुख से कभी निकल्ती ही नहीं थी। वे विद्वान् थे और सदा वृद्ध पुरुषों का सम्मान किया करते थे । प्रजाका श्रीराम के प्रति और श्रीराम का प्रजा के प्रति बड़ा अनुराग था ।।

१५.
वे परम दयालु, क्रोध को जीतने वाले, और ब्राह्मणों के पुजारी थे । उनके मन में दीन- दुखियों के प्रति बड़ी दया थी। वे धर्म के रहस्य को जानने वाले, इन्द्रियों को सदा वश में रखने वाले और बाहर भीतर से परम पवित्र थे ।।

१६.
अपने कुल उचित आचार, दया, उदारता और शरणागत की रक्षा आदि में ही उनका मन लगता था। वे अपने क्षत्रिय धर्म को अधिक महत्त्व देते और मानते थे। वे उस क्षत्रिय धर्म के पालन से महान् स्वर्ग (परम धाम) की प्राप्ति मानते थे; अतः बड़ी प्रसन्नता के साथ उस में संलग्न रहते थे ।।

१७.
अमम्गलकारी निषिद्ध कर्म में उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती थी; शास्त्र विरुद्ध बातों को सुनने में उन की कोई रुचि नहीं थी; वे अपने न्याय युक्त पक्ष के समर्थन में बृहस्पति के समान एक-से-एक बढ़ कर युक्तियाँ देते थे ।।

१८.
उनका शरीर नीरोग था और अवस्था तरुण थी । वे अच्छे वक्ता, सुन्दर शरीर से सुशोभित तथा देश – काल के तत्त्व को समझने वाले थे। उन्हें देख कर ऐसा जान पड़ता था कि विधाता ने संसार में समस्त पुरुषों के सारतत्त्व को समझने वाले साधु पुरुष के रूप में एकमात्र श्रीराम को ही प्रकट किया है ।।

१९.
राजकुमार श्रीराम श्रेष्ठ गुणों से युक्त थे। वे अपने सद्गुणों के कारण प्रजा जनों को बाहर विचरने वाले प्राण की भाँति प्रिय थे ।। ।।

२०.
भरत के बड़े भाइ श्रीराम सम्पूर्ण विद्याओं के व्रत में निष्णात और छहों अङ्ग सहित सम्पूर्ण वेदों यथार्थ ज्ञाता थे। बाण विद्या में तो वे अपने पिता से भी बढ़ कर थे ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
वे कल्याण की जन्मभूमि, साधु, दैन्य रहित, सत्यवादी और सरल थे; धर्म और अर्थ के ज्ञाता वृद्ध ब्राह्मणों के द्वारा उन्हें उत्तम शिक्षा प्राप्त हुई थी ।।

२२.
उन्हें धर्म, काम और अर्थ के तत्त्व का सम्यक् ज्ञान था । वे स्मरण शक्ति से सम्पन्न और प्रतिभा शाली थे । वे लोक व्यवहार के सम्पादन में समर्थ और समयोचित धर्माचरण में कुशल थे ।।

२३.
वे विनयशील, अपने आकार ( अभिप्राय) को छिपाने वाले, मन्त्र को गुप्त रखने वाले और उत्तम सहायकों से सम्पन्न थे । उनका क्रोध अथवा हर्ष निष्फल नहीं होता था । वे वस्तुओं के त्याग और संग्रह के अवसर को भलीभाँति जानते थे ।।

२४.
गुरु जनों के प्रति उन की दृढ़ भक्ति थी । वे स्थितप्रज्ञ थे और असद्वस्तुओं को कभी ग्रहण नहीं करते थे । उनके मुख से कभी दुर्वचन नहीं निकल्ते थे । वे आलस्य रहित, प्रमाद शून्य तथा अपने और पराये मनुष्यों के दोषों को अच्छी प्रकार जानने वाले थे ।।

२५.
वे शास्त्रों के ज्ञाता, उपकारियों के प्रति कृतज्ञ तथा पुरुषों के तारतम्य को अथवा दूसरे पुरुषों के मनोभाव को जानने में कुशल थे । यथायोग्य निग्रह और अनुग्रह करने में वे पूर्ण चतुर थे ।।

२६.
उन्हें सत्पुरुषों के संग्रह और पालन तथा दुष्ट पुरुषों के निग्रह के अवसरों का ठीक-ठीक ज्ञान था । धन की आय के उपायों को वे अच्छी तरह जानते थे (अर्थात् फूलों को नष्ट न करके उनसे रसाने वाले भ्रमरों की भाँति वे प्रजाओं को कष्ट दिये बिना ही उनसे न्यायोचित धन का उपार्जन करने में कुशल थे) तथा शास्त्र वर्णित व्यय कर्म का भी उन्हें ठीक-ठीक ज्ञान था ।।

२७.
उन्होंने सब प्रकार के अस्त्रसमूहों तथा संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं से मिश्रित नाटक आदि के ज्ञान में निपुणता प्राप्त की थी । वे अर्थ और धर्म का संग्रह (पालन) करते हुए तदनुकूल काम का सेवन करते थे और कभी आलस्य को पास नहीं फटकने देते थे ।।

२८.
विहार (क्रीडा या मनोरञ्जन) के उपयोग में आने वाले संगीत, वाद्य और चित्रकारी आदि शिल्पों के भी वे विशेषज्ञ थे। अर्थो के विभाजन का भी उन्हें सम्यक् ज्ञान था । वे हाथियों और घोड़ों पर चढ़ने और उन्हें भाँति भाँति की चालों की शिक्षा देने में भी निपुण थे ।।

२९.
श्रीरामचन्द्रजी इस लोक में धनुर्वेद के सभी विद्वानों में श्रेष्ठ थे । अतिरथी वीर भी उनका विशेष सम्मान करते थे । शत्रु सेना पर आक्रमण और प्रहार करने में वे विशेष कुशल थे । सेना- संचालन की नीति में उन्होंने अधिक निपुणता प्राप्त की थी ।।

३०.
संग्राम कुपित हो कर आये हुए समस्त देवता और असुर भी उन को परास्त नहीं कर सकते थे। उन में दोष दृष्टि का सर्वथा अभाव था। वे क्रोध को जीत चुके थे । दर्प और इर्ष्या का उन में अत्यन्त अभाव था ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१ से ३२.
किसी भी प्राणी के मन में उन के प्रति अवहेलना का भाव नहीं था । वे काल के वश में हो कर उस के पीछे-पीछे चलने वाले नहीं थे (काल ही उन के पीछे चलता था) । इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त होने के कारण राजकुमार श्रीराम समस्त प्रजाओं तथा तीनों लोकोंके प्राणियों के लिये आदरणीय थे । वे अपने क्षमासम्बन्धी गुणों के द्वारा पृथ्वी की समानता करते थे । बुद्धि में बृहस्पति और बल पराक्रम में शचीपति इन्द्र के तुल्य थे ।।

३३.
जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से प्रकाशित होते हैं। उसी प्रकार श्रीरामचन्द्रजी समस्त प्रजाओं को प्रिय लगने वाले तथा पिता की प्रीति बढ़ाने वाले सद्गुणों से सुशोभित होते थे ।।

३४.
ऐसे सदाचार सम्पन्न, अजेय पराक्रमी और लोकपालों के समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी को पृथ्वी (भूदेवी और भूमण्डल की प्रजा) ने अपना स्वामी बनाने की कामना की ।।

३५.
अपने पुत्र श्रीराम को अनेक अनुपम गुणों से युक्त देख कर शत्रुओं को संताप देने वाले राजा दशरथ ने मन-ही-मन कुछ विचार करना आरम्भ किया ।।

३६.
उन चिरञ्जीवी बूढ़े महाराज दशरथ के हृदय में यह चिन्ता हुई कि किस प्रकार मेरे जीते-जी श्रीरामचन्द्र राजा हो जायँ और उन के राज्याभिषेक से प्राप्त होने वाली यह प्रसन्नता मुझे कैसे सुलभ हो ।।

३७.
उनके हृदय में यह उत्तम अभिलाषा बारम्बार चक्कर लगाने लगी कि कब मैं अपने प्रिय पुत्र श्रीराम का राज्याभिषेक देखूँगा ।।

३८.
वे सोचने लगे कि “श्रीराम सब लोगों के अभ्युदय की कामना करते और सम्पूर्ण जीवों पर दया रखते हैं । वे लोक वर्षा करने वाले मेघ की भाँति मुझ से भी बढ़ कर प्रिय हो गये हैं” ।।

३९.
“श्रीराम बल-पराक्रम में यम और इन्द्र के समान, बुद्धि में बृहस्पति के समान, और धैर्य में पर्वत के समान हैं । गुणों में तो वे मुझ से सर्वथा बढ़े- चढ़े हैं” ।।

४०.
“मैं इसी उम्र में अपने बेटे श्रीराम को इस सारी पृथ्वी का राज्य करते देख यथासमय सुख से स्वर्ग प्राप्त करूँ, यही मेरे जीवन की साध है” ।।

श्लोक ४१ से ५१ ।।

४१ से ४२.
इस प्रकार विचार कर तथा अपने पुत्र श्रीराम को उन उन नाना प्रकार के विलक्षण, सज्जनोचित, असंख्य तथा लोकोत्तर गुणों से, जो अन्य राजाओं में दुर्लभ हैं, विभूषित देख राजा दशरथ ने मन्त्रियों के साथ विचार कर के उन्हें युवराज बनाने का निश्चय कर लिया ।।

४३.
बुद्धिमान् महाराज दशरथ ने मन्त्रियों को स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूतल में दृष्टिगोचर होने वाले उत्पातों का घोर भय सूचित किया और अपने शरीर में वृद्धावस्था के आगमन की भी बात बतायी ।।

४४.
पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाले महात्मा श्रीराम समस्त प्रजा के प्रिय थे। लोको में उन का सर्वप्रिय होना राजा के अपने आन्तरिक शोक को दूर करने वाला था, इस बात को राजा ने अच्छी तरह समझा ।।

४५.
तदनन्तर उपयुक्त समय आने पर धर्मात्मा राजा दशरथ ने अपने और प्रजा के कल्याण के लिये मन्त्रियों को श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये शीघ्र तैयारी करने की आज्ञा दी। इस उतावली में उन के हृदय का प्रेम और प्रजा का अनुराग भी कारण था ।।

४६.
उन भूपाल ने भिन्न-भिन्न नगरों में निवास करने वाले प्रधान प्रधान पुरुषों तथा अन्य जनपदों के सामन्त राजाओं को भी मन्त्रियों द्वारा अयोध्या में बुलवा लिया ।।

४७.
उन सब को ठहरने के लिये घर दे कर नाना प्रकार के आभूषणों द्वारा उन का यथायोग्य सत्कार किया । तत्पश्चात् स्वयम् भी अलंकृत हो कर राजा दशरथ उन सब से उसी प्रकार मिले, जैसे प्रजापति ब्रह्मा प्रजा वर्ग से मिलते हैं ।।

४८.
जल्दीबाजी के कारण राजा दशरथ ने केकय नरेश को तथा मिथिला पति जनक को भी नहीं बुलवाया। * उन्होंने सोचा वे दोनों सम्बन्धी इस प्रिय समाचार को पीछे सुन लेंगे ।।

४९.
तदनन्तर शत्रु नगरी को पीड़ित करने वाले राजा दशरथ जब दरबार में आ बैठे, तब ( केकयराज और जनक को छोड़ कर) शेष सभी लोकप्रिय नरेशों ने राजसभा में प्रवेश किया ।।

५०.
वे सभी नरेश राजा द्वारा दिये गये नाना प्रकार के सिंहासनों पर उन्हीं की ओर मुँह कर के विनीत भाव से बैठे थे ।।

५१.
राजा से सम्मानित हो कर विनीत भाव से उन्हीं के आस-पास बैठे हुए सामन्त नरेशों तथा नगर और जनपद के निवासी मनुष्यों से घिरे हुए महाराज दशरथ उस समय देवताओं के बीच में विराजमान सहस्र नेत्र धारी भगवान् इन्द्र के समान शोभा पा रहे थे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ ॥

जै श्री राम । - Dr T K Bansal.